Thursday 31 December 2015

काल की गति कैलेंडर की मोहताज नहीं है........ !!

वक़्त ने बीतना होता है , बीत जाता है। हम तारीखों को ढोते हैं और समय हमारी कलाईयों पर बंधे रहने का भरम देता हुए हमें कहीं पीछे छोड़ जाता है। आगे बढ़ना भी कहाँ हो पाता  है। जो पीछे छूट गया वो भला था या बुरा था जैसा भी रहा गुज़र गया.......  कुछ सीखा कि नहीं ,नहीं कह सकती ये भी वक्त ही तय करेगा। 

खुशनसीबी पर इतराने को जी करता है तो दूसरे ही पल मन उदास भी हो जाता है। लम्हे बड़े सौदाई होते हैं ,हर एहसास की कीमत मांगते हैं। सिर पर प्यार करने वालों का उधार चढ़ा है उधर नफरत करने वाले दरवाजा पीट रहे हैं। मैं किस से तकाजा करूँ ? दोनों ही मेरे अपने हैं.......  मेरे ही लेनदेन के खाते है। 

जाईये गुज़र जाईये , हर गली में सौदाई हैं ,हर गली जज्बात बिकते हैं , रिश्तों की होली जलती है कभी ख्वाबों की दिवाली मनती है। ये कारवां है  जिधर से गुज़र जाए जिंदगी , अजब रंग बिखरे हैं गज़ब लोग मिलते हैं। 

 ये साल शानदार रहा , उम्मीद से बेहतर हासिल किया और उम्मीद से कहीं अधिक खो भी  दिया। पाया जो कुछ सर माथे , जो खोया उसका हौसला जुटाने में जो पाया वो भी उम्मीद से बढ़ कर पाया। अफ़सोस कुछ नहीं बस यही तल्ख़ी रह गयी कि कुछ सितारे जो फ़लक पर चमक सकते थे वो अनजाने ही जमीन पर आ गिरे और मैं निमित्त बन गयी। 

तोड़ देते हैं कुछ पल, कुछ भरोसे डगमगा जाते हैं ,कुछ उम्मीदें जला के ख़ाक कर देती हैं लेकिन दूसरे ही पल कुछ नए लम्हे हाथ आगे बढ़ा  देते हैं........   विश्वास  लौट आता है , भरोसा और बढ़ जाता है कि ईश्वर हमारे लिए कभी गलत चुन नहीं सकता। 

मैंने जो चुना गलत चुना पर वही सजा मेरे लिए नियति ने तय कर रखी थी कि मैं ठोकर खा लूँ तो समझूँ कि जिंदगी सीधा सपाट मैदान नहीं है। घुटने छिले हैं तो दर्द भी होगा ,कुछ तमाशबीन हंसेंगे भी लेकिन जख्म याद दिलाता रहेगा कि काल की गति कैलेंडर की मोहताज नहीं है। 

मैंने जो निर्णय किये वो सही थे क्यूंकि उन्हीं ने मुझे सच को जीने का हौसला दिया। नई मंज़िलों के पते मिले ,नया आसमान मिला। ईनाम के तौर  मिली किसी अजनबी मुस्कुराहट की कीमत  लगाई ही नहीं सकती।  

जो किया दिल से किया ! शिकायत किसी से अब कोई बाकी नहीं..........  कटुता शेष नहीं केवल मंगल कामनाएं हैं .......  नियति क्या चुन के लाई है पता नहीं पर मेरी दुआएं आप के हर नेक कदम पर आपके साथ हैं। 

2016 मेरे जीवन में तुम्हारा स्वागत है !




Saturday 12 December 2015

वो एक रिश्ता है , डूबने लगती हूँ तो हाथ बढ़ा देता है .........

जिंदगी के कैनवास पर जितनी भी बार नज़र डालो हर तस्वीर कुछ पहचानी सी लगती है मनो कल की ही बात हो , कभी बोलती से लगती है कभी सिर्फ खामोशी से मुझे देखती है।  इन तस्वीरों में एक उसका चेहरा भी है जो हर तस्वीर के पीछे से मुझे खामोशी से देख रहा है। बरसों का खामोश साथ है , कितने रंग चढ़े और फीके भी पड़ गए पर उसकी चमक कभी गयी ही नहीं।

वो एक रिश्ता है , डूबने लगती हूँ तो हाथ बढ़ा देता है और जब तैरने का जी चाहता है खामोशी से मुझे लहरों के साथ खेलते देख मुस्कुरा भर देता है। उसके किनारे पर बैठ मुझे देखते रहना बड़ा सुकून देता है। ये यकीन हो जाता है कि शाम ढ़ले वहीं किनारे उसी से मुलाक़ात होगी।

अल्हड़पने के वो दिन उसने बखूबी संजो लिए हैं।  न मिलने न बिछड़ने के दर्द से परे के ये खामोश रूमानी से लम्हे, इश्क़ का वो दरिया बन गए जिसे उस नीली छतरी वाले ने खुद मेरे लिए रचा है।  वक्त का ये दरिया अब और खूबसूरत दिखाई देता है। किसी शाम जब आँखों से कुछ लम्हे झरने लगते है तो दरिया का ये किनारा ही कुछ कंकर हथेली में थमा जाता है और मैं घंटों उसी खेल में गुम फिर से आसमान छूने के लिए उड़  जाती हूँ। अपने पंखों पर इतराती, लजाती देख वो मुस्कुरा भर देता है। 

इस रिश्ते का कोई नाम न होना ही इसे संजोये हुए है। नाम वाले रिश्तों के साथ अपेक्षाओं और आक्षेपों के सिलसिले होते हैं ,बड़े अजीब होते हैं ,होते हैं पर किसी और के होते हैं। मेरे भी हैं ,सबके होते हैं पर मैं उनमें कहीं नहीं हूँ।

सांसों से लिखे नाम वक्त की सियाही भी धुंधला नहीं पाती। उसके साथ के वो पल इतने अज़ीज इस कदर अपने कि वजूद कब पिघल गया और एक नए सांचे में ढल गया पता ही नहीं चला। मैं लम्हा लम्हा जीती रही वो लम्हा लम्हा संजोता रहा और बरस बीत गए। न उम्मीदों की गुलामी न नाम की जिदें .......... न रवायतों की जंजीरें। आवाज़ देने से पहले आवाज़ सुन लूं और बिना देखे भी जिसके  जख़्म पढ़ लूं उस रिश्ते के साथ जिंदगी बसर हो तो मंज़िलों की परवाह कौन करे !

मेरी आवारगी को खुदा ने रहमतें बख्शी हैं। बेशुमार मोहब्बत पायी है मैंने जिंदगी से ,इतनी कि शिकायतें अब कोई बाकी नहीं हैं। सवाल हज़ारों हैं ,रोज़ बुलबले से उठते -बैठते हैं।  मैं उन आँखों के समंदर को पढ़ लेती हूँ तो हर सवाल का जवाब मिल जाता है।

दर्द के जंगल के पार वो  राहतों का दरिया है  ,वो आकाश जिसने मुझे अपने भीतर ऐसा सहेजा कि मैं हर उड़ान के बाद भी उस जद को पार नहीं कर पाती जिसके पार वो नहीं है। 

मेरी आवारगी तुझसे मेरा ये रिश्ता मेरा प्यार है ...... चल ले चल, जहाँ चाहे ... अब कोई अरमान भी बाकी नहीं सिवा इसके कि तेरा साथ हो और हाथ में तेरा हाथ हो ....... आ अब उड़ चलें !







Sunday 6 December 2015

जितने चेहरे चाहे लगा लीजिये ,हर चेहरे का सच वही होता है जो आप हैं.........

एक अरसा हो गया अब यहाँ  , शायद डेढ़ साल ___ ट्विटर की मायावी दुनिया एक आईने  की तरह मेरे सामने है, मन जैसी कभी सीधी सपाट कभी एक दम जंतरम् -मंतरम्।

140 की सीमा में किसी के चरित्र और उसकी जिंदगी का खाका खींच लेने की धृष्टता आपने भी की होगी ,मैंने भी की है। कई बार महसूस हुआ कि किसी नतीजे पर पहुंच गयी ,दूसरे ही पल लगा कि शायद गलत हूँ। कुछ बेहतरीन हैंडल थे जिनके पीछे की सोच बेहद सुकून भरी थी ,कुछ आलोचनाओं के पुलिंदे ,कुछ शिकायतों के  सिलसिले ........ हम उन्ही का पीछा करते हैं जिन्हें  या तो पसंद करते हैं या सख्त नापसंद। जिन्हें पसंद करते हैं उन्हें पढ़ते हैं , प्रतिक्रिया देते हैं ,संवाद  करते हैं और जिन्हें पसंद नहीं करते उनका पीछा इसलिए करते हैं कि उन्हें लगातार ये जता सकें कि हमें आप में दिलचस्पी नहीं है या किसी दिन पीछा करना बंद कर देंगे , खामोश कर देंगे और विजयी भाव से खुद को भर लेंगे।  

 इन हैंडलों के भीतर एक अजीब सा सच और एक अजीब सा झूठ छिपा है। सच वो जो किसी प्रतिक्रिया के रूप में अनजाने ही सामने आ जाता है और झूठ वो जो दिन -रात शब्दों की  माया से गढ़ा जाता है। पिछले कुछ दिनों में कुछ ऐसे ही मायाजाल से उलझ रही हूँ....... व्यक्ति अपने सच से भागने लिए झूठ के जंगल उगाता  है। दिन रात बे सिर -पैर की बातें और उस दुनिया के किस्से कहानी सुना रहा है जिसमें वो है नहीं ,मायावी संसार गढ़ लिया है इर्दगिर्द  !

अप्राप्य के प्रति कौन आकर्षित नहीं होता लेकिन उसको अभिव्यक्त करने के लिए जिन शब्दों ,तस्वीरों का चयन किया जाता है उसे सम्भवतः आपके भीतर का जमीर भी इजाज़त न देता होगा। आप कैसे इतना गिर सकते हैं ? कैसे आप अपनी क्षमताओं के साथ इतनी निर्लज्जता के साथ बलात्कार कर सकते हैं और खुद ही उसको सम्मान भी देते हैं। खुद का महिमामंडन खुद के बनाये कल्पना लोक में ?

धीमा विष है जिसे पिया जा रहा है ...... जितने चेहरे चाहें लगा लीजिये ,हर चेहरे का सच वही होता है जो आप हैं । कितना भागेंगे ,कब तक भागेंगे ? जितना भागेंगे  ये उतनी गति से आपको दौडायेगा और एक दिन आपको ही थका देगा। 

इतने बेनामी हैंडल बना कर व्यक्त्तिव के उस हिस्से का पोषण करते हैं जिसे वक्त रहते खत्म किया जाना चाहिए लेकिन इस स्वनिर्मित संसार में होता उल्टा है। 

झूठ से सच की जंग कैसे जीतेंगे ,पता नहीं। जो भी हो मैं भी सीख रही हूँ ,देख रही हूँ ,समझ रही हूँ कि इंसान कोई एक भाषा न बोलता है ना समझता है। सहजता की इतनी कमी क्यों है , क्यों सब इतना बिखरा सा है ?

ट्वीटर का ये सफर अजब स्टेशनों से गुज़र रहा है ,अजब मुसाफिर -गजब के किस्से। 

मैं और मेरी आवारगी हमेशा की तरह इस बार भी इन सबके बीच से होकर , हर बार वहीं पहुँच जाते है जहाँ उसे जाना होता है ........  कहीं दूर - गुम जाने के लिए तैयार , झूठ की दुनिया में सच की बेजा तलाश है ! एक उम्मीद है , सो जाते -जाते ही जाएगी ! मैं हमेशा सफर में ही हूँ। 

आप भी चलते रहिये .......

Wednesday 25 November 2015

दर्द जब रूह से आज़ाद हुआ जाता है तो नफ़रत किससे करूँ...........

एक वक्त आता है जब लगता है कि सब हिसाब बराबर हो जाना चाहिए ,कभी जिंदगी बेहिसाब हो जाती है। कभी नफ़रतों का दौर, कभी मोहब्बत का दौर........ बेहिसाब कभी मैं -कभी वक्त की दरियादिली। वक्त की ईमानदारी ये कि कभी कोई मिला ही नहीं जिससे बेहिसाब नफरत करूँ , चाहती हूँ कि क्यों न करूँ पर चाह कर भी नहीं कर पाती किसी से भी नहीं।

जख़्म पक कर रिसने लगे हैं , काँटा जिस्म से खींच कर लाख निकाल दिया जाये लेकिन वो मंज़र अक्सर दीवारों से परछाई बन उतर आते हैं। हाथ अनचाहे ही उस दर्द को महसूस करता है जिसने वक्त को नासूर बना सफ़र की रूह पर सजा दिया। 

सजा भोगने के लिए कितने जन्म लेने होते हैं कौन जाने ,लेकिन किसी एक जन्म में दर्द का जलजला भी कितने जन्मों की खुशियां बहा ले जाता है। 
जिसे कभी कोई ऐसा मिला ही ना हो जिसने छला हो उसे कोई एक छल का पल मिल जाए तो नई परिभाषा समझने के लिए नया जन्म ही लेना होता है। जन्म भी ऐसा  मनो इंसान के बीच फ़िल्टर लगा के देखने की मजबूरी बन जाए। 

हादसे कम नहीं होते दुनिया में ,हर रोज लोग दो चार होते होंगे ,किसी रोज़ तमाशा बन जाओगे तो पूछना खुद से किस को हादसे में धकेल आये थे। दर्द की प्रतिक्रिया में दर्द ही नसीब होना होता है। 
बोझ कभी उतरता कभी चढ़ता है , बोझ भी कर्ज है..... जन्मों की लेनदारी -देनदारी रही होती है। इसे भी उतरना होगा। 

आवारगी ने कितने ही मंज़र देख लिए ,अब रंगों में बस आसमान बसता है। किसी की गीत की धुन पर रंग भी उसी आसमान से बरसने लगते हैं। पल जादू से गुज़र रहे हैं। होने न होने में फ़ासला न रहा है , दर्द जब रूह से आज़ाद हुआ जाता है तो नफ़रत किससे करूँ। 

ऐसी ही रह जाना चाहती हूँ ,अब थम जाना चाहती हूँ .......  आवारगी के अपने सफर में अपने खुश ख्याल सपनों के साथ , सात समंदर पार बसे अपने वजूद के साथ मोहब्बतों के दौर में ही दफन हो जाऊं किसी रोज़। 

हिसाब सब यहीं पूरा होना है ...... हादसा हूँ तो भुलाना भी नामुमकिन है ,वक्त मेरे होने की गवाही हर मोड़ पर देगा। नासूर भी भर जाएगा बाकि बस निशां होंगे। सफ़र उस निशां से होकर गुज़रेगा ,यही नियति है सो चलते रहिये ........ हादसों से बचना लेकिन हों तो उस टीस के साथ उन चीखों को याद करना जो उन दीवारों में आज भी कैद हैं।

ये दौर ऐसा जब देने को कोई दुआ भी नहीं .....  बाकि नसीब में तो जो है सो हइये ही। 





Saturday 21 November 2015

उत्तराखंड का वो एक सफर यादगार सफर था ….

जिंदगी कि मारामारी में कुछ पल सूकूँ के मिल जाएँ ,किसे तलाश नहीं होती। मरीचिका सा सुकून मृग सी मेरी तृष्णा ……भटकते -भटकते उत्तराखंड ले आयी। कारण कुछ भी बने हों पर इस तलाश में उन जगहों को ढूंढ पायी जो अक्सर तस्वीरों और ख्वाबों में देखे थे। 

सालों पहले अल्मोड़ा से इस सफ़र की शुरुआत की थी। रेत के टीलों से पहाड़ों तक का सफ़र इस कदर सुहाना होगा कभी सोचा नहीं था। काठगोदाम से उतर कर लोकल बस पकड़ी , जो लोकल सवारियों से ठसाठस भरी थी। पता चला कि कुछ कॉलेज में पढ़ने हल्द्वानी से नैनीताल और कुछ अल्मोड़ा  जा रहे हैं तो कुछ रोजमर्रा की जरूरतों का सामान लेने पहाड़ से नीचे उतरे थे। भाषा समझ नहीं आ रही थी पर उनको हिन्दी भी आती थी। गोल गोल चक्कर खाती बस में आगे बैठ कर लगता रहा कि ये अंतिम सफर न हो। नीचे झांक कर देखा तो लगा कि ईश्वर मेरे पास बैठा है। 

अल्मोड़ा के एस एस जे विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में एक माह रुकी थी। उस प्रवास ने समझा दिया कि पहाड़ कि जिंदगी उतनी सरल भी नहीं जितनी कि दिखाई देती है। सब्जियों की उतनी वैरायटी नहीं , मनोरंजन के लिए ढेरों मॉल और शॉपिंग कॉम्लेक्स भी नहीं लेकिन सुख इतना मनो इनमें से किसी की कोई जरूरत भी नहीं। लोकल कन्वेंस भी आसान नहीं , सब शार्ट कट इस पहाड़ से उतरो उस पर चढ़ जाओ। बेहद आसान सी लगने वाली चढ़ाई मुश्किल लगी लेकिन कुछ दिन बाद उसी ने शरीर की पुरानी सभी शिकायतों को दूर भी कर दिया। 

एक सुबह दोस्तों ने बताया कि कुछ दूर एक मंदिर है चाहो तो चलो। घर से निकली थी तो माँ ने बताया था कि अल्मोड़ा के जंगलों में सुमित्रा नंदन पंत की रचनाएँ बसती हैं। मैं कभी पंत को सुनती कभी साथियों के कुमाऊंनी -गढ़वाली गीतों को। गोलू देवता का मंदिर है ये , असंख्य चिट्ठियां लटकी थी। किसी ने बताया कि ये सबकी सुनते हैं। मैंने कोई पाती नहीं लिखी ,पता नहीं क्यों। हमारी श्रद्धा का प्रवाह कितना निर्मल है ना ....

