Sunday 4 December 2016

जाड़ों की शाम है

जाड़ों की शाम है
धूप का सिमटना
दिन का सिकुड़ना
रात का फैलना
अदरखी चाय में
तीखी हवा
तुम्हारी बातों
गुलाबी शरारतों का
घुलना और जम जाना
नम होना
आंखों के कोरों का
कोई जाड़ा याद आना
तुम्हारी वार्डरोब हो जाना
बर्फ संग
तुम्हारा खेलना
मुझे लंबे से खत भेजना
अब सब
जाड़ो की शाम है
वही एक मौसम
वही एल्पस
वही ठंड
इस छोर से उस छोर तक
बची रह गयी
केवल जाडों की शाम
वही एक शाम....



तुम मेरी शाम हो ,जंगल वाली शाम !

जंगल में शाम का ढलना अजीब अजीब सा शोर पैदा कर देता है। इस डूबने का अपना मजा है और इस शोर में भीतर की खामोशी को तोड़ने का हुनर है ...... एक साथ इतनी आवाजें कि पहचान ही न सको कि कौनसी भीतर की है और कौनसी बाहर की ! कुछ दरकने की, कुछ संवरने की ,कुछ सुनी - कुछ अनसुनी सी। परिंदे घर लौट रहे हैं , अपनी-अपनी शाख को पहचान रहे हैं ,अपने नीड़ के लिए सामान ला रहे हैं ,कुछ सपने बुन रहे हैं और कुछ थक के जो भी भी मिला, उसी में गुनगुना रहे हैं।

दूर धुआं उठ रहा है , चूल्हा जला होगा। कोई वहां भी लौटा होगा ....... झील ने सूरज में हाथ डुबो दिए और उसको अपनी रोशनी दी है...... पानी पर लौ तैर रही है। उधर क्षितिज पर एक तारा है.....  बुलाने आया है औरों को भी ,आ जाओ ,खेलने का समय हो गया है। सही भी है ना ,लकड़ियां बीनती औरत को घर लौटने का इशारा करना भी तो उसी का काम है। वही बताएगा कि और संगी आ जायें , उसके पहले लौट जाओ।  वही रास्ते भर उनका ख्याल रखेंगे और उनको उनके घर लौटने तक पगडंडी की आवाज़ को भी जिलाये रखेंगे। 

शाम कहीं भी हो ,जंगल में हो या कम्प्यूटर के सामने बन्द कमरे में ...... अपने साथ एक एहसास लाती है। भूख जगने लगती है। भूख, उन ख्वाबों की जो दिन देखता है और भूख उन ख्वाहिशों की जो कैलेंडर सी दीवार पर टंगीं है .......

कितनी ही शामें गुजर गयीं , सालों में तब्दील होती चली गयीं और मैं उन्हें लम्हों की तलाश में शाम से सुबह ,सुबह से फिर शाम में बदलती चली गयी। मुझे शामों ने सिखाया है कि कोई भी शाम वैसी नहीं होती जैसी कल थी ,जैसी अब है और ये भी कि मैं कल भी वैसी ही थी और आज भी वैसी ही हूं जैसी कल थी। उसमें और मुझमें इतना सा रिश्ता है कि मैं उसके साथ उतनी सी बदलती हूं, जितना कि सूरज के ढलने और उगने का भरम होता है। कोई सोता है तो मान लेता है कि सूरज डूब गया ,कोई जाग गया तो मान लेता है कि उग गया। 

शामें इसी दुविधा का नाम हैं ! क्या मानूं ? अब जो भी हैं अजीज़ हैं मुझे ,जंगल की इस शाम जैसी !

सुनो ,तुम मेरे कितना करीब हो आज भी। बिलकुल इस शाम जितना ...... मेरे ख्वाब ,मेरी ख्वाहिशें सब तुमसे वाबस्ता हैं। इतना सा करम रखना बस ......तुम भी मेरे हिस्से के सितारे बस मेरे ही रखना ...... हर रात मेरे ही आंचल में उंडेलने के लिए , हर रात चांद मेरे ही सिराहने हो...... मैं वैसे ही लौटती रहूं तुममें !

तुम मेरी शाम हो ,जंगल वाली शाम ! मुझमें बसे रहना..... ताल किनारे चाँद के डूबने तक !








Friday 2 December 2016

जंगल और ताल ..... गजब का पागलपन है मुझमें !

जंगल में हूँ। उम्मीदों का जंगल ,ख्वाहिशों का जंगल , अमरबेल से लिपटे ख्वाब ,पेड़ दर पेड़ -झाडी दर झाडी...... ये पगडंडी किसी के कदमों से बनी है पर नहीं पता कि किस ओर ले जा रही है। ऐसे रास्तों को भी चुन लेना चाहिये जो किसी नामालूम सी जगह पर ले जाएँ , जिसका पता सिर्फ और सिर्फ आपको ही पता हो। पैरों के नीचे सूखे पत्तों की चरमर और बदन को छूकर गुजरती दिसम्बर की हवा ...... जंगल में और क्या चाहिए !

तालाब को झुक कर चूमते पेड़ और उनपर इठलाती सुनहरे पंखों वाली तितलियां..... एक और बार -एक और बार के स्पर्श के आनंद में डूबे पाखी , छपाक से पानी पर उतरते हैं और फुर्र से उड़ जाते हैं। जो उसे नहीं छू पा रहे वो उसमें खुद को देख रहे हैं .... वो टुकड़ा गुजर रहा है न बादलों का , हां  वही जिसको देख महसूस होगा कि आसमान में हिरन भागा जा रहा है ! हां वही .....  ताल में कुलांचे भर रहा है।

कुछ उलझ गया झाड़ियों में , कदम ठिठके तो याद आया और मुस्कुरा दी ! ताल ....... मुझे मुक्त नहीं करेगा शायद ! शायद कभी नहीं .... करेगा भी कैसे ? अब मैं ही वो जंगल हूँ जो उस ताल के किनारे उग आयी हूँ और धीरे धीरे फैलती जा रही हूं , घनी और गहरी होती जा रही हूँ। मुझमें कितनी पगडंडियां बन गयी हैं ,कितने वजूद मेरे ही मुझमें लापता हो गए हैं।

मुझे अच्छा लगता है ,कभी ताल को पेड़ बन चूमना और कभी उसके इर्दगिर्द उग के जंगल हो जाना ! मेरी आवारगी ने मुझे उसके आसपास ही समेट दिया है..... हर एक सफर में उसके साथ सैंकड़ों सफर करती हूं। जिंदगी हर बार किसी फूलों से लदी डाल को मेरे रास्ते पर झटक देती है और मैं फिर से इश्क़ की खुशबू से लबरेज उसके इश्क़ में नंगे पैर दौड़ पड़ती हूं।

जंगल और ताल .....  गजब का पागलपन है मुझमें ! अब जो भी है इश्क़ में सब जायज है... जंगल हो जाना भी और ताल हो जाना भी !
आप भी इश्क़ में रहिये और खिलखलाते रहिये ! चलते रहिये !

शेष -

एक साथ
एक दर्द
वही राह
वही चाह

नहीं है तो -
मन

है भी तो -
जीवन

शेष -
सांसे
आंसू
आक्रोश
प्रश्न
प्रतीक्षा
मृत्यु 

ख्वाहिशों की लपट जिंदगी के दरिया होने का भरम जिलाये रखती है......

मरीचिका देखें हैं क्या कभी ? देखें होंगे ,वो जो तपती सड़क पर लपट सी , दरिया का भरम बनता है न ,वही ! जिंदगी वैसी ही लगती है कभी ...... दरिया ,लपट की दरिया ! अंतहीन प्रतीक्षा और अंतहीन प्यास.... निष्ठुर कहीं की ! छलना है और छल के आगे फिर प्रेम -वेदना का ताना बाना है। सांसों का ऐसा बुनघट कभी देखे हैं जिसमें जिस्म ही ढका हो और रूह उघड़ी हो ... हाँ ,ये वैसी ही है। इसके आरपार वो सब है जो दीखता नहीं लेकिन जनम -जनम से है ...... सांसें सफर करती हैं , कभी इसकी शक्ल में कभी उसकी शक्ल में !
कोई अधिकार नहीं, कोई प्रतिकार भी नहीं .... जो मेरा है ही नहीं उससे शिकायतों का व्यवहार भी नहीं .....जिंदगी से रिश्ते की ये शर्त भी मान ली है।

उंडेल दिया है खुद को उसी प्याले में ....... जहर हो या अमृत कौन जाने ! फर्क भी क्या पड़ता है अब ! निष्कर्षों का  दौर बीत चुका है। हर निष्कर्ष बेमानी निकला और मुझे ही मूर्ख साबित करके चला गया ....... नहीं पता ,जिंदगी क्या चाहती है ,क्या मन चाहता है !

बावरा है, सपने देखता है , बातें करता है , हंसता है और फिर खुद ही रो देता है ! अब ये सोचना भी अच्छा लगता है कि आप ठगे गए ...... ठग लिया, सांसों ने ठग लिया। न ठगे जाते तो सफर कैसे होता ? गठरी कांधे पर रखी है ,अब प्रतिवाद भी नहीं होता ! जी करता है.....खुद ही सौंप दूं "ले जा,अब ये भी ले जा " ........शेष कुछ न रहे ,कुछ मुझमें और कुछ उसमें भी न रहे जो कहता है कि ना दे !

इस सब खेले में एक ही सच है , वो इश्क़ है ! जो लम्हे चांदनी में घुल अमृत बन बरसे हैं बस उतना सा जीवन है ...... मन की डोर और सांसों के इस बुनघट के बीच उसका होना ही मेरा होना है। रात सी जिंदगी है और दिन उगते से गुम जाती है ! दिन सब ख़लिश में बीतता है और ख्वाहिशों की लपट जिंदगी के दरिया होने का भरम जिलाये रखती है। 

मुझे चाँद ही भाता है , भरम नहीं भरोसा देता है। उसकी मुस्कुराहटों से सांसे तर हुई जातीं हैं ,मन के किसी कोने में जिंदगी दमकती है और कहती है मैं मरीचिका नहीं हूँ ,दरिया हूँ , इश्क़ का दरिया..... बाँध लो मुझे , आओ मेरे करीब आओ !

मैं उतर रही हूं और अब दरिया के बीच में हूं ...... डूबी तो भी पार और उतरी तो भी पार !

चल मेरे मांझी ले चल अब जहां तेरा दिल कहे , नदी भी तेरी है और सांसे भी तेरी ! मेरा होना केवल भ्रम है।

Tuesday 29 November 2016

नोटबंदी "आईटम" है ! नचाइये -गम भूल जाइये !

आगे कुछ भी लिखने से पहले बता दूं कि मुझे नहीं पता की नोटबंदी से किसी को क्या फायदा होगा और किसी को क्या नुकसान , ना ही मुझे इसका अर्थशास्त्र पता है ना ही मैं नीति की ज्ञाता ! इस शोर से बस इतना समझ पायी हूं कि ये भी राष्ट्रभक्ति  का कोई  "आईटम"  है जो देश के सामने उसके दुःख दर्दों को भुलाने में एनेस्थीसिया का असर करेगा |

ऐसा होता आया है ,पिछले तमाम अनुभव बताते हैं कि जब- जब समाज जीवन के बुनियादी प्रश्नों पर सत्ता को घेरता है, तब तब सत्ता पर काबिज चन्द रसूखदार उन प्रश्नों को चट कर जाने के लिए अपनी सेना सड़कों पर उतार देते हैं।

संघर्ष के जिस दौर से ये नेता बनते हैं ,उसी संघर्ष का ऑमलेट बना देते हैं। संघर्ष का वो दौर इनको वो सब हथियार चलाना सिखा देता है, जिसे हम आप अनैतिक और अमान्य करार देते रहे हैं।

नोटबंदी भी ऐसा ही "आईटम" बन के सामने आया है , जिसे गली- गली इन्हीं कम्पनियों की बदौलत नचाया जा रहा है | इस "आईटम"  को नोट में तब्दील करने के लिए मीडिया की  टीआरपी से लेकर तमाम टेलीकम्युनिकेशन कम्पनियों के जरिये उगाही हो रही है |

आप बताएं कि इस "आईटम"  का डांस कैसा लगा ? पसन्द आया तो एक दबाएं  और दूसरा गाने पे नचाना है तो दो दबाएं , जैसे विकल्प देकर एक सर्वे करवाया गया है।

अब बताइये जब आप ने उस एप्प को बनवाया तो उसको क्या सफेद में पैसा दिया , दिया तो क्यों दिया ? फिर जब आपने उसे डाउनलोड किया तो नेट का बिल भरा , क्यों भरा ? नाच देखने के लिए ही ना ! वो पैसा सफेद का था जो काला होने चला गया और ये काला लिबास पहने वो नोटबंदी का "आईटम" आपसे भरपूर सीटी बजवायेगा |

मजदूर को दिहाड़ी नहीं मिली लेकिन "आईटम" उसके सामने है , शाम को रोटी नहीं मिली तो "आईटम"  उसके सामने है ! जिनको लगता है इस आईटम से देश सेवा कर रहे हैं , वे दरसल वे लोग हैं जो गणेश जी को दूध पिला कर उनके गली -गली घूमने में उनकी मदद कर चुके हैं। अब "आईटम" देख उस थकान को मिटायेंगे , कमीशन ले कर दिन भर लाइन में  खड़े होंगे , पौवा दाब सो जाएंगे !

