Friday 23 October 2015

बस मैं और मेरी आवारगी बाकी होंगे और निशां कुछ नहीं …

सबकुछ अपनी गति से चलता रहता है तभी एकाएक मन उचाट हो जाता है ……अक्सर हो जाता है।  खुद को फिट नहीं कर पाता है या खुद को ढूंढ नहीं पाता।  मैं गुम सी गयी हूँ , अक्सर भाग कर किसी पहाड़ ,किसी झील और जंगल का रुख करने का ख्याल इतनी तेजी से उठता है कि लगता है बस ये आखिरी पल है इस झाड़ से जीवन के।

प्रकृति से दूर का असहज जीवन कितना कठिन है …… असहज हंसी ,असहज बातें ,असहज इच्छाएं। दूर नीले आसमान के नीचे पसरी किसी नदी या झील का ख्याल भी आ जाये तो मन में लहरों की किलोल सुनायी देने लगती है , सब कांच सा दिखने लगता है। कदमों में पडी रवायतों की जंजीरें तोड़ भाग जाने के मन करता है।  विद्रोह कर देता है उस जीवन को जीने के लिए जहाँ मैं मैं न रहूँ ....... प्रकृति में एकाकार हो जाऊं।

जागेश्वर, अल्मोड़ा के जंगल ख्यालों में बसे हैं।  महावतार बाबा की तप वाली गुफा देखने का मन है ,उन पगडंडियों को नापने के लिए बैचेन हो उठती हूँ जो मुझे उस जंगल में गुम कर दें। स्वप्न भी अब वहीं ले जाते हैं …… नीम करोरी बाबा के धाम गयी थी ! दो बार हो आयी हूँ ……… तमाम अश्रु वहीं के लिए सिंचित रहते हैं। सब उस खाली ,शांत कुटिया में समा जाते हैं और मन एक बार फिर से खाली बर्तन बन जाता है।

अध्यात्म के आगे और उसकी दिशा में जाने के लिए कितने झंझावातों से गुज़रना होता होगा ,नहीं पता लेकिन ये यात्रा अभिभूत कर देने वाली है। किसी तप से कतई कम नहीं है।

सब जी लिया , सब जान लिया पर दूसरे ही पल कोई कान में फुसफुसा जाता है कि अभी कुछ नहीं देखा !

मैं लौट जाना चाहती हूँ.…… आवारगी के इस सफर में झील ,जंगल और पहाड़ के अलावा कुछ न हो ,कुछ भी नहीं !! तुम भी नहीं .......

अकेले निकल चला है मन ....... बस मैं और मेरी आवारगी बाकी होंगे और निशां कुछ नहीं !

Thursday 22 October 2015

आप सत्ता में हैं ,जवाब दें या षड्यंत्रों में उलझाये रखें आपकी मर्जी !

आजकल रातें कुछ जगी सी और दिन उनींदा सा गुज़र रहा है। कुछ है जो पीछा कर रहा है ,कुछ है जो पीछा छोड़ नहीं रहा है …मन उचाट सा है। खुद से दो -चार हो जाने का मन करता है तो कभी तमाम हथियार डाल घुटनों पर आ जाता है। समझाइश की भी सीमा होती है , कितना लड़िएगा खुद से और उस व्यवस्था से भी जिसमें सांस लेना आपकी नियति है।

मैं कुछ नहीं हूँ। एक पात्र ,एक सूत्रधार किसी कहानी की....... उस कहानी के सच ने मुझे राजनैतिक षड्यंत्रों के बीच ला पटका है। हर रोज नए ताने  बाने के साथ मुझ तक कोई फुसफुसाहट पहुंचाई जाती है मानो कि मैं उन सब पर भरोसा कर बैठूंगी। ये किस्से अब असर नहीं करते ,अब कोई सच असर नहीं कर रहा। 

ब्लॉग की एक मामूली सी पोस्ट ने समाज और राजनीति का जो चेहरा सामने ला के रखा है उसने भरम के कई जाले उतारे हैं। जो लोग संवेदनशीलता का स्वांग रचते हैं वे किस सीमा तक असंवेदनशील हैं ,अंदाजा भर लगाना मुश्किल है। मैंने वो लिखा जो मैंने जिया और उस सच का सामना किया जिसके लिए मैं खुद भी तैयार नहीं थी....... 

ये एक ऐसी लड़ाई बन गयी है जहाँ अब मेरा अपना जमीर ही दांव पर लग गया है। वे लोग जो सामजिक सरोकारों के बूते राजनैतिक ताकत बन के उभरे हैं वही सामाजिक यथार्थ के प्रमाण मांग रहे हैं ?
वही लोग चारों ओर पसरे सामजिक सच को निजी मसला बता कर अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रहे हैं। जी करता है आसमान से प्रश्न पूछूँ कि मेरी पैदाइश और मेरा इस दुनिया में होना ही मेरा निजी मसला है तो फिर ये समाज मुझे मेरे हाल पर छोड़ क्यों नहीं देता ?