इसी रास्ते से कुछ और आगे बढ़ते गए तो जंगल मंत्र मुग्ध करता जा रहा था। मैं उन गुफाओं कंदराओं में महावतार बाबाजी और योगानंद जी की कहानियां ढूंढती तो कभी शिव लीला की कल्पना में खो जाती। देवदार के जंगल नहीं थे वो किसी दूसरी ही दुनिया का पता हैं। जागेश्वर मंदिर के  उस समूह में रहा महाकाल और कुबेर का वो मंदिर मेरी स्मृतियों में आज भी जस का तस है। 

जागेश्वर के उसी रास्ते से कुछ दिन बात मुनस्यारी ,पिथौरागढ़ भी जाना हुआ। सड़क किनारे के जंगल ,खेत ,पहाड़ों से गिरते झरने , भेड़ों के झुण्ड सब कुछ कांच जैसा साफ़। मुनस्यारी के रास्ते की चढ़ाई ने दम जरूर निकाल दिया लेकिन आल्टो चलाने वाले भैया के लोकल किस्सों और दोनों ओर की धुंध की चादर ने आँख झपकने भी न दी। सवेरा पंचाचूली के सामने हुआ। सामने सोने से मढे पर्वत शिखर थे। ईश्वर ने ये सुख दिखाकर मुझे शिकायत करने के सब अधिकार ले लिए। मुनस्यारी से लौटते पताल भैरव गए। गुफा में ब्रह्माण्ड बसा है , जब जाईयेगा तभी समझ पाएंगे कि ऐरावत के पैर और कल्प वृक्ष की जड़ें वहां क्या कर रही हैं। 

लौट के अल्मोड़ा और अल्मोड़ा से लौटते हुए कैंची धाम रुकी। बाबा नीम करोरी के दर्शन और अध्यात्म के उस अनुभव के बिना ये सफर अधूरा रहता। 

काठगोदाम से लौटते  हुए लगा कि मेरी रूह वहीं रह गयी है बस अब जिस्म को ढो रही हूँ । देवभूमि में मेरे प्राण बसे हैं , मुझे वहीं लौट जाना है……कभी ,कहीं ,किसी रोज़ एक बार फिर हमेशा के लिए किसी जंगल में गुम जाने के लिए। 

बातें और भी हैं यादें भी अनगिनित है। फिर किसी दिन मिल बैठेंगे तो याद करेंगे कि रानीखेत के गोल्फ के मैदान और चौबटिया के आगे चिरियानौला का वो अंग्रेजों का मंदिर कितना ख़ास है। लौटने की वजह यादें और बतियाने के लिए बस बहाना चाहिए ! है ना ....... 

Saturday 7 November 2015

ये डिजिटल बलात्कार का युग है। असंख्य भैरवियां हैं जिनके पीछे कुत्सित मानसिकता दौड़ रही है.……

अजब समाज है अजब संस्कार हैं हमारे। बचपन इसी संस्कार के साथ बीता कि आसपास का हर बुजुर्ग परिवार का बुजुर्ग और हर बच्चा परिवार के बच्चे के समान ही स्नेह का अधिकारी है। आंटी कहने का  रिवाज आज भी दूरदराज में नहीं है ,मौसी ,बुआ ,चाची ,ताई …इन्हीं सम्बोधनों के बीच उम्र बीत गयी।

सोशल मीडिया ने सिखाया कि आंटी और मौसी वो उम्रदराज महिला जिसका चरित्रहनन आप जायज तरीके से नहीं कर पा रहे हैं तो इन सम्बोधनों से कर लें और अधिक साहसी हैं तो रं… ,वेश्या , माँ -बहन की गालियां और ठरक की ऊर्जा से पैदा हुए भतेरे क्रियात्मक शब्द हैं जिनका उपयोग आप समय के अनुसार कर सकते हैं। 

ये किस तरह की संताने हैं जो अपनी माँ -बहन -भाभी के हाथों से बना खाना खाकर ,उनका दुलार पाकर ,पत्नी -प्रेयसी के स्नेह के आँचल से एक क्षण में दूर हो , दूसरी महिला के चरित्र को बेच देना अपना परमधर्म समझते  हैं । नैतिकता के ये ठेकेदार एक पल भी ये नहीं सोचते कि वे जिस पर उंगली  उठा रहे हैं वे भी किसी रिश्ते में बंधी हैं , किसी सूत्र से वे आपसे भी एक प्रेम का रिश्ता रखती हैं।  क्यों आप हर उस स्त्री को नहीं झेल पाते जो आपकी अपेक्षाओं और आपके नैतिक मानदंडों पर खरी नहीं उतरती ? 

कितने ही ऐसे पुरुष हैं जो घर के बाहर सम्पर्क में आने वाली महिलाओं के साहस का सम्मान करते हैं लेकिन घर की महिलाओं के साहस को दुस्साहस करार देते हैं। कुछ ऐसे भी देखे हैं जो अपनी बेटी की आज़ादी के लिए लड़े लेकिन पत्नी ताउम्र उन्हीं अधिकारों के लिए उनका मुहं ताकती रही.…… विडंबनाओं से भरपूर समाज है ये !

अनुपम खेर आज असहिष्णुता की बात को लेकर मार्च करने निकले , अच्छा है। उनके मार्च को लेकर वे सभी रचनाकार सहिष्णु हैं जिन्होंने सत्ता के गलत निर्णयों के प्रति असहिष्णुता दिखायी। इसी मार्च में एक महिला पत्रकार के पीछे भीड़ दौड़ी। ये कहती हुई कि वो वेश्या है ……  कमाल है ना ! दौड़े भी वही लोग होंगे जो दिन रात संस्कारों की दुहाई देते हैं। गाय को माँ न मानने वालों की भर्त्सना करते हैं और असल जिंदगी में एक महिला की कोख को गाली  देते हैं। 

इस समाज में असंख्य भैरवियां हैं जिनके पीछे कुत्सित मानसिकता दौड़ रही है। सोशल मीडिया पर रोज इन भैरवियों के साथ मानसिक बलात्कार होता है ,रोज इनका चीरहरण होता है। 

आप इतना विचलित न होईये।  ये समाज अब मोमबत्ती जलाने का अभ्यास कर चुका है…… सत्ता ने स्वार्थ के ऐसे बीज बोये हैं कि अब आँगन में चिरैया नहीं वेश्याएं जनी जा रही हैं। 

सहते रहिये -देखते रहिये , लपट आपके आँगन तक नहीं आएगी ,मुग़ालते मुबारक रखिये !

चलते हैं ! हम अपनी जिंदगी जी चुके हैं ,बहुत देख -सुन चुके ,अब इन सब का असर नहीं होता नहीं कहती लेकिन अब उतना विचलित भी नहीं होती ,जितना कभी सुन भर के रो लेती थी। 

वक्त सबको सब दिखा रहा है , सब सिखा रहा है।  मैं भी सीख रही हूँ…… पर अब खुश हूँ कि शायद बेअसर सी हो गयी हूँ !

Friday 23 October 2015

बस मैं और मेरी आवारगी बाकी होंगे और निशां कुछ नहीं …

सबकुछ अपनी गति से चलता रहता है तभी एकाएक मन उचाट हो जाता है ……अक्सर हो जाता है।  खुद को फिट नहीं कर पाता है या खुद को ढूंढ नहीं पाता।  मैं गुम सी गयी हूँ , अक्सर भाग कर किसी पहाड़ ,किसी झील और जंगल का रुख करने का ख्याल इतनी तेजी से उठता है कि लगता है बस ये आखिरी पल है इस झाड़ से जीवन के।

प्रकृति से दूर का असहज जीवन कितना कठिन है …… असहज हंसी ,असहज बातें ,असहज इच्छाएं। दूर नीले आसमान के नीचे पसरी किसी नदी या झील का ख्याल भी आ जाये तो मन में लहरों की किलोल सुनायी देने लगती है , सब कांच सा दिखने लगता है। कदमों में पडी रवायतों की जंजीरें तोड़ भाग जाने के मन करता है।  विद्रोह कर देता है उस जीवन को जीने के लिए जहाँ मैं मैं न रहूँ ....... प्रकृति में एकाकार हो जाऊं।

जागेश्वर, अल्मोड़ा के जंगल ख्यालों में बसे हैं।  महावतार बाबा की तप वाली गुफा देखने का मन है ,उन पगडंडियों को नापने के लिए बैचेन हो उठती हूँ जो मुझे उस जंगल में गुम कर दें। स्वप्न भी अब वहीं ले जाते हैं …… नीम करोरी बाबा के धाम गयी थी ! दो बार हो आयी हूँ ……… तमाम अश्रु वहीं के लिए सिंचित रहते हैं। सब उस खाली ,शांत कुटिया में समा जाते हैं और मन एक बार फिर से खाली बर्तन बन जाता है।

अध्यात्म के आगे और उसकी दिशा में जाने के लिए कितने झंझावातों से गुज़रना होता होगा ,नहीं पता लेकिन ये यात्रा अभिभूत कर देने वाली है। किसी तप से कतई कम नहीं है।

सब जी लिया , सब जान लिया पर दूसरे ही पल कोई कान में फुसफुसा जाता है कि अभी कुछ नहीं देखा !

मैं लौट जाना चाहती हूँ.…… आवारगी के इस सफर में झील ,जंगल और पहाड़ के अलावा कुछ न हो ,कुछ भी नहीं !! तुम भी नहीं .......

अकेले निकल चला है मन ....... बस मैं और मेरी आवारगी बाकी होंगे और निशां कुछ नहीं !

Thursday 22 October 2015

आप सत्ता में हैं ,जवाब दें या षड्यंत्रों में उलझाये रखें आपकी मर्जी !

आजकल रातें कुछ जगी सी और दिन उनींदा सा गुज़र रहा है। कुछ है जो पीछा कर रहा है ,कुछ है जो पीछा छोड़ नहीं रहा है …मन उचाट सा है। खुद से दो -चार हो जाने का मन करता है तो कभी तमाम हथियार डाल घुटनों पर आ जाता है। समझाइश की भी सीमा होती है , कितना लड़िएगा खुद से और उस व्यवस्था से भी जिसमें सांस लेना आपकी नियति है।

मैं कुछ नहीं हूँ। एक पात्र ,एक सूत्रधार किसी कहानी की....... उस कहानी के सच ने मुझे राजनैतिक षड्यंत्रों के बीच ला पटका है। हर रोज नए ताने  बाने के साथ मुझ तक कोई फुसफुसाहट पहुंचाई जाती है मानो कि मैं उन सब पर भरोसा कर बैठूंगी। ये किस्से अब असर नहीं करते ,अब कोई सच असर नहीं कर रहा। 

ब्लॉग की एक मामूली सी पोस्ट ने समाज और राजनीति का जो चेहरा सामने ला के रखा है उसने भरम के कई जाले उतारे हैं। जो लोग संवेदनशीलता का स्वांग रचते हैं वे किस सीमा तक असंवेदनशील हैं ,अंदाजा भर लगाना मुश्किल है। मैंने वो लिखा जो मैंने जिया और उस सच का सामना किया जिसके लिए मैं खुद भी तैयार नहीं थी....... 

ये एक ऐसी लड़ाई बन गयी है जहाँ अब मेरा अपना जमीर ही दांव पर लग गया है। वे लोग जो सामजिक सरोकारों के बूते राजनैतिक ताकत बन के उभरे हैं वही सामाजिक यथार्थ के प्रमाण मांग रहे हैं ?
वही लोग चारों ओर पसरे सामजिक सच को निजी मसला बता कर अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रहे हैं। जी करता है आसमान से प्रश्न पूछूँ कि मेरी पैदाइश और मेरा इस दुनिया में होना ही मेरा निजी मसला है तो फिर ये समाज मुझे मेरे हाल पर छोड़ क्यों नहीं देता ?

मेरा परिवार ,मेरा आचरण मेरे इर्दगिर्द की दुनिया में कहने के लिए सब निजी है पर ताकाझांकी की कोई भी सम्भावना समाज बाकि भी नहीं रखता। …… फिर सब सवाल निजी कैसे हुए ??

घर की चारदीवारी में कोई अपनी पत्नी को मारे या कोई पत्नी अपने पति के साथ बलात्कार करे तो उसे पारस्परिक मामला माना जाना चाहिए। दहेज दो परिवारों के बीच का मसला है , बेटी चाहिए या नहीं ये भी निजी मसला है तो इन सब मसलों पर किसी भी राजनैतिक दल को चुप्पी साधे  रखनी चाहिए। 

औरत की अस्मिता और बीफ के बवाल में कोई अंतर नहीं है। दोनों वोट और नोट की आंच पर खूब सेंके जाते रहे हैं। प्रश्न के बदले प्रश्न करना अब हमारी आदत है क्यूंकि उत्तर अब कोख से पैदा नहीं हो रहे हैं।  ये समाज अब केवल प्रश्न जन रहा है। उत्तर जानने  के लिए जन्म भर इंतज़ार कीजिए। 

मैं भी इंतज़ार में हूँ ....... आप सत्ता में हैं ,जवाब दें या षड्यंत्रों में उलझाये रखें आपकी मर्जी ! फर्क पड़ने की भी सीमा होती है। भावुकता और निज बनके जो सत्ता तक पहुंचे हैं वे वोट की राजनीति करने लगेंगे तो उन जड़ों को पोषण मिलना बंद हो जाएगा जिसके आधार पर ये पेड़ उगा है। 

हम सब सीख रहे हैं। आप भी सीख लीजिये ,नहीं सीखना चाहते तो भी कोई बात नहीं ,प्रकृति बख्शेगी किसी को नहीं। 
किसी मोड पर हम फिर मिलेंगे ,दुआ -सलाम फिर होगी।  मैं तब भी आपकी खैरियत ही चाहूंगी , रही नींद की सो कब तक न आयेगी। मन बेचैन जरूर है पर आपसे नाराज भी नहीं है ,किसी से भी नहीं !

Sunday 18 October 2015

कद की कद्र में सबका फायदा होता है........

सुबह से फोन घनघनाने  लगा है , ट्वीटर पर DM भरा है ! सबका एक ही सवाल है " तुम्हारे पास कहाँ से आयी " …… मैं  हैरान हूँ कि कहाँ से आयी ? मैंने  किसी से माँगी नहीं ,मैं कहीं गयी नहीं  …… DM जरूर था ,मेल चेक करने का ,देख लिया सो मिल गयी !

ऐसा अक्सर होता है करने क्या निकलती  हूँ और मिलता क्या है। नेता जी के दरबार से मुलाक़ात भी कुछ ऐसी थी …… सम्मोहित करने वाली ! सबने ऐसे ही घेरा था , मने आत्मीयता ऐसी जैसे भूखे को भोजन मिला हो। वे खुश थे , सब खिल के मिले, लगा सब दिल से मिले …हम कई बार मिले हर बार और गर्मजोशी से मिले। सोचा कि दुनिया  इतनी बुरी भी ना है , पाया कि चेहरे सब अपने से हैं।

दरबार में सबका कोई कद होता है और कद की कद्र में सबका फायदा होता है। देख रहे थे कि सब कद के कायदे में कसीदे पढ़ रहे थे , कायदे की शान में कालीन बन बिछे थे। पीठ घूमते ही फुसफुसाहटों के सिलसिले और चेहरे सामने आते ही वाहवाही का सामान …… " यहाँ राजनीति नहीं परिवार सा है सब " ! हैरान भी थी और परेशान भी ,समझना भी नहीं चाहती थी  यूँ कि ख़्वाबों के महल के भरभराने की कल्पना ही सिहर भर देती है।

शाम फोन बजा " दी ,मैं बोल रहा हूँ …… कैसी हैं !"

बढ़िया !  सुनाईये कैसे याद किया....
कुछ बताना है , उसने कहा ! मैं हैरान थी कि इसे क्या कहना है ?
दी ,कुछ नाम और कुछ चेहरे और भी हैं आपकी कहानी में .......
मैं चुप थी।  ये सिलसिला खत्म क्यों नहीं हो रहा ? मैं कोई कहानी नहीं कहना चाहती थी ,मैं कुछ पाना -खोना नहीं चाहती थी ,मैं कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती थी ..........  अब हर कोई अपने तथ्य ,अपने साक्ष्य मेरे बिना मांगे मुझे दे रहा है ! क्या रिश्ता है उनका मुझसे ? ये भरोसा अब सांस को भारी कर रहा है .......

कड़वे सच को परोसूं कैसे ? सब कोई नई व्यवस्था से जो दिल लगाये बैठे हैं उनको क्या बताऊँ कि ईमान और ईनाम में मामूली हेरफेर है लेकिन इस मासूमियत में कितनों के आस की इमारत खड़ी है।

उसने सब सुना दिया , सब भेज दिया ! अब ये सिलसिला सा हो गया है ,मनो मैं कोई मिशन पर हूँ जिसे लोग तीर -तमंचों से लैस कर रहे हैं।

मैंने कब ये सब चाहा था ! झील -जंगल और पखडंडी की दुनिया थी मेरी और मेरी चाह का अंतिम ठिकाना भी …… ये सब कौन तय कर रहा है ,पता नहीं !