देश के नाम पर धर्म ,संस्कृति के नाम पर गाय और अब भ्र्ष्टाचार के नाम पर इस "आईटम" का इस्तेमाल देखिये ,सराहिए और लपलपाइये। मौका ...मौका........ चुनाव नजदीक हैं , इसको भुना लीजिये ,इसको नचा लीजिये ताकि पब्लिक ये ना पूछे कि नौकरी नहीं मिली ,डिग्री फर्जी क्यों हैं , लोकपाल कहाँ गया , माल्या भागा  कैसे , घोटाले के मुजरिम कहाँ हैं , चन्दे का हिसाब कहां है , बेटी मेरी क्यों , सिपाही शहीद क्यों ?

इसी "आईटम"  के बीच नजीब का सवाल भी गुम गया ? मां भी एटीएम की कतार में लगी होगी और बहन बैंक गयी होगी !

आप भी भूल जाइये , नोटबंदी के आईटम का मजा लें और अपना श्रम और गाढ़ी मेहनत की कमाई को रूप बदल के लटके -झटके दिखाते देखें ! चुनाव आएं तो इस "आईटम" को वोट में बदलते देखें फिर सरकार और फिर "आईटम" बनते देंखे।

यही नोटतंत्र है- यही नोटबंदी है।

विपक्ष को ऐसा लगता है लेकिन आप इसके ईमानदार पक्ष को देखिये और भ्र्ष्टाचार मुक्त भारत की सुंदर तस्वीर के लिए अपने घर का कौना-कोना तैयार कर लीजिये ! आखिर जीत तो इस भरोसे की ही होगी। आशावादी बने रहना ही लोकतंत्र की जीत है।

Sunday 27 November 2016

जिंदगी तेरा समंदर होना मेरी आवारगी को भाने लगा है....

जिंदगी भी दिलचस्प है। पीछा छुड़ाओ तो दौड़ती आती है और उसके पीछे दौड़ो तो पीछे छोड़ जाती है। साया बन के चलती है पर साये सी ही बनी रखती है ! कभी सोचा ही नहीं ऐसे सवाल दे जाती है और कभी ऐसे जवाब दे जाती है जिन्हें मैंने कभी पूछा ही नहीं .......

वो ऐसे ही किसी सवाल सा है या जवाब है , नहीं पता पर वो जो भी है, साया बन लिपटा रहता है ... मेरे वजूद के साथ.......समंदर सा खामोश दिखने वाला उसका होना समंदर सा ही शोर करता है। एक पल में किनारों को तोड़ता चला आता है और मुझे बहा ले जाता है ..... दूसरे ही पल मैं फिर खुद को उसी किनारे पर खड़ा पाती हूँ। 

शाम जब सूरज पनाहों में आता है तो उसकी उलझने ,उसकी ख्वाहिशें परवान चढ़ने लगती हैं। चांद और उसके बीच की दूरी का हिसाब लगाने लहरें उफ़ान पे आ जाती हैं ...... पूनम से अमावस तक और फिर अमावस से पूनम तक यही खेला चलता रहता है। न चाँद समंदर का न समंदर चाँद तक की दूरी को माप पाता है। बची रहती तो जिद......... खलिश जो जाती ही नहीं !

नंगे पैर रेत में धंसाए, मैं भी चलती जाती हूँ , लहरें आती हैं और मेरे निशान समंदर के सिरहाने छोड़ आती हैं। अब मेरे आँचल की इतनी भी थाह कहां कि समंदर को उसमें ढांप लूं ...... वो मुझे आगोश में लिए जाना चाहता है और मैं , अपनी हदों से वाकिफ लहरों का आना जाना देख रही हूँ। 

वो जुल्फों से खेलता है ,कभी अपनी उंगलियां उलझाता है.... इस खेल में वो हंसता है , गुनगुनाता है और गुम जाता है ! ये उसकी आदत है, वो अपनी थाह लेने नहीं देना चाहता ..... मैं कभी चाँद बन उसके किनारे  की बालू रेत हो, उसे महसूस करती हूँ तो कभी स्याह रात में उसके साथ गुपचुप शोर किया करती हूं ! हम दोनों पागल हैं ,हम दोनों जिद्दी हैं। दोनों उलझे हैं और दोनों ही इश्क में हैं......

जिंदगी तेरा समंदर होना मेरी आवारगी को भाने लगा है...... मेरे  साथ यूँ ही सफर पर रहना , इस छोर से उस छोर तक तुम्हीं मिलना ! इस आवाज़ ने सांसों को रफ्तार दी है , अब मेरी माथे पर बिंदिया बन के दमकते रहना , मुझे गुनगुनाते रहना !

Tuesday 18 October 2016

इस नाम से अब परेशानी होती है............

कई बार महसूस होता है जिंदगी घर के किसी कोने में रखी कोई ऐसी किताब है जिस के पहले पन्ने पर मेरा नाम तो लिखा है पर पढा इसे मैंने भी नहीं है। 
उलझते उलझते शाम हो चली है मैं फिर उलझ जाती हूँ और फिर उस किताब को देखने लगती हूँ.......उसे उठाती हूँ ,पन्ने पलटती हूँ पर सवालों के जवाब उसमें कभी मिले ही नहीं ! बेकार की कवायद है। इस किताब का क्या कीजे , इस नाम का क्या कीजे ? मेरी पहचान ने मेरी निजता निगल ली है | 

इस नाम से अब परेशानी होती है। लापता हो जाया जाए और कोई ऐसी जगह जाया जाए जहाँ मेरी कोई पहचान न हो। लोग जितना पहचानने लगते हैं उतने  ही खुद से अजनबी होते जाते हैं। पहचान के साथ जुड़े रिश्ते और उन रिश्तों की अपेक्षाएं अक्सर सलाखें लगने लगती हैं। ये अपेक्षाएं भी समंदर हैं ,खारा पानी किसकी प्यास बुझा पाया है ? 

पेड़ ,पहाड़ ,जंगल हो जाना चाहती हूँ। झील से आजाद हो दरिया हो जाना चाहती हूँ। सामान के समंदर में फेंक दी जाने वाली जिंदगी से क्या खोज निकालने की सम्भावना है। सामान ने भी चन्द महीनों बाद कबाड़ ही होना होता है और सामान के साथ आयी खुशी भी उसको अबेरते अबेरते कबाड़ में बदलने लगती है। 

मोह के कुछ धागे रंगे हैं ,कुछ कच्चे -कुछ पक्के हैं ! देह के मिट्टी होने तक इन धागों में बंधे रहना भी नियति है। मन की मिट्टी गीली है ,दरकने लगती है। जो ये भरम पाले हैं कि वो सहारा हैं ,वे भी धसक जाते हैं तो नए सहारे उग आते हैं और फिर कोई फिर से खड़ा हो जाता है। 

 सब सलाखों ने अपने इर्दगिर्द सलाखें उगा ली हैं ! किसी को रिश्तों का, किसी को संस्कारों का, किसी को समाज का नाम दे दिया है। आप बेशक तर्क दें कि नियम बिना समाज नहीं चलता पर मैं समाज नहीं "मैं " होकर जीने की आजादी चाहती हूँ। हम सब चाहते हैं पर देना नहीं चाहते इसलिए कि आजाद करने में सुरक्षा घेरा टूट जाता है और इसलिए भी कि सबके भीतर गुम हो जाने का ड़र है। 

........पर मैं गुम जाना चाहती हूं ऐसे कि किसी को न मिलूं। आसमान पार  की रूहानी दुनिया  और चाँद  सिरहाना चाहिए मुझे ! 

ख्वाहिशें ऐसी हैं कि खानाबदोश हूँ कोई ........ इस यायावरी ने कितने मंजर देखे हैं और और कितने और बाकी हैं ,पता नहीं पर ये तय है कि इसी दुनिया , इन्हीं रिश्तों के बीच मेरा अपना एक इमरोज , मेरा अपना कोई साहिर है। अमृता हो जाना कितना मुश्किल रहा होगा पर नामुमकिन तो नहीं था ना.......... !

नज़्म गुनगुनाइए और चलिए साथ उस सतरंगे आसमान के नीचे , उसके पार किसी पगडंडी पर आज़ाद कदमों से...... जिंदगी के हाथों में हाथ दीजिये और हवाओं में उसके जिस्म को भर लीजिये ! 

चलते रहिये , मिलेंगे हम किसी रोज किसी अनजानी सी जगह और उंगलियों को उलझाये चाय साझा करेंगे !


Monday 3 October 2016

क्या जवाब दूं निमिषा को ? गैजेट्स ने जिंदगी को कोनों में धकेल दिया है .......

वो कल मिली तो कहने लगी कि कि कभी फुर्सत में हो तो बैठेंगे ,बताईयेगा ! आज वो फिर मिली तो कहने लगी कि कुछ कहना है आपसे। मैं उसका हाथ थाम बैठ गयी। लगा कि रोना चाहती है पर वो मुस्कुराने की कोशिश कर रही थी। कहने लगी डॉक्टर ने सब टेस्ट करा लिए ,दिक्कत कहीं नहीं पर सर में तेज दर्द रहता है और जी करता है कि कहीं जा के जी भर के रो लूं।

मैं हैरान नहीं थी और मन में सवाल भी नहीं थे , क्यों नहीं थे इसका जवाब मेरे पास नहीं है। खैर , कहना उसको था और वो कहती जा रही थी।

जिंदगी इससे अच्छी क्या होगी दी कि मकान की जगह बंगला ,गाड़ी की जगह गाड़ियां मिलीं। पति ऐसे कि ये भी नहीं पूछते कि पैसा कब ,कहाँ ,कितना खर्च किया ,क्यों किया और ये भी नहीं कि ये क्यों नहीं किया या वो क्यों नहीं ! सास ऐसी कि पूछती हैं कि शाम को सब्जी क्या बनाएंगे ! बेटियां भी इन दिनों मेरा गुस्सा झेल रही हैं ! घर में सब कुछ मन का है पर मन ही नहीं लगता ?

क्या लगता है ,क्या चाहती हो ?
मैं चाहती हूँ कि कोई कहे कि ऐसा क्यों नहीं किया ? कैसे क्या करना है मुझसे पूछे ,मुझसे सवाल करे ? पति मुझसे कहें कि क्या है ये सब ? क्यों किया ,क्यों न किया ? सास ये क्यों नहीं कहतीं कि आज रात खाने में यही बनेगा !
ऐसा हो जाये तो क्या सब ठीक होगा ?
पता नहीं पर मुझे कुछ ठीक नहीं  लग रहा ! डॉक्टर तनाव बता रहे हैं ,सब पूछते हैं दिक्कत क्या है ,बताओ ! अब क्या बताऊं ?

मैं ऐसी नहीं थी दी ! कभी भी नहीं ! मैं क्या करुं ? मैं इससे निकलना चाहती हूँ !