मेरा परिवार ,मेरा आचरण मेरे इर्दगिर्द की दुनिया में कहने के लिए सब निजी है पर ताकाझांकी की कोई भी सम्भावना समाज बाकि भी नहीं रखता। …… फिर सब सवाल निजी कैसे हुए ??

घर की चारदीवारी में कोई अपनी पत्नी को मारे या कोई पत्नी अपने पति के साथ बलात्कार करे तो उसे पारस्परिक मामला माना जाना चाहिए। दहेज दो परिवारों के बीच का मसला है , बेटी चाहिए या नहीं ये भी निजी मसला है तो इन सब मसलों पर किसी भी राजनैतिक दल को चुप्पी साधे  रखनी चाहिए। 

औरत की अस्मिता और बीफ के बवाल में कोई अंतर नहीं है। दोनों वोट और नोट की आंच पर खूब सेंके जाते रहे हैं। प्रश्न के बदले प्रश्न करना अब हमारी आदत है क्यूंकि उत्तर अब कोख से पैदा नहीं हो रहे हैं।  ये समाज अब केवल प्रश्न जन रहा है। उत्तर जानने  के लिए जन्म भर इंतज़ार कीजिए। 

मैं भी इंतज़ार में हूँ ....... आप सत्ता में हैं ,जवाब दें या षड्यंत्रों में उलझाये रखें आपकी मर्जी ! फर्क पड़ने की भी सीमा होती है। भावुकता और निज बनके जो सत्ता तक पहुंचे हैं वे वोट की राजनीति करने लगेंगे तो उन जड़ों को पोषण मिलना बंद हो जाएगा जिसके आधार पर ये पेड़ उगा है। 

हम सब सीख रहे हैं। आप भी सीख लीजिये ,नहीं सीखना चाहते तो भी कोई बात नहीं ,प्रकृति बख्शेगी किसी को नहीं। 
किसी मोड पर हम फिर मिलेंगे ,दुआ -सलाम फिर होगी।  मैं तब भी आपकी खैरियत ही चाहूंगी , रही नींद की सो कब तक न आयेगी। मन बेचैन जरूर है पर आपसे नाराज भी नहीं है ,किसी से भी नहीं !

Sunday 18 October 2015

कद की कद्र में सबका फायदा होता है........

सुबह से फोन घनघनाने  लगा है , ट्वीटर पर DM भरा है ! सबका एक ही सवाल है " तुम्हारे पास कहाँ से आयी " …… मैं  हैरान हूँ कि कहाँ से आयी ? मैंने  किसी से माँगी नहीं ,मैं कहीं गयी नहीं  …… DM जरूर था ,मेल चेक करने का ,देख लिया सो मिल गयी !

ऐसा अक्सर होता है करने क्या निकलती  हूँ और मिलता क्या है। नेता जी के दरबार से मुलाक़ात भी कुछ ऐसी थी …… सम्मोहित करने वाली ! सबने ऐसे ही घेरा था , मने आत्मीयता ऐसी जैसे भूखे को भोजन मिला हो। वे खुश थे , सब खिल के मिले, लगा सब दिल से मिले …हम कई बार मिले हर बार और गर्मजोशी से मिले। सोचा कि दुनिया  इतनी बुरी भी ना है , पाया कि चेहरे सब अपने से हैं।

दरबार में सबका कोई कद होता है और कद की कद्र में सबका फायदा होता है। देख रहे थे कि सब कद के कायदे में कसीदे पढ़ रहे थे , कायदे की शान में कालीन बन बिछे थे। पीठ घूमते ही फुसफुसाहटों के सिलसिले और चेहरे सामने आते ही वाहवाही का सामान …… " यहाँ राजनीति नहीं परिवार सा है सब " ! हैरान भी थी और परेशान भी ,समझना भी नहीं चाहती थी  यूँ कि ख़्वाबों के महल के भरभराने की कल्पना ही सिहर भर देती है।

शाम फोन बजा " दी ,मैं बोल रहा हूँ …… कैसी हैं !"

बढ़िया !  सुनाईये कैसे याद किया....
कुछ बताना है , उसने कहा ! मैं हैरान थी कि इसे क्या कहना है ?
दी ,कुछ नाम और कुछ चेहरे और भी हैं आपकी कहानी में .......
मैं चुप थी।  ये सिलसिला खत्म क्यों नहीं हो रहा ? मैं कोई कहानी नहीं कहना चाहती थी ,मैं कुछ पाना -खोना नहीं चाहती थी ,मैं कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती थी ..........  अब हर कोई अपने तथ्य ,अपने साक्ष्य मेरे बिना मांगे मुझे दे रहा है ! क्या रिश्ता है उनका मुझसे ? ये भरोसा अब सांस को भारी कर रहा है .......