मैं दरबार की उस हकीकत से मायूस हूँ। वो जो कह रहे हैं वो हैं नहीं ,जो वो हैं वो ,वो कहते नहीं ....... हर कोई रेवड़ी के इंतज़ार में क्यों लग गया है …… सबको ईनाम की तमन्ना है। सब अपनी मेहनत और ईमानदारी की कहानी सुना रहे हैं और सब कोई उसे भुना रहे हैं। कुछ अब भी आदर्शों और नैतिकता को पीठ पर लादे भटक रहे हैं।

मैं क्या सोच के निकली थी , मैं कहाँ आ गयी ! ऐसा भी क्या है कि अपनी ही सांसों पर अपना ही हक नहीं होता ? ये कौन इशारे हैं कुदरत के ?

दरबार से शिकायत नहीं पर अब सब पर तरस आता है।   किसी को नहीं पता कि दिन भर साये की तरह साथ रहने वाला आपकी साँसों का हिसाब किसी के DM किसी के मेल बॉक्स में पोस्ट कर आया है !

ये जिंदगी का दरबार बड़ा जालिम है दोस्तों ,अपने सारथी से भी संभल के रहिएगा ! रफ़्तार कहीं उड़ा न दे …… सबकी सलामती  की दुआ कीजे …… चलते हैं !

Thursday 15 October 2015

न कोख उसकी न देह उसकी !……

चार -पांच दिन हुए आर टी आई की एक अर्जी आयी।  सूचना मांगने वाले ने किसी लड़की की साल 2000 में कॉलेज में नियमित छात्रा होने से संबंधित दस्तावेज मांगे थे …… आवेदन देख के समझ में आ रहा था कि कहीं कोई कानूनी पेच है जो ये सूचना माँगी गयी है !

तबियत ठीक नहीं थी ,कॉलेज नहीं गयी। फोन बजा की सूचना जल्दी चाहिए .... " क्या जल्दी है ?" कोर्ट में तारीख है ,जल्दी दें तो मेहरबानी होगी ! समझ आ गया कि मामला वही कुछ है …… कल दोपहर मिलियेगा , कह के फोन बंद कर दिया !

बहुत परेशान हूँ मैडम ! 498 कर दिया है , कई बार बंद हो आया हूँ ! वो तलाक नहीं दे रही है।
तो आप दे दें ? मैंने कहा।
वो बच्चा लौटा दे और 5 लाख के गहने लौटाए तो मैं दे दूँ।
वो बच्चा आपको क्यों दे ?
बच्चा मेरा है।
बच्चा तो उसका भी है ,मैंने कहा।
वो इन्द्राणी है , मैं आपको क्या बताऊँ ! बदचलन है …
ओह्ह्ह …… तो वो बच्चा आपका है ये आप कैसे कह सकते हैं ,छोड़ दीजिये ऐसी बदचलन औरत को !
नहीं , बच्चा तो मेरा ही है। हम 15 साल साथ रहे , बच्चा कैसे छोड़ दूँ !
आप करते क्या हैं ?
थर्ड ग्रेड टीचर की तैयारी !
वो ?
नर्स है।  बदचलन है , खराब है।
आप काम क्या करते हैं ?
उसको नौकरी कराई।
नौकरी कैसे कराई ?
नर्स थी ,पांच गांव लाता -ले जाता था।
मने ,ड्राइवर थे ?
नहीं , उसको साथ ले जाता था ,साथ लाता था ! वो बेकार औरत है।
कैसे ?
केरल की साथी नर्सों से बात करती थी।
अच्छा ,और…?
हंसती थी , सबके साथ बात करती थी !
ओह्ह !
वही समझाता था कि चुपचाप काम करो और घर आ जाओ ! दुनिया खराब है मैडम।
हम्म ,सो तो है पर आप अच्छे हैं  ?
वो बदचलन है !
आपने उसकी बदचलनी पकड़ी ?
नहीं ,मैं साथ रहता था ना , कैसे करती।
हम्म !
पर वो बेकार है।
अच्छा , तो अब क्या चाहिए ?
बच्चा और गहने।
क्या करोगे दोनों का ?
वो तो नाते जायेगी तो उसके पास तो और आ जायेंगे।
और बच्चा क्यों चाहिए ?
बुढ़ापे का सहारा चाहिए।
उसको भी तो चाहिए?
वो बेकार औरत है।
बच्चा कितने साल का है ?
8 साल का है।
15 साल बाद उसने या उसकी बहू ने आपके साथ रहने से मना कर दिया तो दूसरा मुकदमा फिर लड़ना पड़ेगा ?
ऐसा नहीं होगा।
कैसे पता ?
देख के लाऊंगा !
अभी नहीं देखा था ?
देखा था....... पर वो बेकार थी !!!

मैं अब चुप थी।  देख रही थी कि औरत के चरित्र को तराजू लेकर तोलने का ठेका क्या सब कोख से  ले कर आये हैं ! उसकी साँस -सांस पर पहरेदारी पर भी वही बदचलन।  जिस दिन पति के साथ नहीं रहने या किसी और के साथ संबंध रखने का निर्णय ले लिया तो समाज पर पहाड़ टूट पड़ेगा।

न  कोख उसकी न देह उसकी !

सूचना का अधिकार आपको सूचना का वैधानिक हकदार  बना रहा है ! आईये , वर्तमान तो आपका है ही ,भूत और भविष्य भी आपको सौंप दे रहे हैं ........

वाह री नियति ? जन्नत सी कोख के साथ पहाड़ सी लज्जा काहे दे दी ?

प्रश्नों का अंतहीन सिलसिला है। बेमियादी सज़ा सी जिंदगी बना देता है ये समाज …… गाना याद आ गया " ओ री कठपुतली गोरी कौन संग बांधी डोर ....... "

ये पर्दा भी गिरेगा किसी रोज जब अंगना से चिरइया फुर्र हो जाएगी ....... सफर कब थमता है ! कभी इस खूंटे कभी उस खूंटे !

रवायतों ने खुशियों पर पहरेदार बिठा रखे हैं …मन पाखी साथी ढूंढता है ,समाज चौकीदार ढूंढ के देता है ! अजब नज़ारे देखें हैं मेरी आवारगी ने !

आप भी देखिये ,और सोचिये कि आपके आसपास कितने चौकीदार हैं ! हम चलते हैं ……











Tuesday 13 October 2015

प्रशंसक किसी के न बनिए वरना कुछ समय के लिए सही छाती जरूर कूटेंगे !

घोर गंवई से लेकर तथाकथित संभ्रांतों तक के बीच से गुज़र आयी हूँ।  जिंदगी का फलसफा सुलझने की जगह उलझता ही जा रहा है।  बचपन पिताजी के खादी के संस्कारों और साहित्य के आदर्शों के बीच बीता ,बड़े हुए तो राजस्थान यूनिवर्सिटी के गलियारों में कुछ बेहतरीन  प्रोफेसरों से पाला पड़ गया …… वहां से निकले तो असल जिंदगी के थपेड़े इतने लगे कि आज तक कोई नतीजे पर नहीं पहुंच पायी कि सच आखिर था क्या? क्या है ? वो लोग कौनसी दुनिया की बातें करते थे ? वो कौनसी दुनिया में रहते थे ?

इस दुनिया में तो सब बकलोली है। कहे कि कन्फूजन इतना समंदर गहरा हो जितना। पिछले कुछ दिनों के तमामतर अनुभवों ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि जितना कुछ सीखा -पढ़ा है वो सब नये युग के ज्ञान के आगे व्यर्थ है। जो दिख रहा है वो हो नहीं रहा, जो हो रहा है वो दिख नहीं रहा , होने का भरम है।  

सत्ता की जादूगरी देखी ,नेताओं की दलाली देखी ,नैतिकता की कालाबाज़ारी देखी। वर्षों से छायी राजनैतिक उदासीनता को एक नई हवा ने खत्म किया था , लगा कि फिर से नया जीवन मिला है। दूध का उबाल सा चढ़ता है मन , कौतूहल वाला बचपन अभी भी भीतर बसा है। नया आंदोलन ,नया सफर ,नए चेहरे ,आदर्शों -नैतिकताओं और संकल्पों के सिलसिले। 

ये दौर भी एक प्रेम कहानी सा है जिसका अंत भी वही होना है जो अमूमन हर प्रेम कहानी का होता है …… तू तेरे खुश- मैं मेरे खुश  ! इस पूरी यात्रा में कितने ही चेहरे -मोहरे मिले। पटकथा लिखने वाले देखे ,अभिनय करने वाले देखे। 

मैं खुश हूँ कि मुझे एक नेता जी मिले …… उन नेता जी के कारण कुछ दरबारी मिले और उन दरबारियों के कारण नगरकोट के पटेल जी का यथार्थ देखने को मिला। 
भला हुआ जो एक हवा ने इस आँचल को उड़ा दिया , सब नंगे हैं।  सब छिपा रहे हैं ,सब दिखा रहे हैं। ये "होने " का भरम सबको ले डूबेगा , वही डुबोता आया है।  पर डूब भी गए तो भी क्या ? इतने पहले भी डूबे हैं। 

ये सत्ता की पाल है।  मांझी पे भरोसा कर नाव पर सवार होते हैं ,ये दरिया की रफ़्तार और मांझी की किस्मत -कौशल है जो पार लगाये या बीच धारे में डुबो दे ! 

मैं डूबी तो भी तर जाऊँगी मैं पार हुई तो भी तर जाऊँगी वो इसलिए क्यूंकि जो देखा बहुत देखा ,अच्छा हुआ जो जल्द खत्म हुआ और किनारे लगी तो मेरी दुनिया मेरे मांझी को दुआएं देगी। 

सो , जो हो सो हो और जो ना हो तो न हो ....... मैं मेरी आवारगी के साथ जहाँ रहूँ वहां खुश ही रहूंगी ....... झील ,जंगल ,नदी -पहाड़ ,दरिया और पंछी........ हर झूठ के बाद बस वही सच मजबूत हो जाता है ! मेरी आवारगी अब इन खूबसूरत पखडंडियों पर बढ़ चली है... नकाबपोश दुनिया के बीच की ये दुनिया मेरे ख्वाबों की दुनिया है ! चली जा रही हूँ उसी की ओर .... 

आप भी चलते रहिये -- हाँ , प्रशंसक किसी के न बनिए वरना कुछ समय के लिए सही छाती जरूर कूटेंगे !

Monday 12 October 2015

…प्रमाण करम पे धरा है ले जाओ !

बहुरूपिये देखे हैं क्या ?? स्वांग धरने वाले ……मुखौटे लगा के या चौखटे को पोत के दूसरा चौखटा लगा लेने वाले ....... जरूर देखें होंगे ! दिन भर आजू बाजू सब तरफ मिल जाएंगे।

एक नेता जी हैं …… सुने थे बहुत बड़े समाजसेवी हैं ,आदर्शों के पैरोकार हैं और परहित में डंडा-लाठी सब खा सकने को तैयार हैं ………अच्छा लगा , जी भर के आदर किया …सम्मान इतना की सोच लिए कि दुनिया में इतनी महानता किसी और में होना बहुत मुश्किल होता होगा। 

सादगी और शब्दजाल का खेला जिंदगी को झंड बना देता है , ये बात जब समझ आती है जब आप स्वांग का असल अर्थ समझ जाएँ। 

नेता जी की भारी भरकम फ़ौज ,फ़ौज में ढेरमढेर सिपहैया ,  सिपहैयों के सिपहसालार........पहले हम सोचे ये नेता जी का परिवार है , स्वांग समझे तो समझ आया कि ई तो असल दरबार था....... सब नौटंकी के किरदार। 

लाईन लगी थी 

" साहिब लाइन टूटी है , बस चलवा दो , सड़क बनवा दो , डाक्टर नहीं आता......... " 

कितने आदमी हो ,कितना काम करते हो ,कब करते हो ,फलाने को दे दो - ढिकने को बुलवा लो " नेता जी मुस्कान चिपकाए समाधान परोस रहे थे ....... हमने सोचा क्या गज़ब अलादीन का जिन्न है इनकी जेब में…… चुटकी बजी नहीं कि काम हुआ नहीं। 

नेता जी का व्यक्तिव इतना सौम्य इतना धीर-गंभीर कि मनो उनके मन का चोर ख़ुदकुशी करके मरा हो। न भीतर का बाहर आ सके न बाहर का भीतर जा सके।  मुलम्मा नौटंकी की जान होती है , जब ये समझे तब जाना कि चोर तो डकैत बना बैठा है। 

सिपहिया सब आगे -पीछे नाचत रहे। रेवड़ी बंटी तो नेताजी के  दाहिने हाथ को और जलेबी बंटी तो नेताजी के बांये हाथ को…… 

हम भी खुश थे अपनापा पहली बार देखे सो सोचे कि भगवान जी गढ़ के भेजे हैं ये दरबार जनता की सेवा में। 

एक रोज मोहल्ले की एक औरत मर गयी ,नेता जी को खबर की। नेता जी के सिपहिया माइक ढूढ़ लाये , फोटू तो केमरा उतार ही ले है सो नेता जी जमीन पर बैठ गए। ……सिपहिया फोटू ट्वीटे नहीं कि सब सेना लगी स्यापा करने ....... नेता जी बोले " मरने वाली मां थी ,बहन थी ,बेटी थी ……मेरा अपना चला गया !"  नेता जी का दुःख देख कलेजा मुहं को आगया !

नेता जी लौट गए -- अगले दिन किसी ने खबर की कि कोई लड़की के साथ बुरा काम किया है।  नेता जी कन्फूज़ थे ,पहले क्लीयर करना जरूरी था कहीं नाम उनका तो नहीं था ? कहीं दरबार में से तो किसी का नहीं था ? कहीं किसी राजदार का तो नहीं था ? ..... सिपहिया दौड़े लड़की मुई ज़िंदा थी !

" नहीं !! ये सब झूठ है ,मामला आपस का है , हम केवल सामजिक मसले पर बात करते हैं।  लड़की जब तक जिन्दा है हम कुछ नहीं कर सकते। "

दरबारी खुश थे ,नेता जी खुद भी बच जाते हैं और हमको भी बचाये है …नेता जी जिंदाबाद। दिशाएं गूँज उठीं। 

हम भी ताली बजाते इसके पहले कोई एक किताब हाथ में धर गया ....... आँख नेता जी की संवेदनशीलता से गीली थी।  कुछ पढ़ते इसके पहले ही कोई हाथ में चार फोटू और एक सीडी पकड़ा गया  .......... 

हम धम से जमीन पर कभी फोटू देखते कभी नेता जी को देखते……… प्रमाण करम पे धरा है ले  जाओ !

उस दिन का दिन और आज का दिन जब भी नेता जी को देखते हैं स्वांग के सारे किरदार आँख से गुज़र जाते हैं !

आज की बात नेता जी के स्वांग पर कल दरबार के स्वांग पर………


Wednesday 7 October 2015

पति से प्रेम सिद्ध करने के लिए भाई को राखी ही तो नहीं बांधी........

सामने की बर्थ पर जो कुछ चल रहा था उससे समझ आ रहा था कि ये बुजुर्ग महिला उस व्यक्ति की माँ हैं जो कहीं अकेले सफर पर निकली हैं ! बेटे का साथ इतना ही था …… सामान सब जमा दिया , टिकिट दो बार सम्भलवा दिया ,पानी की बोतल ला के दे दी , पहुंच के फोन कर देना ....... ! ट्रेन  रवाना हो गयी , माँ को ख़्याल आया कुछ छूट गया…… फोन मिलाया कि सुनने वाली मशीन शायद बिस्तर पर ही रह गयी है ,झाड़ू में ना चली जाए -जरा संभाल लेना !

हमारे बीच मुस्कुराहटों का आदान -प्रदान जारी था। बात इसलिए नहीं की क्यूंकि ये समझ आ गया था कि मशीन के बिना इनको सुनने में तकलीफ होगी और मेरे तेज बोलने से साथ सफर करने वालों को।

अखबार पढ़ के रखा तो कुछ झिझकते हुए उन्होंने पूछा कि क्या वो देख सकती हैं ,मैंने सहजता से उनकी और कुछ हैरानी से अखबार बढ़ा दिया ,ये सोचते हुए कि ये इसमें क्या पढ़ना चाह रही होंगी।  खबरों से खुद के मोहभंग के चलते आजकल अखबार पढ़ते और न्यूज़ सुनने वाले को हैरानी से देखने की लत लगी है………सब कचरा है !

वे शायद आधे घंटे तक हर पन्ने को उल्ट-पलट कर देखती रहीं  फिर अखबार बंद कर बर्थ पर आँख बंद कर लेट गयीं ! सच है , थकना स्वभाविक है ……अब खबरें थकाने वाली ही होती हैं ,बोझिल और उबाऊ ! मैं उनके चेहरे को पढ़ती रही। …… झुर्रीदार चेहरे पर उम्र ने कहानी लिख दी थी। वे बीच -बीच में उठती और एक नज़र अपने सामान पर डाल रही थीं , नज़र मिली  तो मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि आप सो लें..........

ट्रेन  का ये मज़ा बस में नहीं आता और ट्रेन  में भी रिश्तों की गर्मी केवल स्लीपर और जनरल बोगी में ही होती है AC में सब ठंडा रहता है .......  मुझे स्लीपर ही पसंद आता है।

जयपुर आने वाला था ,मुझे लगा कि उनको शायद जयपुर ही उतरना होगा, सो जगाया ! मैं गलत थी उनको अभी और 4 घंटे का सफर करना था …… अजमेर तक का !

"आप अजमेर रहती हैं , मैंने पूछ ही लिया
नहीं ,भाई के पास जा रही हूँ …… 35 साल बाद जा रही हूँ…… !
35 साल बाद भाई के पास ? मैं हैरान थी
भाई बाहर रहते हैं ? दूसरा प्रश्न भी कर डाला।
नहीं ,अजमेर में ही रहते हैं !
फिर ?