वो कहती जा रही थी। मैंने पूछा ,कभी इश्क़ किया है क्या जिंदगी में ?

हंस पड़ी वो ! कहने लगी ,आप भी ना ! अरे ऐसा तो कभी सोचा भी नहीं ,घर और कॉलेज बस और दोनों जगह दोस्तों और घरवालों के साथ ही समय अच्छा बीत गया। कभी कोई ख्याल भी नहीं आया फिर घरवालों की पसन्द से शादी हो गयी ,पति और परिवार में "खुश " हूँ।

सोशल मीडिया पर हो ? फेसबुक ,ट्विटर या वाहट्सएप्प वगैहरा ?

फेसबुक ,वाहट्सएप्प  पर हूं पर उसमें मन नहीं लगता ! क्यों बताऊं किसी को मैं कहाँ गयी , किसको मिली ,बच्चों के नम्बर कितने आये क्यों आये ?

पढ़ने के अलावा और क्या शौक था ,क्या पैशन था ,क्या ख्वाब देखा था जिंदगी को लेकर ?

अरे इतना कौन सोचता है ? शादी से पहले पेंटिंग का शौक था , कई साल इसमें खर्च किये ! मजा आता था। अब सब छोड़े अरसा हुआ !

तो अब करो ,वो सब करो जिसे छोड़े अरसा हुआ ,जिसे फिर करने का कभी सोचा नहीं ! वो सोचो !

एक गहरी उदासी फिर से पसर गयी उसकी आँखों में।

कर पाउंगी क्या फिर से ? लगता है जिंदगी खत्म सी हो गयी है .......

बात कर ही रही थी कि फोन बजा ,क्लास का समय हो चला था ! बात अधूरी रह गयी।

कल फिर बैठेंगे ,तुम आज जाओ और सोचना कि तुम एक बार फिर वो करो जो कभी सोचा नहीं कि कभी  फिर से करोगी ।

वो चली गयी ,मैं सोच रही थी कि जिंदगी की मासूमियत भी कातिलाना है। वो ऐसे सवाल उठा देती है कि खुद को झूठे जवाब देने में हम खुद को मार डालने पर मजबूर हो जाते हैं और वो साफ़ बरी हो जाती है।

निमिषा कल फिर आएगी ,मैं आपसे फिर हमारी मुलाकात साझा करूंगी । आप भी बताना कि उसके सवालों का मैं क्या जवाब दूं ?

चलते रहिये ,जिंदगी से सम्वाद करते रहिये !




Tuesday 20 September 2016

रिश्ते कभी सहूलियत के लिए गढे जाते हैं और कभी सहूलियतें रिश्तों को मुकर्रर करती हैं........

आसान नहीं होता दीवार हो जाना या सड़क बन जाना ,चाहने से कुछ होता भी नहीं ! होना ही होता है तो वक्त के हाथ से ही होता है ,हमें सिर्फ हमारे होने का भरम होता है पर होना कुछ और ही होता है।

जिंदगी की तेज रफ्तारी में पलों को बरस और बरसों को जन्मों में बदलते देखा है। विडम्बना ये है कि जितना बदलते देखा है उसमें से बदला कुछ भी नहीं , सिवा चेहरों के ! किरदार बदल के हर बार वही चेहरे किसी नए मुखौटे के साथ हमारे सामने आ खड़े होते हैं।

तुमने सही कहा है , मैं रिश्तों पर बहुत कुछ लिखती हूँ ......... पर समझती नहीं हूँ। ये सच है कि हम में से हर कोई इस सच को जानता है पर मानता फिर भी नहीं और माने भी कैसे ? रिश्ते कभी सहूलियत के लिए गढे जाते हैं और कभी सहूलियतें रिश्तों को मुकर्रर करती हैं। मुकम्मल दोनों ही नहीं होते ! ईमानदारी दोनों ही परिस्थितियों में नहीं होती। बेईमानी की परिभाषा किसी के लिए सहूलियतों की वो छत है जिसे हम अपने निज की चाह के आधार पर गढ़ते हैं और किसी के लिए जीवन मृत्य का प्रश्न !

छलना जीवन की परछाई है और अनवरत शोर करने वाली वो तन्हाई है जिसकी चीखें अक्सर सोने नहीं देतीं। अक्सर लोग शिकायतें करते मिलते हैं और अपने अपनी किसी उलझन से दूर भाग , किसी सच से पीछा छुड़ा लेना चाहते हैं। कन्धा ढूंढने की चाह में एक बार फिर अपनी लिए एक और चाहना की चिता सजा लेते हैं।

एक ही उम्र में हजार बार मरना और हर बरस उतनी ही धूम से जनम दिन मना लेना, कैसे करते हैं लोग ?

हकीकत से  कोसों दूर ख्वाहिशों का संसार बस जाता है।  ख्वाबों की परियां अक्सर मेरी उंगली थाम मुझे तुम तक ले जाती हैं। मैं जागने पर भटकती नहीं हूँ ,हाँ सोते हुए भटकने के ड़र से अक्सर उस ख्वाब को खो बैठती हूँ। तुम हकीकत में एक ख्वाब हो जो मुझे मेरी उम्र से बहुत दूर ले आया है। ये खूबसूरत एहसास है और उंगलियों में उलझे तुम्हारे सवालों और तुम्हारी खामोशियों में दीवार बन गया है।

मेरी चाहना इस दीवार के टेक लिए बैठी है। सड़क हो गयी हूँ मैं...... तुम तक पहुंची भी और नहीं भी , आगे बढ़ गयी हूँ और पीछे कुछ छोड़ के भी नहीं आयी। तुम मेरे साथ चले आये हो ये जानते हुए भी की सड़क का कोई छोर नहीं होता।

सुनो , जिंदगी चाय का प्याला नहीं है ,न शराब की बोतल ! नशे के चढ़ने से उतरने के बीच मैं हूँ पर उसके सिवा मेरा होना और तुम्हारा ना होना भी उतना ही सच है जितना तुम्हारा हर वक्त नशे में रहने की चाह रखना !

ये सफर है दोस्त , साथ चलो न चलो...... कोई विकल्प वक्त मर्जी से नहीं देता। कदम और रूह हमेशा एक साथ हों इसकी जाँच का कोई पैमाना  दुनिया बना ही नहीं सकती। साथ के लिए तुम कोई क़ानून बना सकते हो पर किन पलों में कौन साथ होता है इसकी सच्चाई को कोई जज महसूस भी नहीं कर सकता ....... इसीलिये दोस्त, दीवार बनकर कोई निर्णय की लकीर खींच भी दो तो भी सड़क उस दीवार को किसी और दीवार से जोड़ ही देती है।

कभी शाम बन के आंगन में उतर जाना और मेरे आँचल पर ग़ज़ल का कोई मिसरा लिखना फिर देखना कि असल  होने और असल जीने में उतना ही फर्क है जितना मेरे मरने और हर रोज जिन्दा होकर एक चाँद बन खिड़की में टिकने में है।

सवालों को छोड़ अब जवाब में आसमां होना सीख लो , मेरी तुम्हारी मुलाकात अब हर रोज वहीं होती है जहाँ सुबह तक हम ख्वाहिशों के सितारे लपेटे अपने लिए नया सूरज गढ़ लेते हैं ! यही हमारा सच है , जितना जल्दी स्वीकार कर लोगे रास्ता उतना आसान हो जाएगा।




Sunday 18 September 2016

मैं वहीं मिलूंगी और तुमको एक बार फिर से थाम लूंगी ......... मैं जिन्दगी हूँ तुम्हारी !

कोई भी सफर पूरा नहीं होता और अधूरा भी नहीं रहता। कुछ चेहरे ,कुछ बातें ,कुछ लम्हे ,कुछ सच और कुछ झूठ,अधूरे -अनगढ़ से हम सबके बीच तमाम उम्र बसे रहते हैं।

नाम भूल सकते हैं , बातें धुंधली हो सकती हैं लेकिन रास्ते के हर पत्थर पर किसी पुरानी हवेली की तरह उनका होना झुठलाया नहीं जा सकता। अतीत से आजाद होना आसां नहीं है पर नामुमकिन भी नहीं बशर्ते उसे धारा के विरुद्ध न मोड़ा जाए। अपने आप को ,अपने अपनों को ,अपनी कमजोरियों को और अपने सपनों को अपनी ढाल बनाये बिना हम जीत सकते हैं ,आगे बढ़ सकते हैं। 

ये कहाँ जरूरी है कि टूट जाया जाए ,ये कहाँ जरूरी है कि तोड़ दिया जाए ? कुछ सबक याद करने के लिए होते हैं जिन्हें याद कर लेना ही काफी है , वजन लेकर कब तक दौड़ लगाईयेगा ? मुस्कुराईये कि वक्त वो बीत गया ,सूरज फिर निकला है और वक्त ने फिर मोहलत दी है। 

नाइन्साफी की शिकायत कब तक कीजियेगा और किससे कीजियेगा ? यहाँ हर कोई मसरूफ है ,हर कोई अपनी ही उलझनों और ख्वाहिशों में कैद है। जाने दीजिये , बहने दीजिये !  

मैं पढ़ रही हूँ और उसकी उलझनों को जी रही हूँ। ये दौर मुश्किल जरूर है पर संभलने के रास्ते किसी के लिए पेटेंट नहीं हैं। हम गलतियों की माटी से गढ़े पुतले में अपनी जान फूंक उसे खुद की शक्ल देने में उम्र जाया कर देते हैं , जिसका हासिल निल बटा सन्नाटा होता है। एक के बाद एक ........ और फिर कोई एक ख्वाब शॉर्टकट दिखा जाता है जो असल से फिर दूर ले जाता है और एक बार फिर एक और गलती ! हर बार भाग्य को भी क्या दोष दीजियेगा और खुद को भी क्या कहियेगा ? 

मन भोला पंछी है खुद ही खुद को बहला लेता है और खुद ही खुद को आज़ाद मान बैठता है। रात को परिंदे को आज़ाद किया भी तो क्या किया ,उजालों में नीड़ ढूंढते तो बात थी। 

तुम्हारे सपनों की दौड़ तुमसे ही हार रही है। जीतने की जंग क्या लडनी है, जीने के लिए जिओ पर उनके लिए भी जियो जो तुम्हारी जीत के लिए सपना देख रहे हैं। वक्त दरिया की मानिंद है , बहता रहता है उस पर अपना नाम मत लिखो ! किश्ती बन जाओ और बह निकलो दूर वहां जहाँ जमीन और आसमान एक हो रहे हैं। 

मैं वहीं मिलूंगी और तुमको एक बार फिर से थाम लूंगी ......... मैं जिन्दगी हूँ तुम्हारी ! चले आओ !

रवीश से बेहतर कोई नहीं है !

आजकल रवीश ट्विटर पर नहीं हैं , फेसबुक से भी गायब हैं। एक क्षण को अच्छा नहीं लगता रवीश का दोनों जगह से गायब होना पर दूसरे  ही क्षण लगता है कि अच्छा ही है यहाँ नहीं होना !

क्यों किसी की वजह से वो अपनों पर ,अपने आप को लोगों की गन्द से तरबतर करें ? उनकी गन्दी भाषा और घटिया स्तर से अपने चरित्र को बाजार की चीज बना दें ? सोशल मीडिया पर लोकप्रियता की कीमत ने उन लोगों को हमारी पहुंच से दूर कर दिया जो वास्तव में पढ़ने ,सुनने और जीने लायक हैं। 

140 शब्दों में बारामुला के फ्लाईओवर से गाज़ियाबाद के जाम के किस्से और उनके घर लौटे हुए FM पर बजते हुए गाने , सब कुछ ख़ूबसूरत सा आँखों के सामने से गुजरता रहता था। 

चीन की खबरें मैं भी पढ़ सकती हूँ पर गुरूजी पाठ पढाते थे तो पाठ जल्दी समझ आता था........ हाहाहाहा ! सच में नोट्स बने बनाये मिलें तो मेहनत कौन करे।  रवीश के प्राइमटाइम का इंट्रो भी ऐसा ही होता है ,जब वो एक साँस में , बिना पानी पीये पूरी लीलावती - कलावती सुना जाते हैं....... मैं पानी पी लेती हूँ ,इंट्रो सुनकर ! 