कड़वे सच को परोसूं कैसे ? सब कोई नई व्यवस्था से जो दिल लगाये बैठे हैं उनको क्या बताऊँ कि ईमान और ईनाम में मामूली हेरफेर है लेकिन इस मासूमियत में कितनों के आस की इमारत खड़ी है।

उसने सब सुना दिया , सब भेज दिया ! अब ये सिलसिला सा हो गया है ,मनो मैं कोई मिशन पर हूँ जिसे लोग तीर -तमंचों से लैस कर रहे हैं।

मैंने कब ये सब चाहा था ! झील -जंगल और पखडंडी की दुनिया थी मेरी और मेरी चाह का अंतिम ठिकाना भी …… ये सब कौन तय कर रहा है ,पता नहीं !

मैं दरबार की उस हकीकत से मायूस हूँ। वो जो कह रहे हैं वो हैं नहीं ,जो वो हैं वो ,वो कहते नहीं ....... हर कोई रेवड़ी के इंतज़ार में क्यों लग गया है …… सबको ईनाम की तमन्ना है। सब अपनी मेहनत और ईमानदारी की कहानी सुना रहे हैं और सब कोई उसे भुना रहे हैं। कुछ अब भी आदर्शों और नैतिकता को पीठ पर लादे भटक रहे हैं।

मैं क्या सोच के निकली थी , मैं कहाँ आ गयी ! ऐसा भी क्या है कि अपनी ही सांसों पर अपना ही हक नहीं होता ? ये कौन इशारे हैं कुदरत के ?

दरबार से शिकायत नहीं पर अब सब पर तरस आता है।   किसी को नहीं पता कि दिन भर साये की तरह साथ रहने वाला आपकी साँसों का हिसाब किसी के DM किसी के मेल बॉक्स में पोस्ट कर आया है !

ये जिंदगी का दरबार बड़ा जालिम है दोस्तों ,अपने सारथी से भी संभल के रहिएगा ! रफ़्तार कहीं उड़ा न दे …… सबकी सलामती  की दुआ कीजे …… चलते हैं !

Thursday 15 October 2015

न कोख उसकी न देह उसकी !……

चार -पांच दिन हुए आर टी आई की एक अर्जी आयी।  सूचना मांगने वाले ने किसी लड़की की साल 2000 में कॉलेज में नियमित छात्रा होने से संबंधित दस्तावेज मांगे थे …… आवेदन देख के समझ में आ रहा था कि कहीं कोई कानूनी पेच है जो ये सूचना माँगी गयी है !

तबियत ठीक नहीं थी ,कॉलेज नहीं गयी। फोन बजा की सूचना जल्दी चाहिए .... " क्या जल्दी है ?" कोर्ट में तारीख है ,जल्दी दें तो मेहरबानी होगी ! समझ आ गया कि मामला वही कुछ है …… कल दोपहर मिलियेगा , कह के फोन बंद कर दिया !

बहुत परेशान हूँ मैडम ! 498 कर दिया है , कई बार बंद हो आया हूँ ! वो तलाक नहीं दे रही है।
तो आप दे दें ? मैंने कहा।
वो बच्चा लौटा दे और 5 लाख के गहने लौटाए तो मैं दे दूँ।
वो बच्चा आपको क्यों दे ?
बच्चा मेरा है।
बच्चा तो उसका भी है ,मैंने कहा।
वो इन्द्राणी है , मैं आपको क्या बताऊँ ! बदचलन है …
ओह्ह्ह …… तो वो बच्चा आपका है ये आप कैसे कह सकते हैं ,छोड़ दीजिये ऐसी बदचलन औरत को !
नहीं , बच्चा तो मेरा ही है। हम 15 साल साथ रहे , बच्चा कैसे छोड़ दूँ !
आप करते क्या हैं ?
थर्ड ग्रेड टीचर की तैयारी !
वो ?
नर्स है।  बदचलन है , खराब है।
आप काम क्या करते हैं ?
उसको नौकरी कराई।
नौकरी कैसे कराई ?
नर्स थी ,पांच गांव लाता -ले जाता था।
मने ,ड्राइवर थे ?
नहीं , उसको साथ ले जाता था ,साथ लाता था ! वो बेकार औरत है।
कैसे ?
केरल की साथी नर्सों से बात करती थी।
अच्छा ,और…?
हंसती थी , सबके साथ बात करती थी !
ओह्ह !
वही समझाता था कि चुपचाप काम करो और घर आ जाओ ! दुनिया खराब है मैडम।
हम्म ,सो तो है पर आप अच्छे हैं  ?
वो बदचलन है !
आपने उसकी बदचलनी पकड़ी ?
नहीं ,मैं साथ रहता था ना , कैसे करती।
हम्म !
पर वो बेकार है।
अच्छा , तो अब क्या चाहिए ?
बच्चा और गहने।
क्या करोगे दोनों का ?
वो तो नाते जायेगी तो उसके पास तो और आ जायेंगे।
और बच्चा क्यों चाहिए ?
बुढ़ापे का सहारा चाहिए।
उसको भी तो चाहिए?
वो बेकार औरत है।
बच्चा कितने साल का है ?
8 साल का है।
15 साल बाद उसने या उसकी बहू ने आपके साथ रहने से मना कर दिया तो दूसरा मुकदमा फिर लड़ना पड़ेगा ?
ऐसा नहीं होगा।
कैसे पता ?
देख के लाऊंगा !
अभी नहीं देखा था ?
देखा था....... पर वो बेकार थी !!!