अब मेरे पति गुज़र गए हैं और पिछले साल में मैं तीन महीने कोमा से गुज़र आयी हूँ ,तो मन कह रहा था कि एक राखी तो अपने हाथ से भाई को बाँध के आ जाऊं , सो जा रही हूँ।
बच्चों ने बहुत मना किया कि क्या करोगी इस उम्र में इतना लम्बा सफर नहीं कर पाओगी ,मैंने भी कह दिया कि मर जाने के अलावा और क्या होगा इसलिये जा रही हूँ !

रेलवे में थे पति , स्वभाव गुस्से वाला था ! पीहर से नाराज़गी थी ,सो गृहस्थी में शांति बनी रहे इसलिए चुप से 50 साल से ज्यादा ही गुजार दिए पर अब वो नहीं है और मरने में दिन भी कितने बचे हैं …… राखी तो बाँध लूँ !

मैं निःशब्द थी ! अपलक उनको देख रही थी..........कहने को था भी क्या ? शब्द सब जम गए थे।

जयपुर स्टेशन पर ट्रेन पहुंच चुकी थी ! प्रणाम कर नीचे तो उतर  गयी पर मन के किसी कोने में वो दो ऑंखें आज भी अटकी हैं जो कह रही थीं कि पति से प्रेम सिद्ध करने के लिए भाई को राखी ही तो नहीं बांधी , भाई से प्रेम तो तब भी कम न हुआ !

मन में प्रश्न आ रहा था कि ये पति के जिन्दा रहते भी सोचती होंगीं कि पति के मरने के बाद कोई राखी तो बाँध पाऊँगी या बिना बांधे ही जाना होगा !! मृत्यु का इंतज़ार !!

उफ्फ्फ..........  रिश्तों का ये कैसा सच है ! कैसे सब अपने -अपने अहंम की चादर ताने सोते हैं कि जीवनसाथी नाम भर का साथी रह जाता है। एकदूसरे की खुशियों से अनजान -एक दूसरे के दुःख से अनजान किसी तीसरे से नाराज़गी की सजा अपने उस साथी को दे देते हैं जो अपना नाम तक दहलीज के उस पार छोड़ आता है !


भरम है रिश्ते.................   रिश्तों का सब मायाजाल ! फंसे रहिये -उलझे रहिये -ढोते -निभाते -मुस्कुराते - ईमानदार लम्हों को चुराते -बसाते रहिये ! ढलती शामों में मुस्कुराने के लिए संजों के रखिये !

हम सब सफर पर हैं …… एक ही किश्ती में सवार ,वक्त सबका आएगा ,सीखते रहिये -समझते रहिये ! रिश्तों की गिरह खोल दीजिये क्या पता आपका ही कौन अपना आपकी मृत्यु की प्रतीक्षा में हो !

Tuesday 6 October 2015

एक सीढ़ी है मेरे और उस चाँद के बीच ....... मानो एक डील है !

कितना खूबसूरत ,हैरान कर देने वाला सफ़र है ये। मैं और मेरी आवारगी अक्सर ये बातें करते हैं कि ये न होता तो वो न होता और वो न होता तो ये न होता। कौतूहलों का पिटारा सा खुला पड़ा है हर तरफ ....... चाक -चौबंद चेहरे और संशय ओढ़े अनगिनत जिस्म गुज़रते रहते हैं।  नतीजे तक पहुंचने से पहले सवालों की किताब खुल जाती है कभी सवाल पूछने से पहले जवाबों का सिलसिला बन जाता है।

एक सीढ़ी है मेरे और उस चाँद के बीच ....... मानो एक डील है ! न वो मेरी सुनता है न मैं उसकी सुनती हूँ , वो रात में कहानी सुनाता है मैं दिन में बतिया लेती हूँ ,वो रोशनाई से छलता है मैं परछाई बन साथ चलती हूँ ....... हम दोनों अलग है पर मैं न ढलूँ तो वो निकले नहीं ,मैं रोशनी न दूँ तो वो छले नहीं …… वो किस्से सब समेट ख्वाब बन मेरी नींद में उतर आता है ,मैं उजालों में छिपा उसे  समंदर को चढ़ाने का हौसला देती हूँ ....... साथ भी दूर भी पास भी और नहीं भी .......... गुन -गुन - छम -छम सा सफर है ये ……… !

ख्वाहिशों की गुज़र से गुज़र रही हूँ , पीठ पर रवायतों का बोझ है। किसी नामालूम से पते की तलाश है। अपने ही भीतर का एक संसार है जो समंदर सा बाहर भी हिलोरे खाता है ....... खारा पानी ! मुझे समंदर पसंद नहीं - कितना शोर करता है !! झूठ बोलता है , जो लिखती हूँ उसे मिटा जाता है। भिगोता और लौट जाता है ....... मैं दरिया हो जाना चाहती हूँ ……जंगल और पहाड़ों के बीच बहती सी !

जब नींद नहीं आ रही हो तो सफर कुछ और लम्बा हो जाता है और आसपास फैले सन्नाटे की चादर की सिलवटें कहानियां सुनाने लगती हैं। खिड़की से बाहर साथ चलता ये चाँद सफर के अनगिनित लम्हों का हमराज है ,ये अब भी वैसे ही मुस्कुरा रहा है जैसे तब मुस्कुराता था ! छलिया चाँद।

मैं सितारों से उजाले बुन रही हूँ , सुबह होने को है ! चाँद भी उतर जाएगा पर …… सफर में चहचहाना कब मना है !

आप भी चलते रहिये - गुनगुनाते रहिये ! क्या चाँद क्या सितारे दिन के उजालों में हथेलियां सब खाली हैं !


Friday 2 October 2015

ईमानदारी और आदर्शों के भरम तो यहाँ टूटेंगे ही आदर्शों का तिलिस्म भी स्वाह होना ही है ।

दो महीने पहले, पहला ब्लॉग लिखा था जब लिखा था तब सोचा नहीं था कि ये ब्लॉग मुझे जिंदगी की कितनी और हकीकतों से रूबरु करवाएगा…हमेशा वही लिखती रही जो दिल कहता रहा ! क्या ,क्यों ,कैसे ,किसलिए , किसके लिये ,कब तक ,कहाँ तक ,बिना कुछ सोचे ,बिना कुछ समझे लिख रही थी ! जैसा था ,जैसा है सब वैसा ही लिख भर दिया …… तब ख्याल भी नहीं आया कि जैसा दिख रहा है ,जैसा लग रहा है वैसा कल नहीं दिखेगा। जब सब कुछ बदल रहा है तो उस सबका भी बदलना लाजमी है। ………चाँद भी कल रात जैसी बात नहीं करता ,अब ना दोपहर किसी शाम का इंतज़ार करती है !

बहुत कुछ घट गया बहुत कुछ भर गया........ 

ब्लॉग और ट्विटर से बचे दिन के चंद घंटे कॉलेज में नये सपनों वाली पीढ़ी के साथ गुज़रते हैं। करीब से देख रही हूँ ,करीब से गुज़री हूँ एहसासों ,हादसों और सपनों की उड़ान वाली मेट्रो की ट्रैक के साथ दौड़ी भी हूँ …… 

राजनीति में युवाओं की भागीदारी पर सैंकड़ों सेमीनार -चर्चाएं की ,वाद-विवाद देखे पर इन दो सालों और इन ख़ास दो महीनों में जो देखा उसने ये  समझा दिया कि जो देखा वो कम देखा ,कुछ नहीं देखा। 

आदर्शों और ईमानदारी की दुहाई देने वाले नेताओं की बेगैरत तस्वीरें -तहरीरें देखीं , युवाओं के जोश -जज्बे पर राजनैतिक गोटियां चलते देखीं ! ऐसे युवा मिले जो अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ एक विचारधारा में ऐसे डूबे कि जब होश आया तब तक किनारे भी साथ छोड़ चुके थे ....... इंजीनियरिंग में बैक लगवा लेना ,सिर्फ इसलिए कि कोई आदर्शवादी विचारधारा के समर्थन के लिए जमीन तैयार करनी है , लाठी -डंडे खाने हैं ,माँ -बाप के ताने और परिवार से नालायकी का तमगा पहनना है…… हद है ! 

ऐसी लड़कियां मिलीं जो रात -दिन पढ़ाई के साथ सोशल मीडिया और जिनसे बन पड़ा ग्राउंड पर राजनैतिक -सामाजिक आन्दोलनों का हिस्सा बनी रही ! गाली खाईं , दुश्चरित्रा कहलाई , समाज और परिवार के ताने सुने, भावनात्मक -शारीरिक शोषण का शिकार बनी पर डटी रहीं ! ट्विटर पर राजनैतिक मंच पर महिलाएं कम हैं और अच्छा भी है कि कम हैं ....... ये वो गंद है जहाँ कितने भी साफ़ रहने का प्रयास कीजिएगा छींटे लगना तय है। 

ईमानदारी और आदर्शों के भरम तो यहाँ टूटेंगे ही आदर्शों का तिलिस्म भी स्वाह होना ही हैं । 

जिन आदर्शों के लिए दिन -रात बकझक करते हैं ,लाठी -डंडे खाते हैं उसकी स्क्रिप्ट बंद कमरों में चार लोग लिखते हैं - जहाँ से वो इनके डीएम में ,व्हाट्सप्प पर ,फेसबुक पर से गुज़रती हुई इनकी जिंदगी में कब दाखिल हो जाती है ,इन्हें पता ही नहीं चलता ! कुछ ने इनको सीढ़ी बना लिया ,कुछ ने उनको सीढ़ी चुन लिया…… भावनाओं की आड़ में शार्टकट का खेल  कमाल बाजीगरी का है। 

वो जिनको इनसे नाम -पद -सत्ता मिल जाती है वे जल्दी ही अपने गुलामों की सेना तैयार करने में जुट जाते हैं ताकि उनकी सत्ता को चुनौती न मिले और उनके तमाम काले कारनामे इन युवाओं की मूर्खताओं की आड़ में छुपाये जाते रहे। 

अंततः ये युवा दरसल हलाली के बकरे -बकरियां सिद्ध कर दिए जाते है और योजनाबद्ध व्यवस्था से इतिहास में गुम कर दिए जाते हैं 

दूध का उफान है ,चढ़ता है तो उतर भी जाता है पर उतरने की कीमत में किसी का मकान बिक गया , किसी का जेवर बिक गया तो किसी का जमीर बिक गया। 

सबने खोया …… चाँद किसके हिस्से आया ? इस सवाल का जवाब तो वही दे सकते हैं जो रात फिर उसी फुटपाथ से गुज़रते हुये उस दीवार को देखते हैं जिस पर कभी पोस्टर चिपकाते हाथ अघाते ना थे। 

सबके साथ का ये सफर कभी अंधेरों से कभी उजालों से कभी सपाट मैदानों से होकर गुजर रहा है....... 

बहुत कुछ सुन रही हूँ , बताने को बहुत कुछ है आप पढ़ते रहिएगा , ये जिंदगी है बस उदास न होना …… 

Wednesday 23 September 2015

मैं ट्विटर उपवास पर हूँ ....... अच्छा है ! डिजिटल हाज़मा ठीक रहना जरूरी है।

बहुत दिनों से ट्विटर से ब्रेक लेने का मन था , ले नहीं पा रही थी ! ट्विटर भी एक बीमारी है , ट्विटर ही क्या पूरा सोशल मीडिया ही एक बीमारी है ……… जिसके फायदे कम नुकसान ज्यादा हैं।

इस बिमारी ने मुझे घेर लिया है और अतिप्रतिक्रियावादी बना दिया है। खबर कोई आँख से बची न रहे , व्यवस्था सब दुरुस्त रहे , मैं गरिया दूँ .......... क्या है ये सब ??

कल का दिन बड़ा सुकून से गुज़रा !! दुनिया में क्या हुआ नहीं पता, केजरीवाल ने क्या किया नहीं पता .......... मोदी क्या कहे ,अलाना -फ़लाना -ढिमकाने ने क्या बकलोली की नहीं पता……… जान भी लेती तो क्या कर लेती !
जिसको जो बोलना है वो वही बोलेगा ,जिसे जो करना है वो वही करेगा , करता रहे !! जब ट्विटर नहीं था तब भी दुनिया चल रही थी , नेता ऐसे ही लूट रहे थे जनता ऐसे ही पिस  रही थी ! जब  ये तय है कि शासक शोषण ही करेगा तब मैं क्यों न ट्विटर को अपने शासक पद से मुक्त कर दूँ। ..........

कर दिया !! अभी एक ही दिन गुज़रा है…… बिना उसकी और नज़र उठाये ! ये डिजिटल युग का व्रत है।  मैं ट्विटर उपवास पर हूँ .......  अच्छा है ! डिजिटल हाज़मा ठीक रहना जरूरी है।

ज्ञान -अज्ञान का अतिरेक बदहवास बना रहा था। एक के बाद एक आ रहे नोटिफिकेशनों और उनमें भरे कुतर्को और अनर्गल प्रलापों ने डिजिटल वमन के हालात पैदा कर दिए थे ! छूत की बिमारी है ………जवाब दर जवाब ,सवाल दर सवाल ! भयानक चक्रव्यूह जिसमें घुसना पता है निकलना किसी ने नहीं सिखाया .......

पर्सनल स्पेस के नाम पर अतिक्रमणकारियों की फ़ौज़ है यहां ! हर कोई सिर पे सवार हुआ जाना चाहता है ,हर कोई ज्ञान की मिसाइल दागने को तैयार है .......... जेब में सिक्का नहीं पर कलाई पर लाखों की घड़ियां चमका रहा है।  हज़ार चेहरे हैं ,चेहरे दर चेहरे हैं …… नकाबधारी सच हैं ! सार्वजानिक सब पर सब परदे में हैं जो पर्दे में वो वहां नंगे हैं !

डिजिटल हेल्थ बिगड़ रही है  ..........  कुछ एक दिन और कोशिश करेंगे इस उपवास को जारी रखने की !! बहुते गरियाने का मन किया तो चले आएंगे।

 चलते हैं जी !! मस्त रहिये।




Tuesday 22 September 2015

सबके अपने अपने सच है ……खिलौने से सच ! खेलिए और फेंकिए ………यूज़ एन थ्रो सच !

कितना भी सफर कर लें ,कुछ रास्ते -कुछ नज़ारे फिर भी अनजाने ही रहते हैं। न सफर नया, न रास्ते नए ,न नज़ारे जमाने से जुदा ……… फिर भी कितना कुछ देखने से रह जाता है। कभी लगता है कि देखना आँख से कहाँ होता है ,मन से हुआ करता है....... मन नहीं है तो नहीं दीखता। जब मन उचाट हो जाता है तो पन्ना भी झट बदल जाता है ....... फिर वह सब वही नहीं रहता ,बदल जाता है।

ये नज़र आँख से कहाँ वाबस्ता है ....... चश्मा बदल लेने से भी सब कुछ कहाँ साफ़ दीखता है ! जानने -पहचानने के लिए किसी गुज़र से गुज़रना भी कहाँ जरूरी है……… एक लम्बा अरसा साथ गुज़र लेने के बाद भी अचानक किसी रोज़ किसी नए सच का साक्षात्कार होना ये साबित करता है कि कोई पहचान साथ से भी वाबस्ता नहीं होती।

कितने घंटों तुमको सुना है ,कितने ही घंटों तुमको पढ़ा है .......... कितना तुमको लिखा है लेकिन कुछ नहीं जाना ! नहीं दावा कर सकती कि मैंने लेशमात्र भी तुमको या खुद को जान लिया ……बेमानी फ़लसफ़े हैं !
कौनसा लम्हा सच होता होगा ,वो जिनमें अकेले होते हैं या जिसमें साथ होते हैं.………क्या तब सच बोला होगा ? क्या तब जो सुना वो सच था ? जब वो सब भी सच नहीं तो जो आज कह रहे हैं वो भी कहाँ सच है.………

सब मानने का खेल है। जब जो चाहे मानिये -जब जो चाहे ना मानिए। मानने ना मानने से सच भी बदल जाता है ……… और बदले भी क्यों न , हम भी वही सच जीते हैं जिसमें हमें सुकून मिलता है।

सबके अपने अपने सच है  ……खिलौने से सच ! खेलिए और फेंकिए ………यूज़ एन थ्रो सच !

आवारगी का ये सफर किसी एक्सप्रेस हाईवे से होकर नहीं गुज़रता। किनारे सैंकड़ों ढाबे - चाय की गुमटियां हैं जहाँ तजुर्बेकारों की जमात मिल जाती है तो कभी किसी चौपाल की खटिया पर से जहाँ मीठी चाय के साथ कुछ सबक जरूर परोसा जाता है।
सब बटोर लिया है झोली में ! एक पल को लगता है कि सब देख लिया सब जान लिया दूसरे ही क्षण कोई बच्चा बंद मुट्ठियाँ लिए सामने आ जाता है कि बताओ तो मेरे हाथ में क्या है ??

मैं हतप्रभ ,हैरान हूँ  नियति का अभी मुझे और क्या दिखाना शेष है.…… आईना देखना अब अच्छा लगने लगा है ! अपने ऊपर लानते -मुलव्वतें बरसाने का भी कोई अवसर मिल जाना चहिये ………इतने पते पूछे कि अपना पता भूल गए और जिनसे मिले वो बे - ठिकाना निकले  !

उम्र  गुज़र जाती हैं पर दीवारों और छत पर लगे सवालों के मकड़जाल नहीं उतरते। सब जस के तस है....... जहाँ से चले थे वहीं आ पहुंचे !

