जिन्दा भी रहो और जमीर भी बचा रहे, ये सीखना हो तो कोई अरविन्द और रवीश से सीखे ..........

अन्ना -अन्ना -अन्ना ....... टीवी की चकर बकर जब इस नाम पर आकर टिकी और खबर में एक बूढा आदमी क्रांति के मूड में दिखा तो  मेरा  भी क्रांतिकारी मन डोला कि चलो साथ हो लेते हैं .......... दिल्ली से दूर हैं रवीश दिल के नज़दीक सो रवीश के बहाने से ट्वीटर और फिर ट्वीटर से अन्ना और अन्ना से केजरीवाल.......

अन्ना कब दूर हो गए केजरीवाल कब करीब आ गया पता ही नहीं चला ! 

न कभी किसी आंदोलन में मैंने तख्ती -पर्ची उठायी न कभी किसी किसी दल की सदस्य ही बनी लेकिन अरविन्द से जुड़ाव इन अनुष्ठानों से परे है ....... मेरे लिए अरविन्द न किसी राजनैतिक दल के नेता है न कहीं किसी पद पर बैठा कोई इंसान। 

जैसे हर कोई रवीश नहीं हो सकता उसी तरह हर कोई अरविन्द भी नहीं हो सकता ....... ये बात अब समझ में आ रही है कि "जाको कछु ना चाहिए वा ही शहंशाह " ! अरविन्द और रवीश उन शेरों की तरह हैं जिनका इस्तेमाल हम जब करते हैं जब हमारे पास अपनी बात को कहने के लिए बेहतरीन लफ्ज चाहिए होते हैं....... दोनों ही मौका भी हैं दस्तूर भी। 

दोनों ने मेरी जिंदगी बदल दी है। इनका होना मुझे हौसला देता है कि मैं कह सकती हूँ ,कहना मेरा हक है ....... मुझे अपनी गलतियों की सार्वजनिक क्षमा याचना में तनिक भय या शर्मिंदगी नहीं होती न इस बात से डर लगता है कि सामने वाले का पद क्या है , उसकी सत्ता क्या है। डर पहले भी नहीं था पर तब सामने कोई ऐसा भी नहीं था जो हर रोज़ कहता हो " चलते रहिये "....... 

केजरीवाल जब वाराणसी में हारे बुरा लगा लेकिन उस बुरा लगने ने ऐसा पाठ पढ़ा दिया कि शिकस्त को जीत में बदलने का गुरु मंत्र मिल गया।  14 फ़रवरी को मेरा जन्मदिन और अरविन्द का दिल्ली में शपथ ग्रहण ---- मेरे जन्मदिन का ईश्वर का भेजा तोहफा था ! उस दिन मुझे जो भी मिला सब नियति का विधान था , जिसने मेरी जिंदगी की दिशा बदलनी ही थी। 

अरविन्द के राजनैतिक निर्णय मेरे लिए असहमति का कारण भी बने लेकिन फिर लगा कि शेरों के बाड़े में मेमना बन के रहेगा तो कैसे जिन्दा रहेगा सो ठीक है जिनको जो भाषा समझ आये वही सही। बहुतों ने कहा कि फिर फर्क क्या रहा औरों  में और अरविन्द में तो मैंने कहा कि यही कि अरविन्द शिकार नहीं कर रहा शिकार होने से बच रहा है और बचा रहा है। ……… इतना साहस भी क्या कम है , इतनी नैतिकता भी नमन योग्य है। 

पूरी मीडिया कॉर्पोर्टेस के हाथों नाच रही है - रवीश कैसे बचे हुए हैं ,वे हर रोज अपने वज़ूद के लिए कितना संघर्ष कर रहे होंगे ,सोचने भर में मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।  

माँ प्रोफेसर थी पिता पत्रकार भी थे सो राजनीति और पत्रकारिता के घालमेल को करीब से जाना है और जिया है ! महसूस कर सकती हूँ कि कितना मुश्किल होता है धारा के विरुद्ध बहना और खुद को जिलाये रखना !

जिन्दा भी रहो और जमीर भी बचा रहे, ये सीखना हो तो कोई अरविन्द और रवीश से सीखे ......... मैं ये नहीं कह रही कि ऐसा कोई और नहीं है ,जरूर होंगे ,नहीं होते तो दुनिया में जो कुछ खूबसूरत कहने को बचा है वो भी शायद नहीं होता। 

शुक्रिया अरविन्द --- शुक्रिया रवीश ...... मैं जब भी कमजोर पड़ती हूँ तुम फिर खड़ा कर देते हो और मैं फिर एक बार अपनी आवारगी के सफर पर नए संकल्पों के साथ परिचित  मुस्कुराहटों और खामोश ख्वाबों को गुनगुनाने लगती  हूँ !

2 comments:

  1. wow !!!! tarif-e-kabil..... mere dil ki baat likh di aapne toh.. shayad mein kabhi aise lafz na de pata apni baat kahne mein.... Great!

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