मैं अब चुप थी।  देख रही थी कि औरत के चरित्र को तराजू लेकर तोलने का ठेका क्या सब कोख से  ले कर आये हैं ! उसकी साँस -सांस पर पहरेदारी पर भी वही बदचलन।  जिस दिन पति के साथ नहीं रहने या किसी और के साथ संबंध रखने का निर्णय ले लिया तो समाज पर पहाड़ टूट पड़ेगा।

न  कोख उसकी न देह उसकी !

सूचना का अधिकार आपको सूचना का वैधानिक हकदार  बना रहा है ! आईये , वर्तमान तो आपका है ही ,भूत और भविष्य भी आपको सौंप दे रहे हैं ........

वाह री नियति ? जन्नत सी कोख के साथ पहाड़ सी लज्जा काहे दे दी ?

प्रश्नों का अंतहीन सिलसिला है। बेमियादी सज़ा सी जिंदगी बना देता है ये समाज …… गाना याद आ गया " ओ री कठपुतली गोरी कौन संग बांधी डोर ....... "

ये पर्दा भी गिरेगा किसी रोज जब अंगना से चिरइया फुर्र हो जाएगी ....... सफर कब थमता है ! कभी इस खूंटे कभी उस खूंटे !

रवायतों ने खुशियों पर पहरेदार बिठा रखे हैं …मन पाखी साथी ढूंढता है ,समाज चौकीदार ढूंढ के देता है ! अजब नज़ारे देखें हैं मेरी आवारगी ने !

आप भी देखिये ,और सोचिये कि आपके आसपास कितने चौकीदार हैं ! हम चलते हैं ……











Tuesday 13 October 2015

प्रशंसक किसी के न बनिए वरना कुछ समय के लिए सही छाती जरूर कूटेंगे !

घोर गंवई से लेकर तथाकथित संभ्रांतों तक के बीच से गुज़र आयी हूँ।  जिंदगी का फलसफा सुलझने की जगह उलझता ही जा रहा है।  बचपन पिताजी के खादी के संस्कारों और साहित्य के आदर्शों के बीच बीता ,बड़े हुए तो राजस्थान यूनिवर्सिटी के गलियारों में कुछ बेहतरीन  प्रोफेसरों से पाला पड़ गया …… वहां से निकले तो असल जिंदगी के थपेड़े इतने लगे कि आज तक कोई नतीजे पर नहीं पहुंच पायी कि सच आखिर था क्या? क्या है ? वो लोग कौनसी दुनिया की बातें करते थे ? वो कौनसी दुनिया में रहते थे ?

इस दुनिया में तो सब बकलोली है। कहे कि कन्फूजन इतना समंदर गहरा हो जितना। पिछले कुछ दिनों के तमामतर अनुभवों ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि जितना कुछ सीखा -पढ़ा है वो सब नये युग के ज्ञान के आगे व्यर्थ है। जो दिख रहा है वो हो नहीं रहा, जो हो रहा है वो दिख नहीं रहा , होने का भरम है।  

सत्ता की जादूगरी देखी ,नेताओं की दलाली देखी ,नैतिकता की कालाबाज़ारी देखी। वर्षों से छायी राजनैतिक उदासीनता को एक नई हवा ने खत्म किया था , लगा कि फिर से नया जीवन मिला है। दूध का उबाल सा चढ़ता है मन , कौतूहल वाला बचपन अभी भी भीतर बसा है। नया आंदोलन ,नया सफर ,नए चेहरे ,आदर्शों -नैतिकताओं और संकल्पों के सिलसिले। 

ये दौर भी एक प्रेम कहानी सा है जिसका अंत भी वही होना है जो अमूमन हर प्रेम कहानी का होता है …… तू तेरे खुश- मैं मेरे खुश  ! इस पूरी यात्रा में कितने ही चेहरे -मोहरे मिले। पटकथा लिखने वाले देखे ,अभिनय करने वाले देखे। 

मैं खुश हूँ कि मुझे एक नेता जी मिले …… उन नेता जी के कारण कुछ दरबारी मिले और उन दरबारियों के कारण नगरकोट के पटेल जी का यथार्थ देखने को मिला। 
भला हुआ जो एक हवा ने इस आँचल को उड़ा दिया , सब नंगे हैं।  सब छिपा रहे हैं ,सब दिखा रहे हैं। ये "होने " का भरम सबको ले डूबेगा , वही डुबोता आया है।  पर डूब भी गए तो भी क्या ? इतने पहले भी डूबे हैं। 

ये सत्ता की पाल है।  मांझी पे भरोसा कर नाव पर सवार होते हैं ,ये दरिया की रफ़्तार और मांझी की किस्मत -कौशल है जो पार लगाये या बीच धारे में डुबो दे ! 