लेकिन फिर भी सफर मेरी सांसों में है ……वो झील वो झील का किनारा वो पहाड़ वो दरिया……… बस एक वही सच है ! मुझे वहीं लौट जाना है। जंगल में गुम हो जाने के लिए या झील पर पहाड़ों से उतरती रोशनी बन तैर जाने के लिए !

मुझे बस अन्ना याद आती है ....... वोलेंस्की से कोई शिकायत नहीं ! यही मेरा सच है जो टॉलस्टाय 100 साल पहले लिख गए थे  …… नाम बदल गए और कुछ नहीं बदला  !

Monday 21 September 2015

सोशल मीडिया का इतिहासकार बन जाना डिजिटल यथार्थ है।

कितना भी चाहें अतीत पीछा नहीं छोड़ता ,वो लौट आता है नए किसी चेहरे के साथ……… बंद किताब के पन्ने फिर फ़ड़फ़ड़ा जाते हैं और वही तारीखें वही सिलसिले एक बार फिर जिंदगी से गुज़र जाते हैं।

हम सबकी जिंदगी का अपना इतिहास है जिसमें कितने ही ऐसे किरदार हैं  जिनके नाम याद नहीं , ठिकाने भी याद नहीं लेकिन वे जाते भी कहीं नहीं। तारीखें भी इतिहास हैं।

सोशल मीडिया भी एक दस्तावेज है ,नए युग का इतिहास इसी में संजोया और लिखा जा रहा है।  हम सब ढूंढने में लगे हैं और जो मिल गए उन्हें लिस्ट में जड़ के फिर नया खोज रहे हैं।

फेस बुक ने पुराने दोस्तों को फिर मिला दिया ,इतिहास बनते बनते रह गए या नए इतिहास में बदल गए कमोबेश बात एक ही है पर जो भी है सोशल मीडिया का इतिहासकार बन जाना डिजिटल यथार्थ है।

हॉस्टल में वो जूनियर थी मेरी ....... प्रेरणा दी ,प्रेरणा दी करती अक्सर आगे पीछे घूमती रहती थी ! यूथ फेस्टिवल में साथ इंदौर गए थे ! कुछ और भी तस्वीरें थीं जिनमें हम साथ थे  ……… दी देखिए ना ,हम यहाँ गए थे ,हम जब वहां गए थे तो आपने ये कहा था ,वो कहा था  ……… उफ्फ्फ ! कितना बोलती थी !

दी ,रोज़ शाम आप जब सामने वाली सड़क से गुज़रती थीं तो हम आपकी खिलखिलाहट से आपको पहचान लेते और दरवाजे तक आपको देखने आ जाते थे !………हॉस्टल अलग था हमारा ,पर उसको जब भी मौका लगता वो चली आती थी ,अपनी किसी दोस्त के साथ , कभी यूँही और फिर घंटो कहानियां सुनाती रहती  !
हॉस्टल से निकले तो एक शहर में रहते हुए भी नहीं मिले……सुना उसकी शादी हो गयी ! मैं जर्मन पढ़ने में व्यस्त रही ……… यूनिवर्सिटी के मायाजाल ने ऐसा उलझा दिया कि पीछे का सब इतिहास बनता चला गया ! मेरे भी शहर बदलते रहे ……

20 साल बाद एक रोज फोन पर वही परिचित आवाज़ एक बार फिर सुनायी दी ! दी , कैसी हैं आप ? आवाज़ नहीं भूली थी पर इतनी उदास आवाज़ उसकी नहीं हो सकती थी सो नाम पूछ बैठी ! ये प्रियंका थी……… ! वही जिसका जिक्र कर रही हूँ ! फेसबुक से ही किसी दोस्त से उसने मेरा फोन नंबर लिया था !

फोन पर खुद को संभाले रखा इसके बाद नहीं संभाला गया ! रो ली ……कैंसर का आखिरी दौर था ये उसका ! उसकी उदास आवाज़ का सबब !

फेसबुक पर उसकी रिक्वेस्ट आयी हुई थी ! हम फिर जुड़े …… एक रोज फेसबुक पर उसका स्टेटस देखा तो उसे बहुत डांटा ! मत लिखा करो ये सब ,हम हैं न ………" दी ,मिलने आ जाओ एक बार " वो यही कहती रही.......

मैं उस मुलाकत से बचना चाह रही थी ! कदम भारी थे उस रोज़ ……" दी , वो  रेलवे में थे , दो बच्चे हैं ....... ! उसने बताया था कि कैंसर ने उसके बच्चों से उनके पिता को छीन लिया और उनकी जगह मिलने वाली नौकरी को वो अपने कैंसर के कारण तब तक ज्वाइन नहीं कर पायी थी !

छोटे बेटे को हिन्दुस्तान के हर रेलवे स्टेशन का नाम और पूरी गुज़र मुहं ज़ुबानी याद है ! 12-13 साल का उसका ये बेटा उससे एक पल को अलग नहीं बैठा ! " मानसिक कमज़ोर बच्चों के स्कूल में दाखिला करवाया है दी "  ये कैसे रहेगा दी ! ………हम चुप थे पर बोल रहे थे !

मैं जब उसके दरवाजे से लौटी तो अहसास हो चला था कि ये शायद आखिरी मुलाक़ात हो !

वो सुबह भी किसी रोज़ आनी ही थी ! आ गयी ,प्रियंका चली गयी ! मैंने उसके फेसबुक पेज पर मेरी उसकी बातचीत का वो आखिरी वीडियो डाला जो उसकी हंसी का अंतिम प्रमाण बन इतिहास में दर्ज हो गया ! उसका फेसबुक प्रोफाइल जिन्दा है वो इतिहास बन गयी है !

डिजिटल इतिहास बन जाना इस डिजिटल युग की नियति है ! एक ही सबक सीखा इस सबसे कि डिजिटल रिश्तों के इस दौर में उन लम्हों को संजो के रखिये जो असल जिंदगी में सुकून और ईमानदार अहसास लिए आते हैं बाकि सब आना -जाना है ,लगा रहेगा ! मेरे पास कुछ ऐसे कीमती पल हैं जो मुझे जिलाये रखते हैं और किसी डिजिटल दीवार के भरभरा के गिर जाने से मुझे सुरक्षित बाहर निकाल लाते हैं !

आवारगी का ये सफर कितने फ़साने समेटे है उन सबको इस डिजिटल इतिहास के आर्काइव  में जमा कर दूँ तो मैं भी चलूँ………

वो झील ,वो पखडंडी मुझे पुकार रही है ! दूर जाना है...........  

Saturday 19 September 2015

मेरी आवरगी को ट्वीटर की नज़र लग गयी !

ये ट्वीटर भी अजब शह है , इसमें न उलझती तो भला रहता ! जिंदगी सुकून में थी ! टीवी और अखबार से मिली चंद खबरें और खबरों से बने मुगालते इस हकीकत से क्या बुरे थे ....... वो कम से कम उलझाते तो ना थे ! कुछ एक सीरियल और उनकी काल्पनिक दुनिया कुछ घंटों के लिए ही सही बेमुरव्वत जमाने से दूर ही टहलाने के लिए लिए जाते थे ! क्या बुरे थे ? किसी खबर का सच जान के भी क्या कर लिया मैंने ?

यहाँ आये शायद साल भर हुआ है लेकिन लगने लगा है कि कहीं जन्म से ही तो यहाँ नहीं हूँ.......... रवीश से ट्वीटर था और शायद अब भी है ! रवीश इतनी बार ट्वीटर का नाम न लेते तो मैं शायद यहाँ नहीं होती....... जब आयी थी तो लगता था कि 140 शब्दों की सीमा में कुछ भी कह पाना मुश्किल है ,अब लगता है कि 1000 शब्द भी लिख दो तो भी कुछ नहीं होने वाला ! सब कुछ जस का तस है……… धरती घूमे जा रही है हमें वहीं बने रहने का भरम बना रहता है।  जो बदल रहा है वो कहाँ बदल रहा है किसी को नहीं पता पर सब के तमंचे में 140 गोलियां हमेशा भरे रहती हैं।

जिंदगी की टाइम लाइन और ट्वीटर की टाइम लाइन में कोई अंतर नहीं है , यहाँ भी जानेअनजाने वही चेहरे -नकाबपोश इर्दगिर्द जमा हो जाते हैं जो या तो आपके घोर समर्थक हैं या घोर आलोचक ! जो न्यूट्रल हैं वे आते जाते रहते हैं ! संवाद समर्थकों -प्रशंसकों से होता है विवाद आलोचकों से !  तुम मेरा आरटी करो मैं तुम्हारा आरटी कर देता हूँ वाली डील उन रिश्तों सरीखी है जो हाँ में हाँ कहने के लिए सहेजी और बनायी जाती है।

यहाँ आने के बाद मेरे शब्द भंडार में उन शब्दों ने भी जगह बना ली जिसे मेरे भाषायी संस्कार शायद ही कभी अपना पाते ....... अब सब सामान्य लगने लगा है ! इम्युनिटी पैदा हो गयी है ,निम्नतम उपमाएं भी सहन करने लगी हूँ .......... देर शाम घर लौटते थे तो पहले माँ -पापा  फिर पति चिंता करते कि सुरक्षित लौट आये ! अब क्या ? …… अब वे क्या जाने कि यहाँ बिना कहीं जाए मैं दिन भर मान भंग की शिकार होती हूँ !

हवस के भूखे -नंगों का ठिकाना भी यहीं देखा ! ठरक के ठेकेदारों को नैतिकता का ज्ञान बांटते देखा ! इश्क़ के पैरोकारों को जिस्म को उघाड़ते देता …वो जो 140 शब्दों में आँखों में मयख़ाना उतार देते हैं उनको दूसरे कमरों में उन्हीं आँखों से उसी मयखाने को जिस्मफरोशी का अड्डा घोषित करते देखा !

अजब खेल है गज़ब लोग हैं ! सत्ता के खिलाड़ी भी मिले ,गोटी चलने और गोटी बदलने में हुनरबाज़ भी यहीं मिले ! खबरों को तलने वाले , ख़बरों को मसाला लगाने वाले भी देखे ! सच के पुलिंदे और झूठ से लबरेज ,पल -पल पलटते वादे -दावे भी देखे !

इस एक साल में जिंदगी बदल गयी ! ट्वीटर की गली में बने मकान की ईंटों से भी घर सा प्यार हो गया है , इर्दगिर्द नए रिश्तों का बगीचा भी लगा है पर मन अक्सर उचाट हो जाता है……… लगता है मनो ये निःशब्द चीखने की जगह है !

इन सबके बीच तुम भी यहीं हो ....... ट्वीटर शहर की एक गली में तुम्हारा भी आशियाना है ! घूमते -फिरते पीले सितारों की सौगात दे जाते हो ! कभी कोई खत डीएम पर चला आता है ! कुछ दिनों से तुम उदास हो या शहर से दूर हो -- हर पल की खबर मुझ तक पहुँचती रहती है  ……पर जब ट्वीटर पर नहीं थे तब भी तो हम वहीं थे ! खबर की तब जरूरत भी न थी। ....... पता था कि तुम कहीं भी हो आसपास ही हो !

ऑरकुट से चले ट्वीटर पर आ पहुंचे ! सब बदल गया ……… कैलेंडर के पन्नो सा हैडर -बायो बदलता रहा।

मैं भी बदल रही हूँ -- ट्वीटर ने मुझे बदल दिया ! मैं कहने लगी हूँ ,सहने लगी हूँ ,छुपाने लगी हूँ...........मैं अब सिमटने लगी हूँ !

उचाट हुआ जाती हूँ……जाती हूँ फिर यहीं लौट आती हूँ ! बंद हो ये सिलसिला ,लौट आये वो सुकून...... मेरी बेपरवाही कहीं खो गयी है इस सफर में ! मेरी आवरगी को ट्वीटर की नज़र लग गयी !

ये ट्वीटर है मेरी जान यहाँ सब चलता रहेगा अब कुछ थमने वाला नहीं है सो आप भी कहते रहिये -सहते रहिये - ढोते -बहते रहिये ! खुद से बतियाना है ये !

चलते हैं आप भी बढ़ते रहिये !




Thursday 17 September 2015

आप भी चलते रहिये…… सफर में रहेंगे तो सफरिंग कुछ कम होगी ! हैप्पी आवारगी !

बानगी है सफर की या रवानी उम्र की………  पड़ाव दर पड़ाव हैं ! चलती फिरती रिश्तों की धर्मशालायें हैं ,कुछ सस्ते होटल कुछ जेब काट होटल भी हैं ! कुछ खुले आसमान से हैं कुछ खिड़कियों के पीछे से झांकते ,दरवाजे की जद से झांकते रिश्ते हैं…………

तुम साथ क्यों न आईं …… वो अक्सर पूछता है ? बरसों से पूछ रहा है …… मैं चुप रह जाती हूँ ! जवाब ना तब था ना अब है। पर सच ये है कि न उसका लौट जाना हुआ न मेरा लौट आना हुआ........ हुआ तो बस सफर हुआ !

जिंदगी की कहानी सफ़र के इर्दगिर्द टिकी है। अमृता प्रीतम के " रसीदी टिकिट " को कई बार पढ़ा ,हर बार इसी नतीजे पर आ टिकी कि सब आवरगी है ....... ख्यालों की आवारगी ,रूह की आवारगी ! टॉलस्टॉय की अन्ना का अंत उन पहियों के नीचे हुआ जो ताउम्र उसका पीछा करते रहे ..........

वोलेंस्की हर युग में रहे ,अन्ना भी आसपास है ……सफर भी, पटरी भी !!

कितने टुकड़ों में बंटे अहसास है ,न सब तेरे हैं न सब मेरे हैं - सब आधे सब अधूरे !! पूरा होने की प्यास में सफर दर सफर - पड़ाव -दर पड़ाव !! हर बस्ती मयखाना थी पर हर बस्ती प्यासी थी ……कोई नहीं मिला जो कहे कि " बस ! अब और कुछ नहीं " !!

मैंने कस्तूरी चुनी है , भाग रही हूँ उस सोने के हिरण के पीछे जो मुझे जंगल जंगल लिए जाता है ! अब इस तलाश में मज़ा आने लगा है , गुम जाने का मन है ! ऐसा गुमना हो कि कोई शोर मुझ तक न पहुंचे ....... चलना ऐसा हो कि रुकने की हर गुंजाइश खत्म हो जाए !

सात समंदर की दूरी है पर रूह के इतने करीब कि सफ़र का ना आगाज़ अब याद रहा न अंजाम का पता है………मेरे आसपास की दुनिया में सब हैं पर कोई सफ़र की दूरी का साथी नहीं हो सकता !

सफर हमेशा अकेले ही करना चाहिए जब अकेले होते हैं तो झमेले से दूर होते हैं !! सबके अपने सफर -सबकी अपनी मंज़िल !!

कोई सफर चाँद के साथ लौट रही हूँ ……चाँद रात उजास लिए  मेरी पलकों पे टिकी है ! खिड़की से सिर टिका है.... हवा की नमी और मटियाली गंध चुंबक सी वक़्त को सालों पीछे के किसी सफर में ले जाती हैं !

सफ़र अकेले करती हूँ पर अकेली कब होती हूँ ....... मुझे ऐसे ही पसंद है ! उस एक विदा के बाद अब कोई विदा सहने करने का माद्दा शेष नहीं है !  अब किसी साथ की चाह भी शेष नहीं हाँ बस सफर शेष है  जो अंतिम विदा तक करना ही नियति है , करना जरूरी है !

मेरी आवारगी मेरी जान मेरा सलाम है !

आप भी चलते रहिये…… सफर में रहेंगे तो सफरिंग कुछ कम होगी ! हैप्पी आवारगी !

Tuesday 15 September 2015

जितना दूर हो रही हूँ शोहरत की बाजीगरी उतना उलझा रही है .......

जिंदगी हैरान करती रहती है , कितना कुछ अचानक कितना कुछ वैसा घट जाता है जो कभी सोचा भी न होता है ……

ABP न्यूज़ का बेस्ट ब्लॉगर अवार्ड मिलना भी ऐसा ही कुछ अप्रत्याशित सा है  ………… हैरान इतनी कि खुद अपने ब्लॉग को दुबारा पढ़ने का जतन किया कि ऐसा क्या लिख दिया जो ईनाम का हकदार था !

नहीं समझ आया ....... बस वो लिख देती हूँ जो मेरा दिल कहता है ……… जिंदगी के इस मोड़ पर सही -गलत का निर्णय करना बेमानी है ! अब जो चाहे तय करे पर मेरे लिए अब इसका कोई अर्थ नहीं रह गया है। 

बोलने से पहले सोचना ही हो तो चुप्पी बेहतर है।  ज्यादा सोच -विचार से ईमानदारी चली जाती है …… स्वार्थ के मुलम्मे चढ़े शब्द बोल अब किसे रिझाऊं …………हमाम में सब नंगे हैं। 

लोग सलाह देते हैं दोस्तों को परख लिया करो ……मैं कहती हूँ बिना दोस्ती किये परखूँ कैसे और जिसे दोस्त मान लिया उसे परखना कैसा ? जो हो सो नसीब मेरा………… छल मिला तो भी अपना - निश्छल मिला तो भी अपना सा लगा।

 मैं दरिया हूँ ,ये कब सोचूँ कि बहूँ कि ना बहूं ……………इतना सोचूंगी तो मेरी रवानी नाले में बदल जाएगी। .......... मैं तो फिर सफर में हूँ ,दूर सागर में जा मिलना है।  लम्बा सफर है कहाँ तक ,किस घाट -किस बाँध की जद में आऊं …………। 

"मैं आगे निकल आयी हूँ………… और तुमसे भी दूर निकल आयी हूँ  .......... हाँ , तुमसे भी " 

पहाड़ -जंगल -झील.………सबसे पार जाना चाहती हूँ …… उड़ जाना चाहती हूँ ,हर सिलसिले से दूर ,हर किस्से -हर कहानी से दूर ……सांस के झमेलों से दूर.......... 