ये भी कमाल है और वो भी कमाल है , बात वही होती  है जो हर चैनल पर हो रही होती है पर रवीश जब उसी बात को  कहते हैं तो बात वो नहीं होती जो हो रही होती है। निष्पक्षता की उम्मीद में रवीश से नहीं रखती , क्यों रखूँ ? पत्रकार हैं  ,सवाल करना और हर एक से सवाल ,तीखे सवाल भी करते हैं पर कुछ एक अनुभवों से वो भी गुज़रे होंगे जैसे आप हम गुज़रते हैं तो राय बन ही जाती है और न भी बने तो कहीं न कहीं कोई सच हमारे भीतर पलता बढ़ता है ही। 

भाषा की मर्यादा और भाषा के चयन में सावधानी बरतने में रवीश से बेहतर कोई नहीं। वो मना करते हैं कि प्रशंसक न बनिये पर मैं प्रशंसा तो कर ही सकती हूँ न । 

कोई कितनी भी आलोचना करे पर ये स्वीकार करने में किसी भी स्वस्थ मानस को तकलीफ नहीं होनी चाहिये कि पत्रकारिता के दिन ब दिन गिरते स्तर में रवीश आज भी उन मूल्यों को जिन्दा रखे हैं जिनको जिन्दा रखने में वे खुद कितने  मुश्किल दौर से गुज़रे होंगे , कल्पना करना भी कठिन है। 

रवीश , आप भले ही ट्विटर -फेसबुक से गायब रहें पर हमतक आपकी बात पहुंच ही जाती है । नीली कमीज -सुर्ख टाई और ग्रे मेरा पसन्दीदा सम्वाद है। आप के अनकहे शब्द उनसे उपजी आपकी उलझन भी कैमरा पढ़ के हम तक पहुंचा ही देता है । 

रवीश की रिपोर्ट को भी मिस कर रही हूँ। कभी प्रेम नगर की उन गलियों में जहाँ चुनावों से पहले आप गए थे और उन बस्तियों में जहाँ कोई और नहीं जाता ,एक बार फिर ले चलिए , इसलिए नहीं कि क्या बदला इसलिए कि कुछ नहीं बदलता । हवा किसी की भी हो , राजनीति में जिंदगी के सवाल टिक नहीं पाते। 

इंतज़ार रहेगा , मैं रवीश कुमार का प्राइम टाइम में ......... अरे हाँ ! साउंड क्लाउड पर भी लम्बे समय से आपकी कोई रिकॉर्डिंग नहीं है। 

अब इतनी सारी जगह रवीश हैं पर नहीं हैं। कुछ और रवीश चाहिए ,कुछ और आवाज़ें चाहिये इस व्यवस्था को जो उनको आवाज़ दे जिनकी आवाज़ को कोई सुनना नहीं चाहता। क्या पता ऐसा कब हो और हो भी तो कब सामने आये ?

खैर ,चलते रहिये ! टीवी कम देखिये और देखिये भी तो केवल प्राइम टाइम देखिये और वो भी रवीश के साथ ! प्रणाम !

Saturday 27 August 2016

हम शिकायकतों के पहिये पर उम्र को धकेलते रहते हैं। जीते कब हैं ? मैं खुश हूँ कि मैंने वो किया जो दिल ने कहा.........

अरसे से कुछ नहीं लिखा ! सोचा कई बार पर रुक गयी ......... अनकहा कुछ नहीं पर अनसुना बहुत कुछ रह गया। उसे लिख दूं या उसको लिख दूं ,इसी कशमकश में उलझ गए सवाल भी और जवाब भी।

वो नीले आसमान को टिकटिकी लगा के देख रहीं थी ! मैं उनको पढ़ने की कोशिश कर रही थी। कहने लगी तुमको देखा तो लगा कि तुमसे कुछ देर बात करूँ। मैं मुस्कुरा के उनके पास बैठ गयी। परिचय पुराना कुछ नहीं था , कुछ घण्टे पहले डीन के कमरे में  मुलाकत हुई ,दोनों ही एग्जामिनर थे। वो एम पी से थीं। रिटायर हुए कुछ साल हुए ,यूनिवर्सिटी में अब भी पढ़ा रही हैं ! उम्रदराज  लेकिन ऊर्जा से भरपूर महिला की आवाज़ में कुछ ख़ास था ! मैं रुक गयी , ठीक है कुछ पल इनके साथ भी सही...........

आपके परिवार में और कौन है ?
दो बेटियां हैं ,दोनों की शादी हो गयी है !
पति ?
वो अब नहीं हैं !
ओह्ह ! मुझे लगा कि नहीं पूछना चाहिए था !
उन्होंने मुझे पढ़ लिया और बोलीं हम साथ नहीं रहते थे !
मने  डिवोर्स ?
नहीं ,पर साथ नहीं रहे !
कारण ?
कुछ नहीं ! बच्चा नहीं हुआ तो सब ट्रीटमेंट के बाद में गोद लेने के नतीजे पर पहुंची। सोचा परिवार का नहीं समाज के किसी जरूरतमंद को अब अपनी ममता दूं !
फिर ?
पति खुश नहीं थे ! जब तीसरी बार उन्होंने अनाथालय से गोद  लिए बच्चे को मेरी नाजायज औलाद बताया तो मैंने तय कर लिया कि अब चौथी बार नहीं सुनूँगी !
फिर ?
उस बार मैंने सामान लिया और घर से निकल गयी !
कहाँ गयीं ?
पापा से पूछा कि कुछ दिन आपके साथ रहूंगी ,उन्होंने कहा आ जाओ।
फिर ?
दूसरे शहर के सरकारी कॉलेज में तबादला करवा लिया। पति जानेमाने पत्रकार थे ,CM का घर आना जाना था , कह दिया कि आखिरी  मदद कीजिये और शहर से दूर भेज दें।
फिर ?
चली आयी !
तो फिर वो आपको लेने नहीं आये ?
आये ,एक दिन ! फोन किया, मैं सामान और बच्ची को लेने आया हूँ। मैंने कहा कि सामान  के साथ तुम्हारी  6 बोर की रिवॉल्वर मेरे साथ आ गयी है। ऊपर आये तो एक गोली तुम्हारे सीने में और दूसरी मेरे सीने में होगी !
फिर ?
वो लौट गए ,अगली बार पुलिस वाले का फोन आया कि आपके घर की तलाशी लेनी है। सामान है आपके पति का आपके घर !
फिर ?
मैंने कहा ,मैं थाने आती हूँ।  जा कर अधिकारी से पूछा कि FIR की कॉपी दो , नोटिस लाओ ! बोला नहीं है। भाईसाहब को मैं समझा दूंगा ! आप जाईये आगे से ऐसा नहीं होगा !
फिर ?
बेटी की शादी में नहीं आये ,इस बीच एक बेटी और गोद ली मैंने ! दोनों की शादी में वो नहीं आये !
फिर ?
एक बार एक्सीडेंट हुआ ,कोमा में चले गये ! पता चला कि सम्भालने वाला कोई नहीं तो दो महीने बॉम्बे हॉस्पिटल में इलाज कराया ,ठीक हो गए तो मैं लौट आयी
फिर ?
 जिंदगी चलती रही , पता चला वो किसी के साथ रहने लगे हैं ! वो लड़की मेरे विभाग से पी एच डी के लिए आयी ,सबने बताया कि" ये वही है "मैने कहा कोई नहीं ,उसका ध्यान रखती है ना ! मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।
फिर ?
कुछ साल बाद उनको कैंसर हो गया ! मैं फिर बॉम्बे अस्पताल ले गयी। आखिरी दिन बेटी से बोले तेरी मां के साथ रहता तो ये दिन नहीं देखता शायद।
बस फिर कुछ नहीं !
अब ?
अब मैं पार्क के बच्चों के साथ रोज शाम  खेलती हूँ , उनके होमवर्क और क्लास के झगड़े सुलझाती हूँ , संडे को चॉकलेट पार्टी करते हैं
घर में अकेले ?
नहीं ! पीजी है,  नीचे की मंजिल पर लड़के हैं और मेरे साथ चार लड़कियां रहती हैं।  सब साथ खाते हैं और मस्त रहते हैं ! बच्चों के पास आती जाती रहती हूँ ! यूनिवर्सिटी में क्लास ले के आ जाती हूँ।
क्या करियेगा अब  ?
एक जमीन है , ज़िंदा रही तो उस पर नीचे दुकाने ,बीच के फ्लोर पर वृद्धाश्रम और ऊपर लड़कियों का हॉस्टल बनाना चाहती हूँ !
सब साथ  रहेंगे तो सबको एक दूसरे से सहारा रहेगा।

और आप  खुश हैं ...................?

मैं खुश हूँ प्रेरणा ! मुझे लगा कि मैं अगर वो निर्णय नहीं करती तो जिनके भी लिए जो कुछ कर पायी ,नहीं कर पाती और मेरा तो वही होना था जो सब के साथ होता है।

मैं खामोश हो गयी ......

"हम शिकायकतों के पहिये पर उम्र को धकेलते रहते हैं। जीते कब हैं ? मैं खुश हूँ कि वो किया जो दिल ने कहा "

मैं उनको सुनती रही  !!

"पर मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैंने तुमसे आज इतनी बातें कैसे साझा कर लीं ? हमारा तुम्हारा तो कोई परिचय भी नहीं है ! मैंने अरसे से कभी किसी से अपनी जिंदगी के इस सच को किसी को नहीं कहा फिर तुमसे कैसे कह बैठी ?"

इस बात का जवाब मैं भी क्या देती ! उनका हाथ थाम उनके हाथ में कॉफी का प्याला थमा दिया और मुस्कुरा भर दी !

जिंदगी मुझे किताब पकड़ा देती है ! हौसलों की किताब है ,अनुभवों के फलसफे हैं। हम सबके भीतर कितने जलजले हैं और हम बाहर से कितने खामोश दिखाई देते हैं मानो कुछ हुआ ही न हो , कुछ होना ही नहीं हो !

जिंदगी की गाड़ी ढुलकते किस स्टेशन जा रुकेगी पता नहीं ! आप भी बतियाइए , दिल की कहिये ,दिल की सुनिये क्या पता किस मोड़ वक्त से सामना हो जाए !

अनमोल पल होते हैं जब कोई अजनबी आपका हाथ थाम जिंदगी की कोई अनकही पहेली सुलझाने बैठ जाए !
उस पल मुस्कुराइए कि आप ज़िंदा है !

Wednesday 3 August 2016

मेरी गया यात्रा ....... पितरों का पंगा और महाबोधि दर्शन

गया, बिहार में हूं।मेरा ये पहला अनुभव नहीं है किसी धर्म नगरी में न, ये पहला मोहभंग है धर्म के व्यापारी स्वरूप से ! आस्था के बाजारीकरण को उसके निकृष्टतम रूप में देखना हो तो कुछ समय यहां जरूर गुजारें ।
गया प्लेटफार्म पर उतरते ही पंडो के एजेंट आपके कुल-गोत्र, दादा चाचा पार बाबा तार बाबा सबकी कुंडली खोल आपको अपना बनाने की जुगाड़ में लग जाते हैं। बच निकले तो आपका भाग्य वरना लौटने लायक पैसा भी पितरों की गलियों से होता हुआ "संस्कृति के चौकीदारों की जेब में चला जायेगा। सावन का महीना है सो यहां रेलवे स्टेशन पर भी कांवड़िये पसरे थे। सावन में लहरिया सुना और पहना था पर कांवरियों की नयी भगवा यूनिफार्म आस्था के बाजारीकरण की नयी परिभाषायें गढ़ रही है । गया पितरों की नगरी है, शास्त्रों के अनुसार विष्णु यहां द्रव रूप में फरगु में अवतार लिये हैं।
फरगु नदी के किनारे विष्णुपद मंदिर में पितरों की "मुक्ति" के अनुष्ठान होते हैं। मंदिर के मुख्य द्वार पर लिखा है " अहिन्दु प्रवेश निषेध" ..... कमाल है न जिस विष्णु के चरण में तमाम सृष्टि का वास है उसके ही "एजेंट निवास" में सलेक्टिव लोग ही प्रवेश के हकदार हैं ?
अंदर धुसते ही आप पर फिर से "पितरों के एजेंटों" का हमला होगा। आप "किडनैप " कर लिए जायेंगे और थाली में धोती , माटी के कलस और भिंडी, आटा लिए नजर आयेंगे।पंडित आपको सौ पुश्तों के नाम पूछ आपमें इतनी हीन भावना भर देगा कि उठने पर आपको अपने नाम की भी तस्दीक करनी पड़ेगी ।
जो दादा जी बिना कहे दौड़ आते थे उनकी तृप्ति के लिए इतना जतन ? क्या मृत्यु के बाद भी ध्यानाकर्षण की चाह शेष रह जाती है?
तीन -चार घंटे के बवाल के बाद जब होश आये तो कुछ खा पी लें और महाबोधि दर्शन के लिए निकल लें .....
महाबोधि का अनुभव बोध गया से जल्द ही साझा करूँगी ! प्रणाम!