मैं डूबी तो भी तर जाऊँगी मैं पार हुई तो भी तर जाऊँगी वो इसलिए क्यूंकि जो देखा बहुत देखा ,अच्छा हुआ जो जल्द खत्म हुआ और किनारे लगी तो मेरी दुनिया मेरे मांझी को दुआएं देगी। 

सो , जो हो सो हो और जो ना हो तो न हो ....... मैं मेरी आवारगी के साथ जहाँ रहूँ वहां खुश ही रहूंगी ....... झील ,जंगल ,नदी -पहाड़ ,दरिया और पंछी........ हर झूठ के बाद बस वही सच मजबूत हो जाता है ! मेरी आवारगी अब इन खूबसूरत पखडंडियों पर बढ़ चली है... नकाबपोश दुनिया के बीच की ये दुनिया मेरे ख्वाबों की दुनिया है ! चली जा रही हूँ उसी की ओर .... 

आप भी चलते रहिये -- हाँ , प्रशंसक किसी के न बनिए वरना कुछ समय के लिए सही छाती जरूर कूटेंगे !

Monday 12 October 2015

…प्रमाण करम पे धरा है ले जाओ !

बहुरूपिये देखे हैं क्या ?? स्वांग धरने वाले ……मुखौटे लगा के या चौखटे को पोत के दूसरा चौखटा लगा लेने वाले ....... जरूर देखें होंगे ! दिन भर आजू बाजू सब तरफ मिल जाएंगे।

एक नेता जी हैं …… सुने थे बहुत बड़े समाजसेवी हैं ,आदर्शों के पैरोकार हैं और परहित में डंडा-लाठी सब खा सकने को तैयार हैं ………अच्छा लगा , जी भर के आदर किया …सम्मान इतना की सोच लिए कि दुनिया में इतनी महानता किसी और में होना बहुत मुश्किल होता होगा। 

सादगी और शब्दजाल का खेला जिंदगी को झंड बना देता है , ये बात जब समझ आती है जब आप स्वांग का असल अर्थ समझ जाएँ। 

नेता जी की भारी भरकम फ़ौज ,फ़ौज में ढेरमढेर सिपहैया ,  सिपहैयों के सिपहसालार........पहले हम सोचे ये नेता जी का परिवार है , स्वांग समझे तो समझ आया कि ई तो असल दरबार था....... सब नौटंकी के किरदार। 

लाईन लगी थी 

" साहिब लाइन टूटी है , बस चलवा दो , सड़क बनवा दो , डाक्टर नहीं आता......... " 

कितने आदमी हो ,कितना काम करते हो ,कब करते हो ,फलाने को दे दो - ढिकने को बुलवा लो " नेता जी मुस्कान चिपकाए समाधान परोस रहे थे ....... हमने सोचा क्या गज़ब अलादीन का जिन्न है इनकी जेब में…… चुटकी बजी नहीं कि काम हुआ नहीं। 

नेता जी का व्यक्तिव इतना सौम्य इतना धीर-गंभीर कि मनो उनके मन का चोर ख़ुदकुशी करके मरा हो। न भीतर का बाहर आ सके न बाहर का भीतर जा सके।  मुलम्मा नौटंकी की जान होती है , जब ये समझे तब जाना कि चोर तो डकैत बना बैठा है। 

सिपहिया सब आगे -पीछे नाचत रहे। रेवड़ी बंटी तो नेताजी के  दाहिने हाथ को और जलेबी बंटी तो नेताजी के बांये हाथ को…… 

हम भी खुश थे अपनापा पहली बार देखे सो सोचे कि भगवान जी गढ़ के भेजे हैं ये दरबार जनता की सेवा में। 

एक रोज मोहल्ले की एक औरत मर गयी ,नेता जी को खबर की। नेता जी के सिपहिया माइक ढूढ़ लाये , फोटू तो केमरा उतार ही ले है सो नेता जी जमीन पर बैठ गए। ……सिपहिया फोटू ट्वीटे नहीं कि सब सेना लगी स्यापा करने ....... नेता जी बोले " मरने वाली मां थी ,बहन थी ,बेटी थी ……मेरा अपना चला गया !"  नेता जी का दुःख देख कलेजा मुहं को आगया !

नेता जी लौट गए -- अगले दिन किसी ने खबर की कि कोई लड़की के साथ बुरा काम किया है।  नेता जी कन्फूज़ थे ,पहले क्लीयर करना जरूरी था कहीं नाम उनका तो नहीं था ? कहीं दरबार में से तो किसी का नहीं था ? कहीं किसी राजदार का तो नहीं था ? ..... सिपहिया दौड़े लड़की मुई ज़िंदा थी !

" नहीं !! ये सब झूठ है ,मामला आपस का है , हम केवल सामजिक मसले पर बात करते हैं।  लड़की जब तक जिन्दा है हम कुछ नहीं कर सकते। "

दरबारी खुश थे ,नेता जी खुद भी बच जाते हैं और हमको भी बचाये है …नेता जी जिंदाबाद। दिशाएं गूँज उठीं। 

हम भी ताली बजाते इसके पहले कोई एक किताब हाथ में धर गया ....... आँख नेता जी की संवेदनशीलता से गीली थी।  कुछ पढ़ते इसके पहले ही कोई हाथ में चार फोटू और एक सीडी पकड़ा गया  .......... 