जितना दूर हो रही हूँ शोहरत की बाजीगरी उतना उलझा रही है....... ये जिंदगी का आख़िरी दांव है शायद ,मुझे बहकाने का , मुझे फंसाने का ............. मैं इसे भी जी रही हूँ पर मैं इसमें कहीं नहीं हूँ ! ये खेल नियति रच रही है मेरे लिए ……………कब तक फंसा सकती है , ये खेल भी देख रही हूँ !

मुझे बस झील का एक वो एक कोना चाहिए  जिसके किनारे खड़े दरख्त का सहारा लिए मैं पहाड़ों से उतरती परछाइयाँ जी सकूँ………नियति मुझे सागर के किनारे ला खड़ा करती है , वो सागर जो न प्यास बुझाता है न मेरे परवाज़ की जद में है ! मैं इस सागर का क्या करूँ……… ?

जब सफर पर निकल थी तब भी सोच के नहीं निकली थी कि कहाँ पहुँचूंगी , बस इतना पता था कि सफर को जीना है………… 

भरपूर प्यार दिया इस आवारगी ने ,इतना कि मेरा आँचल भी इसे समेटने को कम है। जो मिला सब स्वीकार है …… बस उलझना स्वीकार नहीं है। 

मुझसे मत उलझिए ,बहते रहिये , जीते रहिये ,चलते रहिये………मिलें न मिलें किनारों सी मेरी जद बने रहिये !

खुश रहिये  !


Sunday 6 September 2015

पर्सनल मैटर पर गपशप आंटियों का काम है ……अंकल झाँका-झांकी से काम चला रहे हैं

कुछ दिन पहले मेरी टाइम लाइन पर मुझे टैग करके किसी ने किसी के किसी के साथ संबंधों में होने की बात कही , संबंधित हैंडल देखे तो लगा कि संबंधित की स्वीकृति है तो बधाई दे डाली ............. एक बधाई को स्वीकार करने वाले ने इस बधाई पर हाहाकार मचा दिया............. लड्डडू की उम्मीद में लानतें नसीब हुई ……

उस दिन ज्ञान मिला कि किसी का किसी के साथ रिश्ता उसका निजी मामला है , पर्सनल मैटर पर गपशप आंटियों का काम है ……दीगर बात ये कि अंकल झाँका-झांकी से काम चला रहे हैं। 

उस दिन से मेरी ऑंखें अंकलों की इन्द्राणी के पतियों में दिलचस्पी और दिग्विजय सिंह के अमृता से विवाह पर आने वाले ठरकी सवालों पर जा टिकी हैं।  

वे जो दूसरों की नैतिकता पर प्रश्न उठा रहे हैं अपने गिरेबान में क्यों नहीं झांक रहे ……… इसलिए कि उनके गिरेबान में सनी लियोनी के कंडोम एड की क्लिप है या पोर्न की ओवरडोज़ ने उनके गिरेबान को चाक कर रखा है। 

जब आपकी बारी आती है तो सब निजी हो जाता है जब दूसरों की बारी आती है तो सब सार्वजानिक हो  जाता है और आपके पास उनके चरित्र हनन का अधिकार चला आता है !

सवाल ये होना चाहिए कि क्या वयस्क ये अधिकार भी नहीं रखते कि वे अपना साथी चुन सकें ?? उम्र जब उन दोनों के लिए बंधन नहीं है तो किसी को भी क्या परेशानी है………… वे विवाह कर हे हैं , रेप नहीं कर रहे हैं ! 

इन्द्राणी के कितने पति हैं कि जगह उसके नैतिक और कानूनी अपराधों का जिक्र होता तो ठीक होता पर आपको ये अधिकार किसने दिया कि किसी के बैडरूम की कहानियां आप चटखारे ले कर सुनाते फिरें और निजता की ताल भी ठोकते रहें।  

बेमानी है आपकी नैतिकता और निजता कि दुहाई --- बिलकुल मेरे कहानी "ट्विटर रासलीला के महानायक " के महानायक के चारित्रिक गुणों जैसी ! जो संबंध बनाता है फिर संबंधों को नकारता है............ नैतिकता और बौद्धिक  व्यवहारिकता के धरातल पर उसे सही सिद्ध करने के लिए हर तरह का जुगाड़ करता है। 

क्लीवेज का मसला हो या राधे माँ के नए अवतार हों सब पर आने वाली टिप्पणियां यौन कुंठाओं का बयां करती हैं। जब आप गालियों  में माँ -बहन और यौन शब्दावली का सार्वजानिक इस्तेमाल करते हैं तो फिर निजी कहने के लिए बचता क्या है……

बंद कीजिए उपदेश देना ! यदि आप नहीं चाहते हैं कि आपके बैडरूम और आपके संबंधों को लेकर सवाल किये जाएँ तो आप भी अपना मुहं बंद रखिये। 

पर उपदेश कुशल बहुतेरे………… बाबा तुलसी जानते थे कि ये बात हर युग में सही सिद्ध होगी ! सो हो गयी !

चलते हैं आप भी चलते रहिये....... ठहरा पानी बदबू मारने लगता है सो बहते रहिये !

Saturday 5 September 2015

ये ख़्वाब उस झील किनारे किसी प्रेत सा लटका है ………पर रूह से अब आज़ाद हुआ जाता है !!

कुछ लम्हे  जिंदगी में  चाँद से उतर के आते हैं और हादसों की शक्ल में उम्र भर न भरने वाला घाव देकर जाते हैं।……ये वो पल होते हैं जिनमें जिंदगी भर के तमाम तजुर्बे  और फ़लसफ़े बेमानी हो जाते हैं !! सब सीखा -पढ़ा बेकार सब सुना अनसुना हो जाता है …………

यकीं दिला कर ताउम्र बे - यकीं कर देना किसी के लिए आसां हो सकता है ,किसी के लिए किसी के आंसू उपहास का सामान हो सकते हैं , किसी के लिए किसी का समर्पण बाज़ार में हर दुकान पर बिकने वाला कोई सस्ता सामान भी हो सकता है !!

जिंदगी भी हिसाब बराबर करती है --- मेरे गुनाह की सजा मुझे स्वीकार है और इसी जन्म में स्वीकार है !! गुनाहों का कर्ज लेकर अगले जन्म में फिर एक बार उसको चुकाने के लिए सामना हो ,नहीं चाहती ! गुनाह ये कि किसी चाँद की रोशनाई पर भरोसा कर चाँद के लिए सीढ़ी चुन ली !!

चाँद से उतर आयी हूँ ....... अब जमीन पर हूँ तो दिखा  कि वो स्याह काली रात के बाद के धुंध में लिपटी सुबह भी काली ही थी जब एक और अँधेरे का सफ़र तय करना था…………

पहाड़ के चक्कर खाती कार और उसमें बज रहे गानों की रुमानियत अब रुदाली के गीतों सी महसूस हो रही है !! सीन बदलता है और फिर एक सफ़र ....... फिर कोई शाम ,कोई रात कोई अंधेरी सी सुबह .......

चीत्कार मे बदल जाती हैं खूबसूरत स्मृतियाँ………… घाव इतने रिसते हैं कि धोने के लिए जिंदगी भर आंसू भी कम पड़ेंगे !!

कुछ सफर अंधेरों के होते हैं ,अंधेरों के साथ होते हैं ,अंधेरों पर खत्म होते हैं !  ऐसे सफ़र के फ़साने अक्सर तो सोने नहीं देते सो जाओ तो डरा के उठाए रहते हैं……… कितनी रातें दीवारों पर परछाईयाँ गिनते बीतती है और कितनी सुबह कितनी रातों को खो कर चली आती !!

दर्द का सिलसिला सैलाब बन बहता रहता है ………तकिये पर पड़ी आंसुओं की धार के निशां उस ख्वाब की गवाही देते हैं जिसमें मेरा जमीर ही मेरा क़ातिल हुआ जाता है …………

ये दर्द का ज़लज़ला है जो मेरे जिस्म से मेरी रूह को लिए जाता है .............

ये ख़्वाब उस झील किनारे किसी प्रेत सा लटका है ………पर रूह से अब आज़ाद हुआ जाता है !!

चलो अब अलविदा कहते हैं , ये सफर यहीं खत्म करते हैं !

Thursday 3 September 2015

ये दरिया ए आवारगी है …खामोशी से इसकी धुन सुनिए और बहते रहिये !

कल रात शारदा नदी का वो किनारा याद आ रहा था !! शाम का मंज़र और पहाड़ों के सिरहाने से गुजरती शारदा ………नदी की आवाज़ में एक जादू होता हो , उसकी आगे बढ़ने की गति और किनारों से उलझने की लय में जीने का मंत्र गूंजता है !!

नदी किनारे के रास्ते पर आगे बढ़ते रहिये तो लगेगा कि मनो आप के संग खेल रही है , जीतने को कभी हार जाने को मचल रही है……… किनारों पर कभी ठहरी सी , कभी उनको धकेलती- मचलती सी खुद ही में आनंद लुटाती बढ़ती जाती है ……

मैं जिस पर बैठी थी वो बालू रेत का किनारा था ……हाथ में सीपियाँ आ गयीं कुछ पत्थर भी !! अकेले बैठे हों तो धार को भी शांत नहीं देख सकते ……नन्हे पत्थर हथेलियों से होकर नदी में समाते रहे ! ख्याल दर ख्याल किसी चित्रकथा से नदी में उतरते रहे………नमी कभी मुस्कान तैरती रही !!

सूरज डूब रहा था ,पेड़ की छायाएं लम्बी हो नदी में उतरने को आतुर थीं , पहाड़ों की परछाईयों के सहारे आसमान  का अक्स नदी को सतरंगी बना रहा था ! कहीं दूर से तैरते आ रहे दीपों की जोड़ी लहरों के थपेड़ों खाकर भी न बुझने की जिद पाले तैर रही थी ……

मैं घंटों बैठी रही ……वो शाम ख़ास थी ! वो जिद थी वो जद नहीं थी इसका एहसास हो चला था मुझे ……मेरी जिद मेरी जद और मेरी जंग में ये नदी मध्यस्थ थी !!

निर्णय बड़ी देर में आया .......... नदी ने कहा बहती जा , जा दरिया बनके जी ! 

मैं लौट आयी उस निर्णय के साथ और अब कंक्रीट के जंगल में भी दरिया सी बहती हूँ , दरिया को जीती हूँ ....... पहाड़ सी ख्व्वाहिशों के दीप नदी में हर शाम टिमटिमाते ,उलझते तिरोहित हो जाते हैं ……मैं बहती रहती हूँ ....... दरिया के कोर की नमी जाती नहीं पर मैं मुस्कुराती आवारगी से बाज आती भी नहीं ……… 

थम जाने की नियति मुझे मंज़ूर नहीं है , मैं जब तक तुम में न समा जाऊं बहती ही रहूंगी ..........सागर कोई इतना भी दूर नहीं………बहने दो मुझे ! माना कि बहना खेल नहीं है पर खेल ना खेलूं ये कहाँ मना है ……मैं डूबूँ या पार हो जाऊं कोई फर्क नहीं पड़ता ………उम्र के इस मंज़र पर शर्त कोई मंज़ूर नहीं है !

ये दरिया ए आवारगी है …खामोशी से इसकी धुन सुनिए और बहते रहिये !

Wednesday 2 September 2015

सवालों का जंगल मन में बसा है। समंदर से खारे जवाब ..........दरिया सी प्यास है .........

कुछ दिन चिल्ल्पों में गुज़ार दो तो  दिमाग का फ्यूज उड़ जाता है ……… भाग जाने का मन करने लगता है !! सब कुछ कितना बेमानी सा है ! एक दौर होता है जब आसपास सब सुख साधन चाहिए होते हैं .......नया टीवी ,नई कार ,नया मोबाइल सब रोमांचित करते हैं लेकिन एक सीमा के बाद इनकी औकात भी किराने सी हो जाती है ………

सब बोझल हो जाता है ,मन फिर इस सबसे परे किसी आकाश में उड़ने लगता है ……

वो पहाड़ की चोटी याद आती  है जिसके एक और फॉयसागर और दूसरी और पुष्कर दिखाई देता  है ……पहाड़ी पखडंडी ,बकरियों के झुण्ड , झूलती शाखाएं और तने का सहारा याद आता है ……पहाड़ों से मुझे ऑब्सेशन है …… वो मुझे ऐसी जादुई दुनिया में ले जाते हैं जिसका आकर्षण खत्म होने को ही नहीं आता है !! न सागर भाता है ना जंगल …………पहाड़ साथ न हों तो दुनिया पहाड़ सी लगने लगती है !! 

सवालों का जंगल मन में पसरा  है। समंदर से खारे जवाब ..........दरिया सी प्यास है .........

अजब आवारगी का आलम है ,सफर पर हूँ पर ठहर सी गयी हूँ ! बीता सब कुछ  बीता पर भीतर कितना कुछ रीत गया ……क्या दावा करूँ कि सब देखा पर कितना कुछ है जो अनदेखा है , अनदेखे का रोमांच जिलाये रखता है पर जो घट जाता है उसका भाव भी बीता जाता है ....

मैं फिर से लौट आती हूँ तुममें……… उस स्नेह के स्पर्श में जिसमें पहाड़ सा आकर्षण है , पहाड़ों सा ठहराव और पहाड़ों सी ताजगी है !!

सुनो … बाल खुले छोड़ दो .... हाथ दो और साथ बाहें फैला कर मेरे साथ खड़ी हो जाओ………गहरी साँस लो और मुझे जी लो ……… !  

वो कुछ पल आज तक जी रही हूँ ……… और इसीलिये जी भी रही हूँ !

उस पहाड़ी का वो शिखर मेरी आवारगी का साथी है !! मैं कहीं भी जाऊं ,तुम में लौट आना ही मेरी नियति है .......... मुझे इससे बेहतर कुछ मिला भी नहीं ! न मिले ....... तुम हो ना !

Tuesday 18 August 2015

ये दौर ए बेपर्दगी है........

ये दौर ए बेपर्दगी है
जिस्म सब उघाड़ कर
आंख बंद कर लीजिये
नज़र बचा लीजिये
हुनर बस एक यही
देखते हुये बच जाइए

ये दौर  ए बेपर्दगी है
हादसों की नुमाइश है
ज़मीर सब बाज़ार में
जाइए खरीद लीजिये
मुखौटा एक खरीद लें
फिर गुनाह से बच जाईये 

ये काल की ही बात थी ..........

हथेली भर बेर के 
प्रसाद के लिए दौड़ी थी 
वो शिव की रात थी 
सब तुमको ही देना था 
मैं तब भी निमित्त मात्र थी 
ये काल की ही बात थी 



नया फिर कुछ चाहिये होगा !! कहाँ से लाइयेगा......नई बातें -नई मुलाकतें…नया मन -नया तन !!

मुगालतों में जिंदगी बसर होती है ……ये सच भी स्वीकार कर लीजिये। खुश होने के लिए सब को कोई कारण चाहिए , इसीलिये आप भी खुश हो जाइए कि आप पहले शख्स हैं जिसे ये सुख मिल रहा है !! मूर्खता की हद तक आत्मउत्पीड़न और आत्मशोषण कीजिए कि हालात आपके नियंत्रण में हैं…………इस्तेमाल कीजिए और इस्तेमाल होते रहिये !!

छद्म रूप धर के खुशियां अपने घुटनों  बैठ आपसे उस सुख की याचना  करती हैं जिसे देकर आप जीवन भर की दरिद्रता अपने हिस्से में रख लेते हैं।  दे दीजिये....... ये जानते हुए हुए भी कि जो हो रहा है वो छल से अधिक कुछ नहीं है ! स्वर्ण मृग की इच्छा में आप भी अपने शोषण को आत्मनिमंत्रण दीजिये..........
दौर सब बीतेंगे , स्वाद सब चुक जाएंगे , कपड़े  पहनते ही पुराने हो जाने हैं..........नया फिर कुछ चाहिये होगा !! कहाँ से लाइयेगा..... नई बातें -नई मुलाकतें….. नया मन -नया तन !!

कहिये कि ऐसा नहीं होगा ,जो मेरे पास है सो मेरे पास सदा रहेगा……… हाहाहा !!! मैं सिर्फ हंस सकती हूँ और आपके लिए प्रार्थना कर सकती हूँ कि आप भी कबाड़ के भाव की अपनी भावनाओं के आदान -प्रदान का खेल  पर्दा गिरने तक उसी शिद्द्त से निभा सकें और चोट खाने लायक साहस अपने भीतर बनाये रख सकें !!

बहरहाल आज का दिन मुबारक ! जश्न का दिन है जी भर के मनाईये....... कल के लिए क्या सोचना जो हो सो तो होना तय हइये ही !!



  

Sunday 16 August 2015

वो जंगल की झोंपड़ी याद है ,तुमने कहा था .......... आशियाना कोई ऐसा हो !!

कई बार रातों की ख़मोशी डराने वाली होती हैं..........इस खामोशी में कितने लम्हे इर्द गिर्द जमा हो शोर मचाने लगते हैं। सिर को तकिये से ढाँफ लूँ तो भी आवाज़ें कम नहीं होती ………अतीत से निकल जाने के लिए वर्तमान में आना होता है , उस वर्तमान में जिसका आधार ही अतीत ने तैयार किया है, फिर से जीना होता है .......जिए हुए को न जिया हुआ कैसे मान लूँ ? डर शोर का भी है , डर खामोशी से भी लगता है ......दोनों में आवाज़ बहुत होती है ..........