Monday 1 August 2016

आओ कुछ पल उंगलियां उलझा के बैठें ....

एक ख़त लिखना चाहती हूं जिंदगी के नाम .... कभी कभी खुद को खुद के सामने बिठा कुछ सवाल कुछ जवाब लेने का मन होता है तो कभी जिंदगी को ठेंगा दिखा खिलखिलाकर भाग जाने का मन होता है .... मैं अलग और जिंदगी अलग हैं क्या ? अगर नहीं तो फिर इतनी दूरी कैसे है ? जो पास है तो खामोश क्यों?


ये सवाल भी वैसा ही है जैसा तुम सोचते हो कि कोई तुमसे बिना कुछ चाहे इश्क कैसे कर सकता है? जैसे तुम ये यकीन नहीं कर पाते कि देह के पार  भी कोई संबंध हो सकते हैं, रिश्तों की संभावनाएं हो सकती हैं। इतने मासूम से सवाल हैं तुम्हारे कि जी करता है कि इनकी पोटली बना आसमान में उड़ा दूं ....सच कहूं तो उड़ा ही दिए हैं। न उड़ाती तो जिंदगी का सबब ही खो देती।
देखो वो तस्वीर के उस पार की कश्ती देख रहे हो...
उसमें खास कुछ नहीं है सिवा इसके कि उसमें उन लम्हों का भार है जिनके वजन से झील का पानी किनारों को धकियाता रहता है , ये जिंदगी है, वो कश्ती जीने की जिद है।
मुझे अच्छा लगता है और बुरा क्यों नहीं लगता ? मैं किसी वक्त भी उस वक्त से अलग नहीं हो पाती .....कोई जिंदगी से अलग होकर जिंदगी को सोचता है क्या ?


खुद पर इतना कम भरोसा क्यों ? क्यों इतने सवाल ? कहीं कोई एक झूठ हजार सच पर भारी तो नहीं  ?


ये हमारी जिंदगी है, ऐसे ही उलझाकर रखती है  ! सोचती है कि हर रोज़ कोई नया सवाल रख देगी तो मैं किसी रात ख्वाब छोड़ उसे हल करने लगूंगी पर ऐसा भी होता है क्या कोई ..... मुझे तुमसे मोहब्बत है मेरी जिंदगी ! तू सवाल किये जा मैं जवाब सजा के बैठी हूं।
ये सबसे खुशनुमा मंजर है ....अब मैं और मेरा इश्क जिंदगी की उस कश्ती पर सवार हैं जो हज़ार दियों वाली झील के सीने पर सिर टिकाये है ....  ले चल मेरे मांझी ले चल पार .. सवालों के पार - जवाबों के परे ! दूर पहाड़ों पर ,जंगल और दरिया किनारे .....
कब खत्म होगी ये दौड़ , इतना दौड़ के क्या हासिल हुआ ?
आओ कुछ पल उंगलियां उलझा के बैठें .... दरिया को सुने और जंगल को जी लें ,जब इसी के सुपुर्द होना है तो क्यों न इसी के हो के रह जायें.....
मेरी खूबसूरत जिंदगी मुझे तुझसे बेपनाह मोहब्बत है, तेरे इश्क में मर भी गयी तो फिर से तुझे पा लूंगी !

Tuesday 12 July 2016

रिश्तों का लिटमस टेस्ट हर कोई अपने फार्मूले से करना चाहता है........

बहुत देर तक सोचती रही क्या बात करूं उससे ,उसके सवालों के जवाब हैं मेरे पास पर सच उसने सुनना नहीं और तर्क में मुझे अब उलझना नहीं।

संवाद का ये दौर भी अजीब होता है। स्वीकृति और अस्वीकृति के बीच भी सहमति बन जाती है जिसमें साथ चलने की गुंजाइश ज्यादा बेहतर हो जाती है ............ जरूरी भी है , हर एक के जिन्दगी के अपने तजुर्बे होते हैं। हर एक की अपनी प्रयोगशाला है। रिश्तों का  लिटमस टेस्ट हर कोई अपने फार्मूले से करना चाहता है।

मुझे पता है वो जो कर रहा है गलत है पर उसके अपने तर्क हैं ,उसकी अपनी क्षमताएं और उसकी अपनी ख्वाहिशें हैं।  हर एक के भीतर कई किरदार हैं , उनकी अपनी कुंठाएं उनकी अपनी लालसाएं हैं जिनको उसे पूरा करना ही होता है।

मेरा गलत उसके पैमाने पर गलत हो सकता है लेकिन मेरे अनसुने तर्क उसकी जिन्दगी की तहरीर लिख रहे हैं।
ये इश्क भी कमाल का है, न उसके करीब जाने देता है न उससे दूर ही होने देता है।
कभी वो खुद से हार जाता है तो बेसाख्ता बाहें पसार देता है और कभी उस जीत से खुश हो जाता है जो उसे खुद से ही दूर ले जाती है ................

एक रोज़ किसी पगडंडी पर टहलते उसने पूछा " क्या सुकून है मेरे साथ वक्त बिताने में " !! ये सवाल भी कमाल था। सोच रही थी कह दूं कि मौत का इंतज़ार इससे हसीं नहीं हो सकता............... कहा नहीं पर खुद पर खूब हंसी ! कितनी अजीब कशमकश है , साथ होने और साथ होकर साथ नहीं होने के भ्रम को पाले रखने की। दोनों की चुप्पी में गजब की रूमानियत और गज़ब का इकरार है ,करार है और तकरार है...........

बरसात में पिघल जाऊं और आसमान को बाहों में भर  खुद को आज़ाद कर देना चाहती हूँ  हर कशमकश से ,हर ख्वाहिश हर ख्वाब से परे.......  पर उसके सवाल जीने नहीं देते और उसकी मुस्कुराहट मरने नहीं देती !!

अच्छा सुनो !! ..........इस बार किसी चौराहे पर मत मिलना ~!! इस बार हम पहाड़ की चोटी या पहाड़ की उस तलहटी में मिलेंगे जहाँ नदी का शोर हो और हवा में देवदार की सरसराहट हो ! बहस करने के लिए भी मूड चाहिए और तुमसे उलझने के लिए तो मुझे कई जनम चाहिए !

मैं कहती जा रही थी ,मुझे पता है वो सुनता नहीं है ! अपनी ही दुनिया में अपना कुछ सुनाने के लिए बेताब .......   वो अपनी दुनिया को लेबोरेट्री बना के जी रहा है मनो उसे ही नोबेल मिलेगा किसी अजूबे ग्रह को खोज लाने के लिए ! मैं हंस देती हूँ उसकी इल्म और फिल्म के बीच जूझ रही जिन्दगी को देख ! वो चिढ़ता है , लड़ता है और फिर से किसी खोज में निकल फिर मुड़ के देख लेता है ......... मैं मुस्कुरा भर देती हूँ !

देखो जो करना है करो ,मैं यहीं हूँ ,देख रही हूँ ,समझा रही हूँ ....... खेलते हुए चोट लग जाए तो सम्भलना ! मैं यहीं मिलूंगी।

चौराहे का पुराना पेड़ हूँ ...... जब भी लौटोगे यहीं मिलूंगी ! वक्त खत्म भी कर देगा तो फिर से यहीं उग जाउंगी और नए रूप में फिर मिलूंगी बस तुम सफ़र सम्भल कर करना ................. खुश खुश मिलना !








Wednesday 6 July 2016

काश कि मोदी भी अरविन्द के साथ खड़े होते .........

सत्ता और सट्टा बेईमानी सिखा ही देते हैं। नीयत में खोट भले न हो राजनीति के दांव खेलने में चालबाज बन ही जाते हैं। हर कोई ईमानदारी का दम भरता है और बेईमान बन जाता है। ईमानदारों की फ़ौज बेईमानों से उलझते उलझते कब दांवपेच सीख जाती है पता ही नहीं चलता।

अरविन्द अकेले क्या कर लेंगे ? मोदी भी अकेले क्या कर लेंगे ? निर्णय दोनों अकेले नहीं ले सकते ,ले भी लें तो उस निर्णय को लागू कराने के लिए जिन लोगों का सहारा लेना पड़ेगा , वो वही होंगे जो उन तक वही बात पहुंचाएंगे जो उनके मन मुताबिक़ हो। सत्ता के चौकीदार भेस धरे घूमते हैं। चमचे और चाटुकार अंततः मोतियों का हार ले जाने में  कामयाब हो जाते हैं और दूरगामी परिणाम के लिए नेतृत्व को छोड़ देते हैं।

मोदी भी उसी छद्म दुनिया में चले गए हैं और उसके ग्लैमर से इस कदर अभिभूत हैं कि वास्तविकता को अब चाह कर भी जी नहीं सकेंगे। सत्ता कुछ मायनों में बेहद क्रूर होती है। 

जब तक नेतृत्व घेराबंदी से बाहर है तभी तक ताजी हवा की गुंजाइश है , बंद कमरों में सिर्फ साजिशें रची जाती हैं। सत्ता का यही खेला जबर्दस्त है , पद और शक्ति पर एकाधिकार की भावना इस कदर प्रबल है कि आलोचना को विरोध मान कर दरवाजे -खिड़कियां बंद कर ली जाती हैं। नतीजा पूरा समाज और उसकी असीमित अपेक्षाएं भुगतती हैं। 

 देश को मोदी और अरविन्द से असीमित अपेक्षाएं हैं।  जनमानस ने दोनों को सर्वशक्तिमान मान लिया है। दुखद ये है कि देश के दो सर्वशक्तिमान साथ होने की जगह हर बार आमने सामने आ खड़े होते हैं। यही दुर्भाग्य है जो देश का पीछा नहीं छोड़ रहा। 

उत्तराखंड भीषण त्रासदी से गुज़र रहा है ,बुंदेलखंड सूखे से परेशान  , बस्तर गरीबी में कैद है.  हम अठ्ठन्नी चवन्नी की लड़ाई लड़ रहे हैं। दाल है नहीं गाय पर बवाल करते हैं। नौकरी नहीं पर राष्ट्रवाद कभी भारतमाता पर बखेड़ा करते हैं ......... 

अरविन्द आंदोलन की उपज हैं ,उनके साथ आंदोलन की शक्ति थी जिसे मोदी दिल्ली के हित के लिए काम में ले सकते थे और देश में सकारात्मक राजनैतिक ऊर्जा का संचार कर सकते थे लेकिन हुआ इसके विपरीत। 

काश कि मोदी भी अरविन्द के साथ खड़े होते और विकास के उस सपने को सच करते जिसका कि वो दावा करते हैं। 

किसी दुर्घटना से कोई नहीं सीखता ! शहादत भी खेल और सियासत भी खेल है।दोनों की मैयत हमारी नियति है।

तो राजनीति -राजनीति खेलते रहिये ,तकाजे करते रहिये और इज़ इक्वल टू की थ्योरी पर चलते हुए देश के प्रति अपनी छद्म प्रतिबद्धता का बेशर्म प्रदर्शन करते रहिये। सब राम हवाले और राम तम्बू के हवाले हैं। 

जय राम जी की। चलते हैं !