हम धम से जमीन पर कभी फोटू देखते कभी नेता जी को देखते……… प्रमाण करम पे धरा है ले  जाओ !

उस दिन का दिन और आज का दिन जब भी नेता जी को देखते हैं स्वांग के सारे किरदार आँख से गुज़र जाते हैं !

आज की बात नेता जी के स्वांग पर कल दरबार के स्वांग पर………


Wednesday 7 October 2015

पति से प्रेम सिद्ध करने के लिए भाई को राखी ही तो नहीं बांधी........

सामने की बर्थ पर जो कुछ चल रहा था उससे समझ आ रहा था कि ये बुजुर्ग महिला उस व्यक्ति की माँ हैं जो कहीं अकेले सफर पर निकली हैं ! बेटे का साथ इतना ही था …… सामान सब जमा दिया , टिकिट दो बार सम्भलवा दिया ,पानी की बोतल ला के दे दी , पहुंच के फोन कर देना ....... ! ट्रेन  रवाना हो गयी , माँ को ख़्याल आया कुछ छूट गया…… फोन मिलाया कि सुनने वाली मशीन शायद बिस्तर पर ही रह गयी है ,झाड़ू में ना चली जाए -जरा संभाल लेना !

हमारे बीच मुस्कुराहटों का आदान -प्रदान जारी था। बात इसलिए नहीं की क्यूंकि ये समझ आ गया था कि मशीन के बिना इनको सुनने में तकलीफ होगी और मेरे तेज बोलने से साथ सफर करने वालों को।

अखबार पढ़ के रखा तो कुछ झिझकते हुए उन्होंने पूछा कि क्या वो देख सकती हैं ,मैंने सहजता से उनकी और कुछ हैरानी से अखबार बढ़ा दिया ,ये सोचते हुए कि ये इसमें क्या पढ़ना चाह रही होंगी।  खबरों से खुद के मोहभंग के चलते आजकल अखबार पढ़ते और न्यूज़ सुनने वाले को हैरानी से देखने की लत लगी है………सब कचरा है !

वे शायद आधे घंटे तक हर पन्ने को उल्ट-पलट कर देखती रहीं  फिर अखबार बंद कर बर्थ पर आँख बंद कर लेट गयीं ! सच है , थकना स्वभाविक है ……अब खबरें थकाने वाली ही होती हैं ,बोझिल और उबाऊ ! मैं उनके चेहरे को पढ़ती रही। …… झुर्रीदार चेहरे पर उम्र ने कहानी लिख दी थी। वे बीच -बीच में उठती और एक नज़र अपने सामान पर डाल रही थीं , नज़र मिली  तो मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि आप सो लें..........

ट्रेन  का ये मज़ा बस में नहीं आता और ट्रेन  में भी रिश्तों की गर्मी केवल स्लीपर और जनरल बोगी में ही होती है AC में सब ठंडा रहता है .......  मुझे स्लीपर ही पसंद आता है।

जयपुर आने वाला था ,मुझे लगा कि उनको शायद जयपुर ही उतरना होगा, सो जगाया ! मैं गलत थी उनको अभी और 4 घंटे का सफर करना था …… अजमेर तक का !

"आप अजमेर रहती हैं , मैंने पूछ ही लिया
नहीं ,भाई के पास जा रही हूँ …… 35 साल बाद जा रही हूँ…… !
35 साल बाद भाई के पास ? मैं हैरान थी
भाई बाहर रहते हैं ? दूसरा प्रश्न भी कर डाला।
नहीं ,अजमेर में ही रहते हैं !
फिर ?

अब मेरे पति गुज़र गए हैं और पिछले साल में मैं तीन महीने कोमा से गुज़र आयी हूँ ,तो मन कह रहा था कि एक राखी तो अपने हाथ से भाई को बाँध के आ जाऊं , सो जा रही हूँ।
बच्चों ने बहुत मना किया कि क्या करोगी इस उम्र में इतना लम्बा सफर नहीं कर पाओगी ,मैंने भी कह दिया कि मर जाने के अलावा और क्या होगा इसलिये जा रही हूँ !

रेलवे में थे पति , स्वभाव गुस्से वाला था ! पीहर से नाराज़गी थी ,सो गृहस्थी में शांति बनी रहे इसलिए चुप से 50 साल से ज्यादा ही गुजार दिए पर अब वो नहीं है और मरने में दिन भी कितने बचे हैं …… राखी तो बाँध लूँ !

मैं निःशब्द थी ! अपलक उनको देख रही थी..........कहने को था भी क्या ? शब्द सब जम गए थे।

जयपुर स्टेशन पर ट्रेन पहुंच चुकी थी ! प्रणाम कर नीचे तो उतर  गयी पर मन के किसी कोने में वो दो ऑंखें आज भी अटकी हैं जो कह रही थीं कि पति से प्रेम सिद्ध करने के लिए भाई को राखी ही तो नहीं बांधी , भाई से प्रेम तो तब भी कम न हुआ !