सुख सब इर्दगिर्द जमा हैं , रिश्तों का मज़मा लगा है। अतीत को वर्तमान से जोड़ती इन कड़ियों में से नया रिश्ता क्या गढ़ना बाकी है .......... किसी ने भी अब तक कुछ नया नहीं गढ़ा ,गढे हुए को फिर फिर गढ़ नए नाम से पुकारा जा रहा है ……एक सीमा के बाद ये सब फ़लसफ़े बेमानी लगने लगते है। रिश्तों को प्रयोगशाला में ले जाया जाता है……हर कोई समाजिक विज्ञान के सिद्धन्तों के आधार पर अपनी अपनी परखनली ले कर खड़े  है !! सबके पास स्वरचित नैतिकता का लिटमस है जो दूसरे के व्यवहार और अपेक्षाओं को पास फेल घोषित कर देने के लिए तैयार है।

हम सब मिथ्या आर्दर्शों का सफ़ेद कोट पहने वो उद्द्द्ण्ड वैज्ञानिक हैं जो सदैव अपने प्रयोग को ही पेटेंट करवाने के लिए आतुर रहते हैं।

रात के सन्नाटे में तमाम प्रयोगशालाएं तर्क के दरवाजे पर जितनी जोर से दस्तक देने लगती हैं ,मन उतनी ही जोर से दरवाजे के टेक लगा के बैठ जाता है। पानी का गिलास एक बहाना होता है , गला तर हो जाता है पर प्यास खत्म नहीं होती। खिड़की से चाँद भी भीतर ताक रहता  है …… ये रोज मुझे देखता है ,सोचता होगा मुझ सी पागल है ……वो रोज रात के इंतज़ार में रहता है और रात जब आती है तो उजालों के इंतज़ार में पहर गिनती है……रिश्तों के नाम गढ़ने का ये खेल बड़ा पेचीदा है।

'जब सब इसी फ़लसफ़े में उलझे हैं और सब के हाथ खाली हैं तो फिर क्यों न इस सबसे परे निकल जाया जाए
..........

वही झील ,वही पखडंडी ,वही तुम............. वो जंगल की झोंपड़ी याद है ,तुमने कहा था .......... आशियाना कोई ऐसा हो  !! वैसा ही कोई जंगल हो  जिसे बाँहों में भर लिया जाए और इस ख़्वाब के सिरहाने उम्र सब गुज़र जाए ……' बात यहीं आ कर टिक आ जाती है।  जिए हुए इन पलों का वर्तमान बनना देख रही हूँ मैं........भविष्य का पता नहीं पर पदचाप कोई सुनाई जरूर दे रही है।

सोचते -सोचते रात की ख़ामोशी में रोज ऐसा ही कोई ख़्वाब गुनगुनाने लग जाता है और मैं हर आवाज़ से बेख़बर उस झील के आगोश में समा जाती हूँ जहाँ रोशनी फिसलती हुई दूर किनारों से जा लगती हैं ........... तुम तक ले जाती है !

Thursday 13 August 2015

तुम से तुम तक और फिर तुम तक आकर तमाम अंतर्विरोध शांत हो जाते हैं..................

कमाल की जिंदगी है ,छोटी सी है पर लम्बी है। खामोश है पर बोलती बहुत है। चलती है पर ठहरी सी है...........
सवाल है या सवालों का जवाब है..........पता नहीं ,पर जो भी है गोरखधंधा जरूर है। 

सब सुख का जतन कर रहे हैं ,सब दुःख से निकलने की कोशिश कर रहे हैं है -- बात एक ही है। रिश्तों के मकड़जाल में सुख गुम जाता है.......रिश्ते कंप्लेन बुक की तरह होते हैं ,दर्ज करवाते रहिये।  ग्रीवेंस रिड्रेसल का फ़ीड बैक यानि  सफाइयों  का अंतहीन सिलसिला जो नई ग्रीवेंस पर जा के खत्म होगा या अगले विवाद तक के लिए अल्पविराम मान लिया जाएगा। 

सब जी रहे हैं ,सबके अपने भीतर मोर्चे खुले हुए हैं। विरोध भी अपनों से है ,जीत की चाहना भी है। आकांक्षाओं -अपेक्षाओं के घमासान में वो लम्हे चुराना कितना मुश्किल है जिसमें "मैं " जी सकूँ। 

 उम्र की हर दहलीज पर द्वन्द युद्ध होते देखा है -- सांसे बस नाम को अपनी  हैं बाकि हक इन पर भी कहाँ है ? आसपास हर कोई सांसों के नियम-अधिनियम बनाने -सुनाने में लगा है। हर कोई इसी मुगालते में है कि वही भाग्य विधाता है ............. 

स्वार्थी मैं भी हो जाती हूँ जब तुमको अपने से बांधे रखती हूँ ……कहीं गाना बजने लगा है........ "  मोह -मोह के धागे , तेरी उँगलियों से जा उलझे ".......इन धागों ने एक संसार रच लिया है जिसमें रिश्तों से परे की कोई कहानी आ बसी है ……… जिसमें वही झील ,वही पखडंडी ,वही लम्हे और वही तुम ,वैसे ही तुम बस गए हो। कुछ नहीं बदलता !!

वक्त रुका हुआ है कि बढ़ रहा है ,पता नहीं ! कोई कुछ बोल रहा है या चुप्पी है , पता नहीं ! शिकायतें भी नहीं -समझौता भी नहीं फिर भी कुछ है जो घटता भी नहीं ! कुछ है जो खाली नहीं होने देता ,कुछ है जो सोने नहीं देता....... ये वही सुख है जो जीने भी नहीं देता और मरने भी नहीं  देता। 

तुम से तुम तक और फिर तुम तक आकर तमाम अंतर्विरोध शांत हो जाते हैं। रिश्ते का अध्यात्म में बदल जाना सुकून देता है। मेरी उँगलियों के पोरों में साझा क्षणों के मनके हैं।  इस माला को हथेलियों में थामे मैं मीलों चल सकती हूँ……सुख का ये उजास मुझे जिंदगी ने दिया है इसके लिए उसे शुक्रिया कहने का अनमोल सुख मेरे पास है  !! जब तुम आसपास हो तो कोई कमी भी कहाँ है ! 

जी रही हूँ मैं .............तुम्हारे नाम से खुद को जी रही हूँ मैं ........खुद को साध रही हूँ मैं !  बेहतरीन वक्त है ये ...... 

ये पड़पड़गंज की गलियां हैं कि एनाकोंडा हैं.................

पड़पड़गंज की गलियों में एक अद्भुत संसार बसा है --- किसी रोज सुबह और ऑफिस वापसी के समय इन गलियों के उस मुहं पर खड़े हो जाइए जहाँ DTC की बसें ,वैन ,ऑटो मुहं बाये खड़े रहते हैं।

मैं जिस गली  का जिक्र कर रही हूँ उसे एनाकोंडा कह सकती हूँ -- ऐसे ही और भी एनाकोंडा महानगरों में बसते होंगे ……लम्बी सर्पीली गलियां और उनका लपलपाता मुहं मने निगलने -उगलने के ही बना हो.............. सपनों को निगलते -उगलते देखना हो तो वहां सटे पार्क की बेंच पर तसल्ली से बैठ जाइए ……… 

अद्द्भुत संसार है ---हाथों में खाने का डिब्बा थामे एलियन ……… ये वही खूबसूरत लोग हैं जो कुछ घंटे पहले तक हँसते -मुस्कुराते जिंदगी का गुणा भाग कर रहे थे।  घर से निकलते ही इन सबके चेहरे एक जैसे क्यों  हो जाते हैं , ये आखिरी बार कब हँसे होंगे इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है………ये वही मेट्रो वाली भीड़ है जो चाबी से चलती है -यहाँ से वहां और वहां से जाने कहाँ………

जिस गति से एनाकोंडा सपनों को उगलता है , दिन ढ़ले उसी गति से उनको निगल भी जाता है ……पलते- बढ़ते ,घटते -बनते ये सपने हर रोज किसी जाम से डरे , बॉस की घुड़की से डरे , निश्चिंतता -अनिश्चिंतता की मझधार में उलझे , रोज भागते -हाँफते बस -अॉटो में बैठ गायब हो जाते हैं। 

जो गलियाँ आसमान के भी टुकड़े कर देती हैं , धूप खा जाती हैं , हवा भी जहाँ आने से डरती है वहां खुले आसमान के बाशिंदे कैसे रहते होंगे ?? 

सोच रही थी अपने हिस्से का आसमान छोड़ ये सब यहाँ  क्यों चले आये , क्या हासिल होगा इनको……

अजीब है ये उस मुकाम को हासिल करने की चाह में उलझने चले आये जिस मुकाम को छोड़ने की चाह में मैं आवारगी में उलझी हूँ………

मेरे सपने तो झील में पसरे हैं तो कभी  पहाड़ से सटी किसी पखडंडी पर चहलकदमी करते हैं ………… इस एनाकोंडा से मुझे डर लगता है !!

उस दृश्य का ख्याल ही मन को उदास कर देता है ,ख्याल उनका आता है  जो अपनों से दूर किसी सपने की तलाश में किसी एनाकोंडा में समा गए हैं ........ काश ! सबको खुला आसमान और ऐसी खिड़की नसीब हो जहाँ सोते समय चाँद का साथ हो ……उनकी जिंदगी की  गणित और भूगोल भी आसान हो जाये और वो सब भी अपने हिस्से की चांदनी को किसी एनाकोंडा से बचा सकें ……!





Wednesday 12 August 2015

मुझे पता है जो सच है उसका लिखना मना है पर जो लिखा है उसका सच हो जाना कहाँ मना है .......

एकाएक जब मौसम बदल जाये ,आसमान तुम्हारे ख्यालों से भर बरसने को हो जाये , हवाओं से तुम्हारी हथेलियों की सौंधी सी गंध आने लगे तो समझ लेती हूँ कि सावन आ गया है …………इस  बरसात को बाँहों में न भरा तो सावन को क्या खाक जिया ................

खिड़की के बाहर छम -छम गिरती हर बूंद  पर तुम्हारा नाम लिखा है ……रोमांटिक होती जा रही हूँ ना " हाँ ,तो क्या ?? अच्छी लगती है, तुम्हारे चेहरे पर मुझ पर जीत की ख़ुशी !!! हार जाने का मज़ा भी बरसात में ही आता है ना ……प्रकृति से कौन जीत पाया है , मुझे तुमसे हार जाने में सुख मिलने लगा है ……… जीतने के लिए बचा भी क्या है इसीलिये आँगन में निकल जाती हूँ , खुली हथेलियों में बरसते आकाश को भर लेने के लिए..........गीली जमीन और तर पेड़ों से बरसती -बहती बूंदों को समेट लेने का जी करता है !!! 

बरस और बरस ,खनक के बरस ,झमक के बरस ---- इस कदर बरस कि बस ये बरस बस मेरा आखिरी बरस हो ........... मेरी ख्वाहिशों से तर मेरी सांसों में तरबतर बरसात की हर बूँद मेरी देह से तुम्हारा एहसास जाने तक न फिसले……… जम के बरसो मेघा , इतना की दिल में धमक जागे और रूह का तार -तार आसमान से जा मिले ………शज़र सब महक जाएंगे !! झील में गिरती बरसात और वो पहाड़ी से सटी पखडंडी भी धुआं -धुआं होगी …रूह आज़ाद हो तो सब करीब आ जायेगा ! 

हंसो मत ! ख़्वाब देख रही हूँ ………  मुझे पता है जो सच है उसका लिखना मना है पर जो लिखा है उसका सच हो जाना कहाँ मना है ....... अब मुस्कुरा दो , और कुछ नहीं कहूँगी !!

Tuesday 11 August 2015

वो तुमको परखने की जिद छोड़ न सके...........


दोस्त , देख रही हूं ,समझ रही हूँ ………परेशान हो ! किससे परेशान हो खुद से या उस निर्णय से जो खुद तुम्हारा था……. सच जानते हुए किसी ऐसे रिश्ते की नींव रखने को उतावले  हो चले हो जो तुम्हारे लिए बना ही नहीं है । अब सच ये है कि नुकसान दोनों को हो गया ……तुम अपनी ईमानदारी को उसकी कसौटी पर घिसते रहने लायक धैर्य न रख  सके, वो तुमको परखने की जिद छोड़ न सके। 

वक़्त जो जीवन के कुछ लक्ष्य हासिल करने के लिए रखा था वो भी बेजा प्रयोगों में चला गया ……कहा था न , खुद को खत्म करके न तुम खुद के लिए कुछ बन पाओगे न उसके लिए ,जिसके लिए तुम खुद को बदल रहे हो। 

सालों पहले किसी दोस्त ने मुझे भी यही कहा था कि पौध को बदला जा सकता है , वृक्ष को अपनी जगह से उखाड़ देने के प्रयास में वृक्ष का सूखना तय है !! जड़ें गहरी हों तो उखाड़ने की जिद मूर्खता है……जिसके परिणाम में सिर्फ निराशा ही हाथ लगनी है। 

अवसर किसी की प्रतीक्षा नहीं करते , मन के उतार -चढाव चलते रहेंगे लेकिन जब तक मंज़िल को हासिल कर लेने की मंज़िल हासिल नहीं कर लेते तब तक भटकन को विराम दे दो ................... 

बिगड़ा अब भी कुछ नहीं , अपने आप में लौट आओ और वही बने रहो जो तुम हो। मैं हर रास्ते पर कभी उस छाँव सी बनकर तुमसे मिलती रहूंगी जो तुम्हें विश्राम दे , कभी वो रास्ता बन कर तुम्हारे साथ रहूंगी जो तुम्हें भटकने न दे ……………… उठो ,हाथ दो अपना ! रास्ते की पुकार सुनो ……… 

तुम्हारी 

मन की डील 







Monday 10 August 2015

मुझे न केंद्र बनना है न परिधि और न ही पेंडुलम ..........

गाहे बेगाहे जिंदगी  में कुछ रिश्ते केंद्र और कुछ परिधि बन जाते हैं और इन सब के बीच हम पेंडुलम से झूलते इधर -उधर बीत जाते हैं…………ये रिश्ते अनिवार्य प्रश्नों वाला लम्बा प्रश्न पत्र है जिसमें चयन का कोई विकल्प हमारे लिए नहीं होता। सबमें उलझना जरूरी है वरना नैतिक योग्यता के इम्तिहान में फेल करार दिया जाना तय है……………

मन विद्रोही है……नहीं मानता !! आप मुझे हर नैतिक मानदंड पर अयोग्य घोषित करने के लिए स्वतंत्र हैं। पास होकर भी क्या हासिल होना है .......... मुझे न केंद्र बनना है न परिधि और न ही पेंडुलम !!!

आसपास का हर नैतिक योग्यता धारी शख्स आपको स्कैनर के नीचे से निकालना चाहता है ,मने मैं कोई ओएमआर हूँ --- कितने गोले काले और कितने सफ़ेद हैं , इसका हिसाब आप क्यों रखना चाहते हैं। 

जब तक मेरी निजता आपकी स्वतंत्रता और आपकी निजता का लंघन नहीं करती , जीने दीजिये न ………हर बार नैतिक शिक्षा की किताब मेरे सामने खोल देने से मेरे पंखों की उड़ान कम नहीं हो जाएगी !!

केंद्र बनें ,परिधि बने या पेंडुलम बन के जिए.......आपकी इच्छा ! मेरे लिए रिश्तों में भी आवारगी होनी चाहिये - जहाँ कहीं लौट आने और टिक जाने की बाध्यता न हो...... साथ भर हो ,भरपूर साथ हो , बेपनाह साथ हो ,रवानी हो पर कोई नाम न हो...................  

कुछ हो न हो , दम निकले तो मेरी आवरगी मेरे साथ हो ………!!

Sunday 9 August 2015

मेरा अध्यात्म मेरी आवारगी है

बताया था ना कुछ एक महीने पहले अटकते भटकते उत्तराखंड के कैंची धाम पहुंची थी --- बाबा नीब करौरी को और जानने की इच्छा से  लौटते समय आश्रम से कुछ किताबें ले आयी थी ! जितना पढ़ती गयी उतनी ही उलझती गयी …अध्यात्म की शक्ति से अभिभूत हूँ या चमत्कार की कहानियों से ………… कहना अभी भी कठिन है।

योगानंद परमहंस की लिखी किताब से लहडी महाशय और महावतार बाबा जी की आध्यात्मिक शक्तियों के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला था।  उसके बाद लम्बे अरसे तक उनके साहित्य को पढ़ा ……   पढ़ने के बाद याद आया कि किताब में जिन जगहों का जिक्र हुआ उन में से अल्मोड़ा प्रवास के दौरान बहुत सी जगह मैं जा चुकी हूँ ……जागेश्वर के जंगलों में शिव का प्रवास अनुभव हुआ !! लगा कि सब कुछ तय है ,प्रकृति की टाइमिंग के आगे हर प्लानिंग बेकार है।

एक लम्बे अरसे तक ब्रह्माकुमारी शिवानी को सुनती रही ,आज भी उसको सुनना अच्छा लगता है तो मन हुआ कि ब्रह्माकुमारी जाकर और  नज़दीक से अनुभव किया जाये  ....... संयोग  कहिये कि माउन्ट आबू में फैमली वेकेशन के लिए सर्किट हाउस के जिस कॉटेज को बुक कराया वहां से आश्रम कुछ ही मीटर की दूरी पर  था।

कितना अजीब है ,सब कुछ कितना तय होता है -- वक्त -जगह सब कुछ तय है फिर "मैं " क्या तय करता हूँ ?
रास्ते तय हैं ,मंजिलें तय हैं ,साथी तय हैं ,माध्यम भी तय हैं …………घड़ी की सुई सी देह जन्म दर  जन्म टिकटिकाती रहती है।  कभी प्रेम का कर्ज कभी नफरतों के घाव लिए हर जन्म में नए कलेवर में आमने -सामने होते रहते हैं --- पुराने चुकते नहीं ,नए तैयार हो जाते हैं।

रास्ते पुकार रहे हैं……पंछी किस दिशा में उड़ जाएगा कौन जाने लेकिन नियति का संकेत स्पष्ट है कि लौट के वहीं आना है जहाँ के कुछ कर्ज बाकी हैं।

अब तक जहाँ भी गयी लगा कि पहली बार नहीं आयी हूँ ,लौट आयी हूँ .......मेरा अध्यात्म मेरी आवारगी है और खुद में ही लौट आना ही मेरी नियति है।





Saturday 8 August 2015

निशां रास्ते बनाते रहे मैं उनकी खोज में खुद को ढूंढती रही........