Thursday 16 June 2016

शिकायतों में वक्त इतना जाया हो जाता है कि लौटते वक्त मलाल के सिवा जिस्म पर कुछ नहीं होता............

कभी कभी शिकायतों का सिम सिम  पिटारा खुल जाता है और वक्त के आहते में लम्हे इधर उधर बिखर जाते हैं। उसकी शिकायतें खुद से इस कदर हैं कि गाहे बगाहे छम्म से फ़ैल जाती हैं और उसको ही परेशान करती रहती हैं , मुश्किल ये है वो सुनता भी नहीं और सुनाये बिना रहता भी नहीं।


हम जिंदगी के कितने करीब से गुज़र जाते हैं और जिंदगी को छू भी नहीं पाते। शिकायतों में वक्त इतना जाया हो जाता है कि लौटते वक्त मलाल के सिवा जिस्म पर कुछ नहीं होता। ताउम्र खुद के लिए सहूलियतें जुटाने में इस कदर मसरूफ रहते हैं कि रूह जिस्म से कब फना हो गई होती है इसका पता ही नहीं चलता।

आक्रोश स्वभाविक होते हैं पर एक से जुर्म के लिए खुद को  पारितोषिक और दूसरे के लिए  सजा का आयोजन भी अजीब सच है। आक्रोश खुद को तर्क से परे और दूसरे को कटघरे में खड़ा कर देता है।  हम सब अपने  कंधों पर अपने सच का सलीब ले कर चलते हैं और सब के पास अपने सही होने की वजह है। वाजिब है या गैरवाजिब इसका फैसला जब हो सकता है जब वो एक दूसरे की जिंदगी के फैसलों से परे हो।  नैतिकता के धरातल पर सब नंगे हैं। सबके जिस्म से उह्ह्ह् आती है। लिबास को जिस्म समझने वाले और रवायतों को गिरवी रख रूह का मोलभाव करने वाले दिल के दलाल गली के हर मोड़ पर मिल जाते हैं।

मैं उसकी  शिकायतों से पार उससे  हार जाना चाहती हूँ। हर तर्क से परे उसको उस झील सा ठहरा और हजारों सितारों को अपने सीने पर लिए बेसाख्ता खिलखिलाते ,उड़ते देखना चाहती हूँ। ये वक्त का दरिया है जो हमारे बीच बह रहा है। क्या फर्क पड़ेगा ये दरिया मनो सूख भी जाए ............तो भी हर बरसात पानी अब यहीं से हो कर गुज़रेगा और जब भी गुज़रेगा हम फिर एक दूसरे के सामने होंगे।

कुछ रिश्ते  न काल के , न सवाल के  मोहताज़ होते  है। उनकी उम्र भी नहीं होती ,जिसकी होती है वो रिश्ते नहीं होते बस मुलाकात होती है । सो चुकना तो है ही है आज नहीं तो कल ये हिसाब बराबर होगा पर जितना होगा उतना  मेरा दावा वक्त पर मजबूत होता जाएगा।

वो उलझा हुआ है ये मैं जानती हूँ लेकिन ये भी सच है कि बिना सच को स्वीकार किये वो  एक कदम आगे नहीं बढ़ पाएगा। शिकायतों से परे संवाद की दुनिया है । इस दुनिया में जाओ और सुनो कि पीड़ा की हरेक की परिभाषा अलग अलग है। कुछ देर कंधे पर हाथ रखो और सुनो..........दर्द पिघल जाएगा और अहम की दीवार टूटेगी तो ये सूखी सी लगने वाली घास फिर से हरी होने लगेगी ! मौसम सब गुज़रते हैं ,ये भी गुजरेगा !

हर एक को उसका आईना  प्यारा ही बताएगा पर कभी उसके आईने से उसको भी देखो शायद आराम आ जाए .......वैसे भी तुम को अपने चेहरे पर ज्यादा ही गुमान है भले गुस्से में नाक पकौड़े सी हो जाए और गाल बंगाल की खाड़ी हो रहे हों .........    तो मुस्कुराओ उठो और शिकायतों को  परे रख आसमान  को अपने आलिंगन में समेट लो ! मौसम खुशगवार है !                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                          

Monday 13 June 2016

ये रिश्तों का बंटवारा है , ये रूह कहीं, जिस्म कहीं का रिश्ता है !

" एक अरसे के बाद उससे मुलकात हुई ! अरसा भी क्या कहूं एक दशक ही बीत गया होगा ........ वो जब लौटा था तो  उसकी नीली -भूरी सपनीली आँखों में हजार सपने और कंधे पर सच की सलीब थी। इस बार वो जब लौटा तो कंधे पर जिम्मेदारियां और आँखों में तलाश थी ,सवाल थे।

इंसान भी अजीब है , कुछ की तलाश में कुछ भी खो देता है और कुछ मिल जाता है तो फिर कुछ पाने की जद्दोजहद में लग जाता है। मैंने उसके साथ ,उसके सफर में एक बेनाम हमसफर का रिश्ता निभाया है  ..... उसके साथ रोना उसके साथ हंसना भी हुआ ,बस नहीं हुआ तो साथ नहीं हुआ।

ये रिश्तों का बंटवारा है , ये रूह कहीं, जिस्म कहीं का रिश्ता है ! दोनों अधूरे- अधूरी कहानी ,पूरी सी दिखने वाली पर खत्म नहीं होने वाली सी कहानी है मनो ..... ! परिवार और समाज से परे कुछ नहीं है पर कुछ है जो इन दोनों में ही नहीं ,वो बस वहीं है, जहाँ रूह बसती है।

जिंदगी बिना रिश्तों के नहीं चलती ,रिश्ते जरूरी भी नहीं। जरूरतों का धरातल बदलता रहता है। बस जो नहीं बदलता वो एक एहसास है कि "तुम हो ना "........    उसका हाँ कह देना और मेरा मान लेना !!

बस वही एक एहसास खींच लाया उसको ,वही एक खालीपन ,वही एक उदास कोना ,वही एक टीस ...... देस क्या परदेस क्या ! अब समंदर भी बूँद और कभी बूँद भी समंदर लगता है।

अच्छा सुनो ! बिटिया कितनी बड़ी हो गयी ?
18 पूरे होने वाले हैं , उसने कहा और मुस्कुरा दिया !
तुमने उसका नाम वही रखा ना जो हमने सोचा था ?
तुमको याद है ?
मैं हंस पडी.........
और तुमने भी तो ऐसा ही कुछ किया है ना ?
वो हंस पड़ा .......
हम्म !! ऐसे पागलपन भी भला भूलता है कोई !
नहीं ! वो पागलपन नहीं था ,वक्त था ! हम पर कहानी लिख रहा था और हम किरदार सिर्फ उसके कहे को निभा रहे थे !
थे नहीं हैं ! मैंने बात को विराम दे दिया।

विराम दे देने की कोशिशें नाकाम होती रहीं ! घंटों उँगलियों में उलझे वक्त के धागे सुलझाते रहे......... दोनों को पता था सुलझेगा कुछ नहीं पर इन धागों की पेचीदगी में उम्र के तार फंसे हैं जिनके फंसे रहना ही हमारी नियति बन गयी है।

पर जो भी है अच्छा ही है ! साथ रहते तो शायद कभी टूट जाते इसलिए दूर सही साथ हैं तो भी क्या बुरा है। जो पास हैं वो भी कितना जुड़े हैं ? "

वो अपनी बात कहती जा रही थी। कुछ मुझे पता था, कुछ अनसुना भी था।

फिर क्या हुआ ........ ? मैंने सवाल बढ़ा दिया ये सोच के कि उसकी चुप के अंतराल को कम कर  सकूंगी पर वो अब निढ़ाल सी सोफे पर पसर गयी। आंसुओं की धार उसके गालों से लुढ़कते देख पा रही थी मैं  .......

मैं कमरे का पर्दा खींच निकल आयी। कुछ सवाल अनुत्तरित रह जाने चाहिए ,जवाब जिनका खुद के पास ही न हो तो फिर नासूर बन जाने तक उनको कुरेदने से भी क्या हासिल।

मुझे पता है जिंदगी किसी के लिए नहीं रुकती  ........ सब चलते रहेंगे ,मिलते रहेंगे और फिर कहीं गुम जाएंगे फिर मिलने के लिए !

आप भी चलते रहिये पर जो साथ है उनका शुक्रिया करते रहिये कि वे साथ तो हैं ! ये साथ और साथ के भरोसे की मिट्टी नम रहनी चाहिए ! मोहब्बत की बेल इसी से हरीभरी रहेगी ! रिश्तों को हरा रखना है तो हाथ थामे  रखिये..... ! मौसम की फितरत है देर -सवेर बदल जाएगा !




Sunday 12 June 2016

राजनीति की रसोई में पकाने आये हैं तो चमचे और लोटों की जगह बना लीजिए !

राजनीति के रसोईघर में दाखिल होने से पहले कवच -कुंडल धारण करके आईये। पकाने आये हैं तो चमचे और लोटों की जगह बना लीजिए , दाल गलने से लेकर परोसने तक वही काम आएंगे । अगर जीमने आये हैं तो अपनी थाली -कटोरा लेकर पंगत में बैठ जाइये , "जैसे ही बनेगा परोसा जाएगा " पर भरोसा रखिये और इंतज़ार कीजिये।

इस रसोईघर में कुछ बर्तन हैं जो बरसों से काम नहीं आये ,शायद दादी दहेज़ में लाई हों या दादा जी जिद करके ले आये हों , बहरहाल वो ऊपर वाली दुछत्ती में पड़े हैं ,इस इंतज़ार में कि कभी जरूरत हुई तो निकालेंगे। मुझ याद ही नहीं कि वहां से बर्तन कभी निकले भी थे ,हाँ ये जरूर हुआ कि बाऊजी सबको बताते रहे कि उनके पास अंग्रेजों के जमाने का कलसा और मुगलों के जमाने का लोटा पड़ा है। बाज़ार में कोई खरीददार भी नहीं ,कबाड़ी को बेचेंगे तो मुहल्ला कहेगा कि पुरखों की निशानी बेच दी , सो सब जस के तस है।

निष्ठाओं के अचार की कई बरनियां भी एक आले में सजी हैं। ये सब मौसम आने पर सस्ते में मिल जाने वाली सब्जियां हैं तो बारहों महीने काम आती हैं। निष्ठा का अचार चटपटा और पाचक होता है। सब्जी न हो तो इसके साथ किसी गर्मागर्म बवाल को परोसा जा सकता है।

रसोई पार के कोने में एक चक्की है जो मुद्दों को पीस मालपुए का घोल बनाने के काम आती है। चक्की की घरघराहट से सात घर दूर तक पता चल जाता है कि आज दिन की रसोई में क्या पकने वाला है। सब अलर्ट हो जाते हैं और कानाफूसी शुरू हो जाती है। माहौल में उत्तेजना बनाए रखने के लिए ये दो पाट की मशीन बड़े काम आती है। इसे चलाता कोई और, और इसमें पिसता कोई और है।

मीडिया का दूध आंच पर चढ़ा है और बहने के इंतज़ार में है पर इस रसोई काका की पैनी नज़र से न दूध उबल के गिरता है न आंच ही मंदी होती है। ये दूध जितना उबलेगा इस पर मलाई उतनी गाढ़ी आएगी और रसोई काका  ही जानते हैं कि उस मलाई का हकदार कौन होगा सो आपको ये कभी पता नहीं चलेगा कि जो दूध आप चढ़ा के आये थे उसकी मलाई कौन खा गया।

राजनीति की रसोई सब्र का इम्तिहान भी लेती है। छुरी में धार न हो तो फांक नहीं मिलती और गलती से खुद को लग जाए तो धार रुकती नहीं सो सब्र से काम लें। थाली में बैंगन लुढ़क रहे हों  या तड़का लगाना हो या चार बर्तनों की टकराहट को सम्भालना हो ,आपको धीरज रखना ही होगा वरना रायता फैलते देर नहीं होगी और मेहमान रसोई की अव्यवस्था के लिए सब रसोई काका की जगह जजमान को लानते भेजेंगे।
यहाँ सब कुछ पकता है , छिलके से लेकर गूदे तक कुछ भी ! कचरे के डिब्बे में जो कुछ दिख रहा है वह सब उनकी किस्मत का लेखा है

सो देवियों -सज्जनों ! राजनीति की रसोई में सम्भल के पांव धरियेगा ! पांव के नीचे भी नज़र रखिएगा कि कोई टूटे गिलास का कांच ही न आ जाए या मक्खन पर फिसल जाएँ। यहाँ जो कुछ भी पक रहा है वो सबको बराबर पचे जरूरी नहीं सो बाजार से आदर्शों की भूसी खाते रहिये और यहाँ का लुत्फ़ उठते रहिये।

रसोई काका आपके अन्नदाता हैं उन्हें प्रणाम करके बाहर आईयेगा वरना अगली बार भूख लगने पर खाना तो क्या दाना भी नसीब नहीं होगा !