मन में प्रश्न आ रहा था कि ये पति के जिन्दा रहते भी सोचती होंगीं कि पति के मरने के बाद कोई राखी तो बाँध पाऊँगी या बिना बांधे ही जाना होगा !! मृत्यु का इंतज़ार !!

उफ्फ्फ..........  रिश्तों का ये कैसा सच है ! कैसे सब अपने -अपने अहंम की चादर ताने सोते हैं कि जीवनसाथी नाम भर का साथी रह जाता है। एकदूसरे की खुशियों से अनजान -एक दूसरे के दुःख से अनजान किसी तीसरे से नाराज़गी की सजा अपने उस साथी को दे देते हैं जो अपना नाम तक दहलीज के उस पार छोड़ आता है !


भरम है रिश्ते.................   रिश्तों का सब मायाजाल ! फंसे रहिये -उलझे रहिये -ढोते -निभाते -मुस्कुराते - ईमानदार लम्हों को चुराते -बसाते रहिये ! ढलती शामों में मुस्कुराने के लिए संजों के रखिये !

हम सब सफर पर हैं …… एक ही किश्ती में सवार ,वक्त सबका आएगा ,सीखते रहिये -समझते रहिये ! रिश्तों की गिरह खोल दीजिये क्या पता आपका ही कौन अपना आपकी मृत्यु की प्रतीक्षा में हो !

Tuesday 6 October 2015

एक सीढ़ी है मेरे और उस चाँद के बीच ....... मानो एक डील है !

कितना खूबसूरत ,हैरान कर देने वाला सफ़र है ये। मैं और मेरी आवारगी अक्सर ये बातें करते हैं कि ये न होता तो वो न होता और वो न होता तो ये न होता। कौतूहलों का पिटारा सा खुला पड़ा है हर तरफ ....... चाक -चौबंद चेहरे और संशय ओढ़े अनगिनत जिस्म गुज़रते रहते हैं।  नतीजे तक पहुंचने से पहले सवालों की किताब खुल जाती है कभी सवाल पूछने से पहले जवाबों का सिलसिला बन जाता है।

एक सीढ़ी है मेरे और उस चाँद के बीच ....... मानो एक डील है ! न वो मेरी सुनता है न मैं उसकी सुनती हूँ , वो रात में कहानी सुनाता है मैं दिन में बतिया लेती हूँ ,वो रोशनाई से छलता है मैं परछाई बन साथ चलती हूँ ....... हम दोनों अलग है पर मैं न ढलूँ तो वो निकले नहीं ,मैं रोशनी न दूँ तो वो छले नहीं …… वो किस्से सब समेट ख्वाब बन मेरी नींद में उतर आता है ,मैं उजालों में छिपा उसे  समंदर को चढ़ाने का हौसला देती हूँ ....... साथ भी दूर भी पास भी और नहीं भी .......... गुन -गुन - छम -छम सा सफर है ये ……… !

ख्वाहिशों की गुज़र से गुज़र रही हूँ , पीठ पर रवायतों का बोझ है। किसी नामालूम से पते की तलाश है। अपने ही भीतर का एक संसार है जो समंदर सा बाहर भी हिलोरे खाता है ....... खारा पानी ! मुझे समंदर पसंद नहीं - कितना शोर करता है !! झूठ बोलता है , जो लिखती हूँ उसे मिटा जाता है। भिगोता और लौट जाता है ....... मैं दरिया हो जाना चाहती हूँ ……जंगल और पहाड़ों के बीच बहती सी !

जब नींद नहीं आ रही हो तो सफर कुछ और लम्बा हो जाता है और आसपास फैले सन्नाटे की चादर की सिलवटें कहानियां सुनाने लगती हैं। खिड़की से बाहर साथ चलता ये चाँद सफर के अनगिनित लम्हों का हमराज है ,ये अब भी वैसे ही मुस्कुरा रहा है जैसे तब मुस्कुराता था ! छलिया चाँद।

मैं सितारों से उजाले बुन रही हूँ , सुबह होने को है ! चाँद भी उतर जाएगा पर …… सफर में चहचहाना कब मना है !

आप भी चलते रहिये - गुनगुनाते रहिये ! क्या चाँद क्या सितारे दिन के उजालों में हथेलियां सब खाली हैं !