पापा ने सीधे कभी टोका नहीं ,माँ के सहारे से उनकी दबी सी झिड़की मुझ तक पहुंचती रही …… बेटी की आज़ादी का भरपूर सम्मान उनसे ही पाया। स्कूल से कॉलेज तक साइकिल से रोज नए रास्तों से जाना ,यूनिवर्सिटी में जर्मन भाषा की इवनिंग क्लास से देर शाम घर लौटना…… बिना बताये जैसलमेर के धोरों तक पहुंच जाना.... क्या न किया !! वे एक ही बात कहते , अपना ध्यान रखना ....... कितना ध्यान रख पायी ,पता नहीं ,हाँ पर जहाँ हूँ वहां संतुष्ट हूँ।

अजीब सनक थी अजमेर से पुष्कर तक सूरज को उगते और ढलते देखने जाती थी -- वो भी सावित्री मंदिर की पहाड़ी पर बैठ देखना होता था  !! एक ही दिन में दो बार पुष्कर , सूरज को ढलते -उगते देखने कोई सनकी ही जा सकता होगा ....  क्या रहा होगा उस सूरज में ,उस पहाड़ में ,उस सफर में ,उस तकलीफ में………वो गलियाँ आज भी ज़हन में आबाद हैं। 

मकान मालिक को बता के सोना पड़ता था कि सुबह जल्दी दरवाजा खोल दें , निहायत परम्परावादी सोच के वे सज्जन मुझको अक्सर लड़की होने की सीमाओं का विविध प्रकार से ज्ञान देते पर अल सुबह दरवाजा खोल ही देते।  घर से एक डेढ़ किलोमीटर पैदल चलकर पुष्कर की बस मिलती पुष्कर बस स्टॉप से एक डेढ़ किलोमीटर सावित्री मंदिर की पहाड़ी , पहाड़ी की १००-२०० सीढीयां ……फिर जाके कहीं सूरज के दर्शन होते !!! 

एक जुनून दूसरे जुनून के लिए साहस देता रहा , डर न अंधेरों से लगा न उजालों से लगा। सफर में जितने भी दर्द मिले निशां छोड़ते रहे....... निशां रास्ते बनाते रहे मैं उनकी  खोज में खुद को ढूंढती रही। अपने लौट आने का  इंतज़ार करते रहे , मैं गुम जाने की फिराक में रही। 

दुनयावी रवायतों की जंजीरे छूटे तो एक बार फिर ये शज़र महके, फिर वो रास्ते महकें ,वो झील वो किनारे इंतज़ार में हैं कब ये सांस टूटे..............और आस का पंछी फिर उड़ चले , दूर समंदर पार  पहाड़ों की किसी चोटी पर जहाँ जमीन और आसमान एक हो जाते हैं ! ख्वाहिशों का बोझ सीने पर भारी हो चला है ,दम किसी एक शाम में अटका है ---- वो हो तो फिर किसी झील से खनकता सूरज पहाड़ी के पीछे जा डूबे !!

Friday 7 August 2015

जब सवाल चौराहे बन जाते हैं तो मैं फिर तुममें लौट आता हूँ ......

जिंदगी को किसी नए मोड़ पे खड़े देखना , जिंदगी के लिए किसी बवाल से कम नहीं होता। एक दिशा के अभ्यस्त पांव अपरिचत रास्ते पर जब निकल पड़ते हैं तो आपके साथ केवल आपका ईश्वर होता है और कोई नहीं।

अजनबी चेहरे ,अधूरी बातें ,अधूरे सच , अनगिनित मरिचिकाएं पल पल इम्तिहान लेने को तैयार मिलते है। ये वो पल होते हैं जब सब आपके साथ होते हैं पर "मैं " अकेला होता हूँ। भीड़ में अकेले होने का अहसास भीड़ से निकल जाने या भीड़ में गुम हो जाने के लिए उकसाता रहता है। 

मेरा लक्ष्य ये नहीं था , मैं रास्ता भटक गया हूँ या ये रास्ता उसी मंजिल की ओर जा रहा है जहाँ मुझे पहुंचना था …… सवालों से घिरा मैं फिर भी चल रहा हूँ !  सुनो ,तुम साथ हो न मेरे ?? हमेशा …!! जवाब सुनकर मैं भी मुस्कुरा देता हूँ !! सच उस को  भी पता है सच मुझको  भी पता है। 

यहाँ से भाग जाने का मन करता है पर जाने के लिए इस सबके परे कोई जगह कहाँ है ? होगी पर अभी नहीं पता , सब छोड़ दूंगा और निकल जाऊँगा किसी दिशा में .......बेजा संकल्प बुलबुलों से उठते -बैठते रहते हैं। 

इन सबके बीच तुम भी कहीं हो .......जो मेरा पीछा करती हो।  अकेला छोड़ क्यों नहीं देती मुझको ? वो मुस्कुरा देती है ……पर ये सच है कि उसका होना मुझे साहस देता है  , वही एक शख्स है जो मेरे हर सच से वाकिफ है। उसके साथ होने का अहसास मेरा भरोसा है जो मुझे भीड़ से अलग कर देता है और अकेला भी नहीं होने देता। 

मैं नए सफर पर हूँ --- तमाम उलझनों के साथ ,सवालों और अनमने से रिश्तों के साथ ! अपने को ढूंढने निकला था, क्या  खुद को खो दिया मैंने ? क्या पा लिया मैंने ? 

जब सवाल चौराहे बन जाते हैं  तो मैं फिर तुममें लौट आता हूँ ........ताकि कल फिर उसी उम्मीद से मंज़िल की ओर बढ़ चलूँ जहां सफ़ेद रोशनी मेरा इंतज़ार कर रही है................... 

Thursday 6 August 2015

सांसों का शोर सुनना - जवाब मिल जाएगा ...........

सच को नकारने में उम्र बीत जाती है ,सच स्वीकार करने में सांसे चुक जाती हैं.………… हमेशा डिनायल के मोड में रहने वाला मन मेरे ही मन की कहता है। तर्क कहता है "नहीं" मन कहता है 'हाँ ' …… और जवाब मुझे हाँ में ही चाहिए ....... मन तानाशाह है। तर्क मन के दरबार का गुलाम जिसका इस्तेमाल मन के निर्णय को वैधानिक जामा पहनाने के लिए सभी करते है मैं कौन अपवाद हूँ !

जानते हुए कि अपेक्षाओं - आकांक्षाओं की जद कहाँ है , सीमाओं के लघंन के लिए मन विद्रोह करता रहता है....उस जीत के लिए विद्रोह जिसके अंत में तर्क की हार तय है और उस हार से भयभीत है जिसमें मन की जीत तय है………।

सच तुम भी जानते हो - मैं भी जानती हूँ।  तुम्हारे इर्द गिर्द  मेरी मौजूदगी हर उस क्षण में भी है  जिन क्षणों के एक मात्र गवाह तुम खुद होते हो  ……… तुमको साझा करने के लिए अब किसी और के पास कुछ शेष नहीं है। हर साझेदारी पर मेरे हस्ताक्षर हैं……इसलिए मन को कहो कि तर्क की सुने।

जानती हूँ , तर्क मन की नहीं सुनेगा और मन तुम्हें तर्क  करने नहीं देगा ............ जब जवाब न मिले ,सवाल सब उलझ जाएँ तो कुछ पल ख़ुद में लौट आना……जहाँ न मन -हो न तर्क हो !!

सांसों का शोर सुनना - जवाब मिल जाएगा।

साँझ ढ़ले उससे पहले लौट आना............. 

उसी झील किनारे किसी ढलती शाम सांसों का मेला भरेगा !! चले आना ....

किसी वक्त के आने की कुछ आहट कुछ दस्तक जरूर होती है , अनसुना कर दिया है ! हाथ की लकीरें -पोथी सब धरे रह जाने है.......... खुला नीला आसमान , झील किनारे की पखडंडी और धुआं -धुआं सा कोई मंज़र सामने हो.......!! लौट आने की कोई वजह नहीं, सामने कोई  चाह बाकी नहीं।

खामोशी पसरी है। सिरहाने सांसों की डोर सिमटी सहेज रखी है……  और कुछ नहीं चंद किताबें चंद बातें चंद लम्हे आसपास हैं। कॉफी का प्याला सूख गया ,अब नहीं पीती.......

जिद बाकी है , जद इतनी ही थी ! बहीखाते सब पूरे होना मुश्किल है कोशिश थी कि सब चुक जाए पर सहारों का बकाया कितना बकाया है पता नहीं ……शेष जो है सब तुम्हारा है। तुम्हारा नाम -ठिकाना वजूद में शामिल है --- उस स्कूल में पढ़ी कहानी सा कोई ख़त पढ़ के चले आना ………  उसी झील किनारे किसी ढलती शाम सांसों का मेला भरेगा !! चले आना ....उस कहानी को सच होते देख लेना !!


Wednesday 5 August 2015

आप -आप बने रहिये ..........

एक बात जो कभी समझ में नहीं आयी , हमेशा उलझाती रही वो ये कि किसी रिश्ते के लिए वैसा होना ही क्यों जरूरी है जैसा कि वो चाहें ……हम वैसे क्यों नहीं बने रह सकते जैसे कि हम हैं ---- भले हैं तो बुरे हैं तो।

आपके किसी भी नज़रिये को मैं अपने नज़रिये से गुनाह घोषित कर आपको अपनी ही नज़र में अपराधी बना कर घुटनों पर ले आऊँ और रिश्ते की बेड़ियां पहना कर खुद को विजयी घोषित कर दूँ ---- ऐसा रिश्ता समझ के परे है !

जिंदगी की किस किताब में गलत और सही की परिभाषाएं लिखी हुई हैं ?? आपने कहा इसलिए सही , मैंने जिया इसलिए गलत .......... अजब दुनियावी रवायतें हैं !!  मैं तुम्हारे साथ अगर मैं नहीं बनी रह सकती या तुम मेरे साथ तुम बन कर नहीं रह सकते तो मेरे -तुम्हारे बीच कोई रिश्ता कैसे हुआ ………… ये रिश्ता तो तुम्हारा -तुम्हारे साथ और मेरा - मेरे साथ हुआ !! फिर क्यों न ये माना जाए कि तुमको मैं नहीं तुम खुद पसंद हो …!! 

आत्ममुग्धता में किसी के अस्तित्व , किसी के व्यक्तित्व को लील जाना किसी रिश्ते की निम्नतम परिणीति होती है  जिसका बोध होते -होते आप अपना बेहतरीन वक्त बेजा उलझनों में बर्बाद कर चुके होते हैं। 

जब आप आप ही न रहेंगे तो उनके लिए भी लाश बन जायेंगे, जिसे हर कोई जल्द दफन करना चाहता है…………आप -आप बने रहिये वरना आप वो भी न बन पाएंगे जो वो खुद भी नहीं हैं !!!! 

Monday 3 August 2015

वानप्रस्थ जरूरी है !

जिंदगी जब जब बहुत बेचैन कर देती है अध्यात्म की राह सबसे सुकून देती है। भटकते -भटकते कुछ समय पहले उत्तराखंड के कैंची धाम आश्रम पहुंची थी ……यूँही पढ़ के सुन के ! संयोग से आश्रम में रहने का मौका मिल गया और जिंदगी को फिर एक मौका अपने करीब आने का  ! 

बाबा नीम करोरी को गुज़रे बरसों हो गए।  आश्रम उनके सेवादार चलाते हैं। कोई सत्तसंग - कोई प्रवचन नहीं। बाबा की स्मृतियाँ आश्रम में जस की तस हैं …………पहली मुलाकत थी उस दिव्यात्मा से। सिरहाने बैठ कितने घंटे पल में गुज़र गए पता नहीं चला। बरसों का गुबार आंसुओं की धार बन बहता रहा और सीने का बोझ हल्का होता रहा ..... क्या बाबा ने कहा क्या मैंने सुना नहीं पता पर जो कुछ भी घटा वो सूकून भरा था। 

आध्यात्मिक पाखंड के इस दौर में इस यदि मेरे जैसे नास्तिक को इतना खूबसूरत अनुभव हुआ तो निसंदेह मुझ पर अज्ञात शक्तियों की कुछ कृपा जरूर रही होगी। 

भटकना बेजा नहीं होता ……कुदरत का इशारा होता है। आपके लिए रास्ता बन रहा है ..........  इंतज़ार में हूँ कि कब वो वक्त आएगा जब सब जंजाल खत्म हो और पहाड़ -जंगल के बीच मैं उस निरकार के साथ अंतिम लम्हे गुज़ार  सकूँ ..........वानप्रस्थ जरूरी है पर आश्रम कोई मन में ही बस जाए ये भी जरूरी है !!  


जी हाँ !!! चोट पैकेज में मिलती है ........

उम्र का तजुर्बे से लेनदेन जब तक पूरा नहीं माना जा सकता जब तक कि तजुर्बा न हो जाए। पुराने किसी तजुर्बे का नए तजुर्बे से कोई लेना देना नहीं होता फिर भी अक्ल की कसौटी पर उसे जब तक घिसते हैं जब तक कि नतीजा सिफर नहीं निकल आता।  हर कोई उम्र के हर पायदान पर अक्ल का ऐसा ही तराजू लेकर खड़ा हो जाता है जिसका पलड़ा  हमेशा उसी और झुका होता है जो उसकी इंस्टा नीड्स को पूरी करता है।

मूर्खता की पराकाष्ठा  जब हो जाती है जब आप अपना ज्ञान मुफ्त में बाँटने जाते हैं और लौटते हैं तो साथ में एक के साथ एक वाला फ्री का ज्ञान लेकर ……धक्के खाते रहना हम सबकी फितरत है ,किसी के धक्के से किसी को सबक नहीं मिलता ,हर एक को अपनी  ड्राइविंग पर हद दर्जे तक ओवरकॉन्फिडेंस है।  

अपनी योग्यता को फ़लसफ़ों से निहारने में मशगूल हम अपने इर्दगिर्द अपेक्षाओं और अप्राप्य सत्य का चक्रव्यूह रच लेते हैं। सच को झूठ में बदलने की कहानी गढ़ लेते हैं ,खुद को खुद ही उस सच से दूर किये रहते हैं जो अभिमन्यु की मानिंद उस चक्रव्यूह को किसी भी क्षण ध्वस्त कर आत्महत्या करने के लिए तत्तपर रहता है। 

तजुर्बा कहीं काम नहीं आता। घिरना हम सब की नियति है और हर अनुभव के बाद उस ज्ञान को बाँटने और सलाह देना हमारी मूर्खता की पराकाष्ठा है। नियति हम सब को धक्के खाने के समान अवसर देती है .............

धक्के खाइये फिर खड़े हो जाइए अगले धक्के के लिये..........चोट कोई स्थायी नहीं होती ,हर धक्के के साथ आपको साहस का नया पैकेज मिलता है नई चोट लगने तक उसे एन्जॉय कीजिए……चलते रहिये। 

Sunday 2 August 2015

भटक जाना ही लौट जाना है

बरसों से एक ख्वाब पीछा करता है -- कहीं खो जाऊं ऐसे कि फिर न मिलूं !! किसी को कभी फिर दुबारा नहीं मिलूँ.......सपने भी ऐसी ही देखती हूँ ,कहीं खो जाती हूँ ऐसे कि फिर रास्ता भी नहीं ढूंढती !! अचानक नींद टूटती है फिर से वही सब ,वहीं सब ……।
मनोविज्ञान की किताब उठाई लगा कि शायद यूँ भागना पलायनवादी मानसिकता की ओर जाने का इशारा है , फिर लगा की मुसीबत को खुद गले लगाना जिसकी फितरत हो वो भागेगा क्यों ? कभी लगा कि डर है , सच का सामना नहीं हो पा रहा !! हो सकता है ,सच हो ....... पर सच है क्या इसको कौन तय करेगा ?? अजब सवाल -अजब जवाब .......

अब सब जवाब -सवाल ढूंढने बंद कर दिए हैं  , झोला उठा कुछ पल अपने लिए निकाल लेना ही समाधान है !! सफर से प्यार हो गया है …… जब अकेले सफर में होते हैं तो अपने साथ होते हैं वरना झमेले साथ होते हैं। 

किसी झील किनारे घंटों अकेले बैठ कर सूरज को डूबते देखिये ,देखिये कितने लम्हे खामोश झील में उतर के आपके पास खिंचे चले आते हैं ……… भटक जाना ही लौट जाना है , हर बार अब इसी नतीजे पर आकर ख्वाब अटक  जाता है !

सब बदल रहा है बस अपनी आवारगी से प्यार कम नहीं होता !