नमस्कार ,चलते हैं ! हाँ ! जानते हैं ,भूख पर जोर किसी का नहीं है ........... 

Thursday 26 May 2016

प्रेम का कोना कभी बंजर नहीं होता , जरा नजदीक आये नहीं कि सब हरा हो जाता है। घाव भी और जमीं भी ..............

रिश्तों में घिरे ,रिश्तों में फंसे ,रिश्तों में जीते , रिश्तों में हारे ............. नाम वाले रिश्ते ,बेनाम रिश्ते सब खेला है .........सब माया है ,सब जानते हैं फिर भी भोगना में फंसे हैं ! न फंसने जैसा कोई विकल्प भी नहीं है किसी के पास।

वो बात करना चाहता है ! वो हैरान थी कि क्या बात करे उससे ............. 
सैंकड़ों प्रश्न जब संबंधों के बीच उग जाएँ तो उसकी परिणीति वही होती है जो हर संबंध की होती है। जवाब सबके पास हैं ,सबके अपने जायज तर्क हैं। रिश्तों में तर्क की असीमित सम्भावनाएं होती हैं। कभी भी किसी को भी सही या गलत सिद्ध किया जा सकता है। सब माहिर है ,अपनी सहूलियतों के हिसाब से सब जवाब गढ़ लेते हैं। 

उसके पास भी जवाब होंगे और इसके पास उनको मान लेने की वजह भी........... प्रेम का कोना कभी बंजर नहीं होता , जरा नजदीक आये नहीं कि सब हरा हो जाता है...... घाव भी और जमीं भी......

बात बात पर रूठना और जरा सा झुक के मना लेना क्या बुरा है। सुनने में सहज लगता है पर जब बात हर बार की हो तो गांठों के बोझ से प्रेम का धागा भी कमजोर हो जाता है।

उससे बात करने में बुरा कुछ नहीं ,कर लो पर फिर जब चोट लगे तो करहाने या चीखने के लिए दम जुटा लेना। वक्त हर बार इतनी मोहलत दे जरूरी नहीं है। कुछ लोग रिश्तों को पॉपकॉर्न की तरह इस्तेमाल करते हैं ,उनके लिए सिनेमा में हिरोईन की कमर और हीरो की दिलेरी देखने के लिए पॉपकॉर्न जरूरी है। तुम पॉपकॉर्न हो या कोक खुद तय करो ?

मैं उससे बतिया रही थी मनो खुद को जी रही थी ! उसका डर जायज है , उसका डर उस अनुभव की देन है जो वो भी जी रही है पर पिघल जाती है और पिघलना बुरा भी नहीं। बुरा सिर्फ परिणाम है ,जो डराता है डस्टबिन की शक्ल में। लोग भी चेहरे पर चेहरे चढ़ाये गुज़रते हैं , रटे रटाये डायलॉग - कही कहाई कहानियां कितना भरोसा करें और भरोसा उनका क्या अब खुद पर भी नहीं होता !! 

कोई तराजू ले कर नहीं बैठा पर सब एक दूसरे को तोल टटोल रहे हैं। टाइम पास के लिए रिश्ते और संबंधों की दुकानदारी में जितना कुछ एक के साथ एक फ्री का लालच है उतना जिंदगी भर की जमापूंजी जाने का डर भी है। 

अवसाद से बचना है तो रिश्तों में मज़ाक से बचिए। आपके लिए मनोरंजन हो सकता है पर किसी और के लिए ये जिंदगी का सवाल बन सकता है। हर कोई "वो " नहीं हर " वो " "वो " भी नहीं। जब मज़ाक बनाते हैं तो बनाते रहिये और फिर बन जाने के लिए भी तैयार रहिये। जिंदगी खेल का मैदान जरूर है पर बेईमानी से जीते तो हारने वाले से उसके ईमान का सुकून तो फिर भी हासिल नहीं कर पाएंगे। 

उसको बख्श दें ! छल के खेल में किसी के ईमान किसी की मासूमियत को जीतने से बेहतर है कि उन को चुनें जिनके पास दिल नहीं फौलाद है ताकि जब आपको चोट लगे तो अहसास हो कि दर्द किसे कहते हैं !

चलते रहिये ! बचके रहिये !

Thursday 12 May 2016

रिश्ते फ़ास्ट फ़ूड नहीं होते ........

तुम किसी रोज़ "मैं " हो कर मुझे देखो ......
उससे क्या हो जायेगा ?
देखो न कभी ,फिर पूछना !
तुम हो जाना मुश्किल है मेरे लिए ! कहाँ से शुरू करूंगा ,नहीं समझ आएगा !
शुरू ऐसे करना कि मान लेना कि मैं मेरे साथ नहीं हूँ तुम्हारे साथ हूँ और अकेली भी हूँ !
उफ्फ्फ ! जिंदगी को जलेबी बना के जीती हो तुम !
जलेबी सी जिंदगी   ......... आह्ह्ह ! क्या ख्याल है और इस जलेबी की चाशनी तुम हो !

वो किसी एक सिरे को पकड़ कर मुझ तक पहुंचने की राह बनाता है और खुद ही उलझ जाता है। रिश्तों का मकड़जाल होता ही ऐसा है , कोई कभी कहीं पहुंचा ही नहीं ! सब भरम में जीते हैं ,सफर के -मंजिल के -साथ के......... ये मुगालते हैं ! सबने पाले हैं ,सब छले जाते हैं और सब फिर भी जमे रहने के लिए जमे रहते हैं।

किसी शाम पहाड़ी पर बैठे -बैठे उसने मेरे आँचल से अपना मुहं ढांप लिया और कहने लगा कि बस अब इसके बाद समय को रोक लो ! सूरज को डूबने से रोकती या अपना आँचल सरका लेती............

जब मन का हो तो समय रेत सा फिसलता है और ना हो तो तन तपती बालू में  धंसा जाता है। हवाओं में उलझते बालों ने कोई नज़्म लिख डाली है। ये वक़्त किसी सूरज का पाबंद हो सकता है पर मन का पंछी उड़ने के लिए किस घड़ी को देखता है। वो बस उड़ जाता है ,समंदर के पार कोई है ........... जो कहता है तुम होतीं तो ऐसा होता,तुम होतीं तो वैसा होता  .......... तुम कहाँ नहीं हो ,कब नहीं हो और मैं भी कब तुम्हारे साथ नहीं हूँ ! ज़रा हाथ भर बढ़ाओ और महसूस करो मुझे !

रिश्ते फ़ास्ट फ़ूड नहीं होते ,ये इश्क़ की इंस्टेंट डिलीवरी लेने वाले , कूपनों और स्कीम के मोहताज नहीं समझ सकते !
किसी पगडण्डी पर हाथ थामे खामोश सिलसिले को जीना फूलों के उस शज़र जैसा है जो आज भी उस झील किनारे मुस्कुरा रहा है ! हम आज भी वही हैं और कहीं नहीं हैं !

चलते रहना और मुस्कुराते रहना आप भी ,कोई है जो आपसे हौसला मांग रहा है और दे रहा है तो इन पलों को संजो के रखिये ! काम आएंगे !






Monday 2 May 2016

उसके साथ मेरा रिश्ता यायावरी का है .......

सफ़र पर निकली हूँ तो अब लौट जाने का मन नहीं है .........  यायावरी रास आने लगी है। जिद ने जद को हरा दिया है ! किसी ने पूछा  कहाँ पहुंचना  है ? मैंने पूछा , आप कहाँ पहुंचे ? कहाँ से चले थे ........ किसी सिरफिरे के पास ही मेरे सवालों के जवाब होते हैं ! मज़ेदार है  , सब  सफर पर हैं पर सब इमारतों को अपनी जागीर समझ के इंचटेपिया हो रहे हैं। यहाँ से यहाँ तक तेरा और वहां से वहां तक मेरा !  किसको कब क्या हासिल हुआ ये सिर्फ बायो में लिखा है और बायो की हकीकत से जिंदगी का असल दूर है !

उसके साथ मेरा रिश्ता यायावरी का है ........एक  शाम  उसने भी पूछा " तुम ठहर जाओ ,थकती नहीं हो क्या ? " मैं हंस पडी ......... ठहरने के लिए अब समय नहीं है , मैं जल्दी में हूँ !! वो पहाड़ देख रहे हो ना ,उसके पार मुझे जाना है ........
तुम पागल हो , वो बादल हैं !
बादल तुम्हारे लिए हैं , मेरे लिए उनके पार एक एक दुनिया है जो धुआं धुआं ,सीली सीली , तैरती हुई , हर  कुछ से परे, बरसने को तैयार है !
ये बातें हकीकत से परे हैं ......... वो ऐसे कहता है ,जैसे मैं सुन ही रही हूँ और कहते कहते वो भी मेरा हाथ थामे  बादलों के पार चल देता है।
हकीकत  के किस्से बादलों की स्याही में घुलने लगे हैं। ये इश्क़ का बादल है ,खामोशी से आया है और जिंदगी में हज़ार रंग घोले जा रहा है। झील में तैरती सैंकड़ों रोशनियाँ मेरी दहलीज़ पर ला सजाई हैं उसने .......  जब इश्क़ में होते हैं तो उसके पार कुछ नहीं होता और इस पार हम नहीं होते। बैंच पर बैठे डूबते सूरज को देखते हुए हम अपने भीतर रोशनी का दरिया जमा कर रहे हैं , दरिया के इस छोर पर वो और इस छोर मैं  ........ !

आवारगी का ये सम्मोहन उसके इर्दगिर्द होने के एहसास से और बढ़ चला है।
"सफर अकेले करना चाहिए " मैं कहती हूँ।
यानि मैं लौट जाऊं ?  वो पूछता है।
तुम आये ही कब जो लौट जाओगे ?
उलझा दिया तुमने ,चलो उलझा ही रहने दो ! सुलझने से क्या पा लिया अब उलझे रहने में मज़ा आने लगा है ! तुम अकेली सफर पर रहो ,मैं बस तुम्हारे साथ रहूंगा !

तो मैं जीती ......... मेरी यायावरी जीती ! आवारा लम्हों के सफर में जिंदगी जीती है !
चलते रहिये आप भी , सफर में रहेंगे तो मुगालतों से बचे रहेंगे। दुनिया में किसी को न बदल सकते हैं ,न सिखा -पढ़ा सकते हैं ! आप काहे जी जला रहे हैं  ......... भीतर के सफर को बाहर के सफर से अलग कर लें और यायावरी  का मज़ा लें !

चलते हैं !
 


Sunday 1 May 2016

तुम्हारी आवाज़ मेरे आँचल को सितारों से भर देती है !

अकस्मात ही तुम मिल गए ...... कुछ दिन पहले मिल जाते ...ना ,कुछ साल साल पहले ,अरे कुछ उससे भी पहले........ पर तुम नहीं मिले ! तुम को तब मिलना ही नहीं था ! वक्त भी मजिस्ट्रेट है मनो ,वक्त ही क्या हर लम्हा जज की कुर्सी पर बैठा है। तुम लम्हों का सबसे नायाब तोहफा हो जो जिंदगी की किताब के सबसे दिलचस्प मोड़ पर साथ चलने को हो !!