Friday 2 October 2015

ईमानदारी और आदर्शों के भरम तो यहाँ टूटेंगे ही आदर्शों का तिलिस्म भी स्वाह होना ही है ।

दो महीने पहले, पहला ब्लॉग लिखा था जब लिखा था तब सोचा नहीं था कि ये ब्लॉग मुझे जिंदगी की कितनी और हकीकतों से रूबरु करवाएगा…हमेशा वही लिखती रही जो दिल कहता रहा ! क्या ,क्यों ,कैसे ,किसलिए , किसके लिये ,कब तक ,कहाँ तक ,बिना कुछ सोचे ,बिना कुछ समझे लिख रही थी ! जैसा था ,जैसा है सब वैसा ही लिख भर दिया …… तब ख्याल भी नहीं आया कि जैसा दिख रहा है ,जैसा लग रहा है वैसा कल नहीं दिखेगा। जब सब कुछ बदल रहा है तो उस सबका भी बदलना लाजमी है। ………चाँद भी कल रात जैसी बात नहीं करता ,अब ना दोपहर किसी शाम का इंतज़ार करती है !

बहुत कुछ घट गया बहुत कुछ भर गया........ 

ब्लॉग और ट्विटर से बचे दिन के चंद घंटे कॉलेज में नये सपनों वाली पीढ़ी के साथ गुज़रते हैं। करीब से देख रही हूँ ,करीब से गुज़री हूँ एहसासों ,हादसों और सपनों की उड़ान वाली मेट्रो की ट्रैक के साथ दौड़ी भी हूँ …… 

राजनीति में युवाओं की भागीदारी पर सैंकड़ों सेमीनार -चर्चाएं की ,वाद-विवाद देखे पर इन दो सालों और इन ख़ास दो महीनों में जो देखा उसने ये  समझा दिया कि जो देखा वो कम देखा ,कुछ नहीं देखा। 

आदर्शों और ईमानदारी की दुहाई देने वाले नेताओं की बेगैरत तस्वीरें -तहरीरें देखीं , युवाओं के जोश -जज्बे पर राजनैतिक गोटियां चलते देखीं ! ऐसे युवा मिले जो अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ एक विचारधारा में ऐसे डूबे कि जब होश आया तब तक किनारे भी साथ छोड़ चुके थे ....... इंजीनियरिंग में बैक लगवा लेना ,सिर्फ इसलिए कि कोई आदर्शवादी विचारधारा के समर्थन के लिए जमीन तैयार करनी है , लाठी -डंडे खाने हैं ,माँ -बाप के ताने और परिवार से नालायकी का तमगा पहनना है…… हद है ! 

ऐसी लड़कियां मिलीं जो रात -दिन पढ़ाई के साथ सोशल मीडिया और जिनसे बन पड़ा ग्राउंड पर राजनैतिक -सामाजिक आन्दोलनों का हिस्सा बनी रही ! गाली खाईं , दुश्चरित्रा कहलाई , समाज और परिवार के ताने सुने, भावनात्मक -शारीरिक शोषण का शिकार बनी पर डटी रहीं ! ट्विटर पर राजनैतिक मंच पर महिलाएं कम हैं और अच्छा भी है कि कम हैं ....... ये वो गंद है जहाँ कितने भी साफ़ रहने का प्रयास कीजिएगा छींटे लगना तय है। 

ईमानदारी और आदर्शों के भरम तो यहाँ टूटेंगे ही आदर्शों का तिलिस्म भी स्वाह होना ही हैं । 

जिन आदर्शों के लिए दिन -रात बकझक करते हैं ,लाठी -डंडे खाते हैं उसकी स्क्रिप्ट बंद कमरों में चार लोग लिखते हैं - जहाँ से वो इनके डीएम में ,व्हाट्सप्प पर ,फेसबुक पर से गुज़रती हुई इनकी जिंदगी में कब दाखिल हो जाती है ,इन्हें पता ही नहीं चलता ! कुछ ने इनको सीढ़ी बना लिया ,कुछ ने उनको सीढ़ी चुन लिया…… भावनाओं की आड़ में शार्टकट का खेल  कमाल बाजीगरी का है। 

वो जिनको इनसे नाम -पद -सत्ता मिल जाती है वे जल्दी ही अपने गुलामों की सेना तैयार करने में जुट जाते हैं ताकि उनकी सत्ता को चुनौती न मिले और उनके तमाम काले कारनामे इन युवाओं की मूर्खताओं की आड़ में छुपाये जाते रहे। 

अंततः ये युवा दरसल हलाली के बकरे -बकरियां सिद्ध कर दिए जाते है और योजनाबद्ध व्यवस्था से इतिहास में गुम कर दिए जाते हैं 

दूध का उफान है ,चढ़ता है तो उतर भी जाता है पर उतरने की कीमत में किसी का मकान बिक गया , किसी का जेवर बिक गया तो किसी का जमीर बिक गया। 

सबने खोया …… चाँद किसके हिस्से आया ? इस सवाल का जवाब तो वही दे सकते हैं जो रात फिर उसी फुटपाथ से गुज़रते हुये उस दीवार को देखते हैं जिस पर कभी पोस्टर चिपकाते हाथ अघाते ना थे। 

सबके साथ का ये सफर कभी अंधेरों से कभी उजालों से कभी सपाट मैदानों से होकर गुजर रहा है....... 

बहुत कुछ सुन रही हूँ , बताने को बहुत कुछ है आप पढ़ते रहिएगा , ये जिंदगी है बस उदास न होना ……