मैं तुमको उन लम्हों से चुरा लाई हूँ या तुमने मुझे ढूंढ निकाला है !! हहहहा  ..... ये रोज की लड़ाई है और जीतता कोई नहीं ! हम दोनों ही हारना चाहते हैं ! ये वक़्त और चाँद से दूरी कुछ नहीं है। सांसों की लय पर सफर तय किया जा सकता है। मीलों चला जा सकता है और बरसों तक निभाया जा सकता है। जो कुछ हमने पाया ,जो कुछ हमने जिया , वो महक रहा है मेरे चारों ओर।

तुम बात करते करते कहीं गुम जाते हो और मैं सुनते- सुनते कहीं और निकल जाती हूँ।  हमारे पास इतनी कहानियां हैं ,इतने फ़साने हैं कि जमाने बीत जाएंगे खत्म होने में पर वो किस्से खत्म नहीं होंगे। चलो छोड़ो..... हम अक्सर एक दूसरे को कहते हैं और फिर से उसी किसी सिरे को पकड़ कर उस सिलसिले को दफन करने लगते हैं। ये साथ का रोना ,साथ का हंसना...... अच्छा लगता है !

मुस्कुराहटें बिखर रही हैं ! चेहरे पर तैरते सुकून और तुम्हारी ख्वाहिशों की दलीलें मेरे आसपास रुमानियत का जंगल उगा रही है।

कौन इतनी फ़िक्र करता है कि चाँद को उदास नज़र से ना देखा जाये या उदास किसी भी ग़ज़ल और किसी भी चुभने वाले लम्हों को जमींदोज़ कर मुझसे दूर कर दिया जाए ।  अब जिंदगी की टाइम लाइन को मैंने तुम्हारे हवाले कर दिया है ,तुम जो चाहे रखो ,जिसे चाहे रखो. ....... ये पासवर्ड मुसीबतों का फेरा है ! जो घर में ताला नहीं लगाता उसके लिए ये सब सम्भालना भी बेकार है........ बस मैं और मेरा सुकून ,मेरी आवारगी ....... मेरे साथ चल ! सब बवाल से दूर , बस खामोश हम -तुम .........

तुम्हारी आवाज़ मेरे आँचल को  सितारों से भर देती है ! मैं रात उसे मुहं तक ढांप हर उस शह से दूर निकल जाती हूँ जो मुझे सताती है ! मैं खुश हूँ कि जिंदगी महरबां है मुझ पर ........अब कोई जिक्र नहीं और फ़िक्र भी नहीं क्यूंकि रिश्ता अब कोई उस नाम  का है ही नहीं !

कभी जी कर देखें ,कभी अमृता -इमरोज बन कर देखें ! देह के पार भी कोई दुनिया है जो हज़ारों बरस से उसके मेरे बीच इश्क का समंदर बन रोज़ ही उतरती है ! ये सफ़र उसके नाम का उसी के साथ हो चला है !
मैं नज़्म लिख रही हूँ , वो कहानी लिख रहा है ! किसी दिन साथ छापेंगे ! आप पढियेगा जरूर.........





Friday 29 April 2016

डिजिटल इश्क़ का कबूतर कोई नज़्म लिख रहा है !

कुछ अनसुना, कुछ अनकहा सा रिश्ता बन गया है उससे ! अजीब सिलसिला हो गया है डिजिटल मुलाकातों का ...... वो चुप से आकर कुछ शब्द डीएम में रख जाता है ,मैं चुप सी मुस्कुरा कर उसे देख लेती हूँ ! जवाब देना कोई जरूरी भी नहीं ! वो जानता है ,पहचानता है ,वो मेरी जिंदगी की टाइम लाइन का साथी है ! उसको पल पल की खबर है कि मैं किस गली, किस  गुज़र से गुज़र रही हूँ।

डिजिटल इश्क़ का कबूतर दिखाई नहीं  देता पर करता उतनी ही गुटरगूं है। टोकना ,डांटना , जिदना उसको सब आता है बस नहीं आता तो खत लिखना ! इश्क़ में अजनबी बने रहना जरूरी है। पहचान जाईयेगा तो ये ख्वाब भी टूट जाएगा इसलिए जानने की जिद छोड़ कर रिश्ते में आज़ाद रहा जाये तो बेहतर है वरना मुखौटे और किरदार तो गली के हर मोड़ पर मिल जाते हैं।

मैं भी उसका हारना, उसका जीतना जी रही हूँ ,उसकी मंजिलों पर इतराना मेरा फितूर है और मेरी हर मुस्कुराहट उसके लिये सांस का सबब है । ये एक मज़ेदार संवाद है जहाँ रिश्ते का कोई नाम नहीं ,कोई पहचान भी नहीं है इसीलिये इसमें उसका होना खुदाई का सबूत है।

ये अजनबी कोई और नहीं है  ,वही है जो आवारगी के इस दौर में मेरा साथी है। झट से मेरे साथ हर सफर में साथ हो लेता है ....... चुप सी पूछती हूँ ,चलोगे ? उसका जवाब होता है " तारीख बता दो रिजर्वेशन करवा देता हूँ " ! उसकी इसी लाचारगी से प्यार हो चला है !

खूबसूरत से सफर पर जिंदगी बह निकली है ! चैत की दुपहर अपनी जुल्फों में गुलमोहर और देह पर अमलतास सजाए इतरा रही है। मैं महक रही हूँ और ख़्वाहिशों के दामन में सितारे चुन रही हूँ ........  पखडंडी और झील किनारे का मौसम रिमझिम का है ! भीगती मैं और बचाता हुआ वो ........ वो डरता है ,पिघल जाएगा न दो बूँद से पर मेरे चेहरे के सुकून में उसे भीगना भी मंज़ूर है।

जब पैरों तले सुर्ख अंगारे हों और कोई धुंआ -धुंआ आसमां में उड़ा के लिए जाए  ........ कुछ कुछ एक दम ऐसा ही ......  गुलाब की पाँखुरी से कोई नज़्म लिख रहा है मनो !

मैं गुनगुना रही हूँ ! आप भी मुस्कुराते रहिये ! वक़्त ने मोहलत दी है तो उसे भी भरपूर मोहब्बत करिये !





Thursday 28 April 2016

केवल साहिब की डिग्री भूल जाइये और देश के करोड़ों बेरोजगारों की डिग्री देखिये !

तो बड़े साहिब जी डिग्री नहीं दिखा रहे हैं , न ही साहिब-नामा में उल्लेखित चंद नामों के सिवा कोई और स्कूली या कॉलेज जीवन का टीचर या सहपाठी किसी की नज़र में आया है।

साहिब ऐसा क्यों कर रहे हैं , नहीं पता ! यदि वे सच में पोलिटिकल साइंस के विद्यार्थी रहे हैं तो किसी ने तो उनको पढ़ाया होगा ,किसी ने तो उनके साथ परीक्षा दी होगी ,कोई तो कहे कि हाँ हमने साथ फार्म भरा था। यूनिवर्सिटी जब किसी की भी डिग्री का सत्यापन कर सकती है तो साहिब की डिग्री को पर्दे में क्यों छुपा रही है।

मुझे लगता है ये प्रश्न ही चाय वाले के साथ साजिश है। लोग जलते हैं कि वो इस पद पर कैसे आ बैठा ? सही है जिस देश में अनपढ़ मुख़्यमंत्री राबड़ी और सांसद गोलमा देवी हो सकती हैं वहां का प्रधानमंत्री भी कम पढ़ा लिखा हो तो देश की छवि डिजिटल इंडिया की नहीं बन पाएगी। हम स्मार्ट सिटिजन नहीं कहला पाएंगे।

बार बार डिग्री मांगने वाले साहिब के 10 लाख के सूट से भी जलते हैं। अगर इन डिग्री मांगने वालों को ये आइडिया पहले आ जाता तो सारी किताब अपने कच्छे ,कमीज और पेंट पर छाप के परीक्षा में पहन के जाते और गोल मैडल जीत के ले आते।

साहिब की चाय पीने वाला और वैवाहिक संबंधों की पुष्टि करने वाला कोई नहीं जबकि साहिब को अपने विपक्षी की करोडों  की गर्लफ्रेंड की हर जानकारी है और वे हर बेटी के हर "गलत कामों " पर नज़र रखने के लिए राष्ट्रीय अध्यक्ष को मनोनीत कर सकते हैं।

अब मैदान में आई आई टी डिग्री धारी कूदा है कि डिग्री दिखाओ साहिब ! कमाल है , राष्ट्रीय झूठधारी से सच की इबारत लिखने को कहा जा रहा है। ये सब लोग जो डिग्री के पीछे पड़े हैं सब साहिब से जलते हैं क्यूंकि साहिब दिन में चार बार कपडे बदलते हैं ,धुआंधार भाषण देते हैं ,लाल आँख करके चीन -पाकिस्तान को डरा देते हैं हैं। जम्मू में नरम दिल्ली में गर्म रहते हैं और अगले वैश्विक चुनावों में विश्व के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं।

आप केवल साहिब की डिग्री भूल जाइये और देश के करोड़ों बेरोजगारों की डिग्री देखिये ! अब हर अनपढ़ प्रधानमंत्री बन जाए ऐसी किस्मत हर चाय वाले चौकीदार की नहीं हो सकती।

सो साहिब पर भरोसा रखिये !आखिर नेतृत्व ने डिग्री छिपाने की सोची है तो इसमें भी भारत का ही कोई वैश्विक हित शामिल रहा होगा !

सो सवाल मत करिये बस निष्ठा नामक अगरबत्ती जला के 2025 तक के लिए सो जाइए !

प्रणाम !


Saturday 23 April 2016

अगला स्वयंवर राज्यसभा का है। हल्दी लगाओ बे नेता जी को .........

सत्ता कितनी भी हो पुरानी हो मेकअप नई बहू सा रखती है। दर्जन भर चूड़ियां ,कंधों तक मेहंदी नाक तक सिन्दूर ......... ! उसका हनीमून अगले स्वयंवर तक जारी रहता है। इस सत्ता का धणी उसका नेता होता है। हमेशा जजमान की मुद्रा में अचकन -टाई लटकाए रहता है। कार्यकर्ता सब बराती होते हैं। दूल्हे के आसपास बने रहेंगे तो फोटो में चेहरा आता रहेगा ,लोग चार बार दूल्हे का अता पता ही पूछ लें तो बरात में शामिल होना वसूल हो जाता है। 
सत्ता-नेता ब्याह में जनता को पंडित की भूमिका दी जाती है। कुंडली मिलाने के लिए दो जोड़ी रेशमी धोती और मलबरी के टंच कुर्ते का लालच और दक्षिणा में पंडित की औकात के अनुसार नकद का प्रावधान काफी है। दारु -मुर्गे की शौकीनी हो तो सत्ता की शक्ल और नेता की अक्ल से भी सरोकार नहीं होता। वो जैसा बोलो ओके कर देती है। 

हर ब्याह में जीजा -फूफा होते हैं ,सत्ता -नेता ब्याह में ये काम विरोधी दल करते हैं। वे कभी भी कहीं भी पसर सकते हैं। इज्जत उनकी वैसे कोई नहीं होती लेकिन मजबूरी है कि फेरे में डंडा फूफा गाढेगा ,जीजा साफ़ा बांधेगा सो संविधान की पालना के चलते उनको बुलाया जाना होता है। 

मीड़िया हॉउस इस ब्याह में ब्यूटीपार्लर होते हैं। सत्ता का श्रृंगार उनके दक्ष एंकर करते हैं। दुल्हन के नैननक्श ,कद -काठी के हिसाब से नकली गहने पसंद करवाए जाते हैं। ब्याह के कई दिन पहले से तय दर के हिसाब से सिटींग दी जाती है जिसमे उसे नख से शिख तक अभूतपूर्व सुंदरी बनाने की कवायद की जाती है। एंकर पूरे मनोयोग से उसकी ओढ़नी को जमाता है ,लटें संवारता है कि ऐन मौके जरा चूक ना हो जाए। 

दूल्हे नेता भी इसी पार्लर में जाते हैं ,आखिर रंग असली कैसा भी हो दिखना वही चाहिए जो पिया मन भाये। सत्ता की मैचिंग शेरवानी और साफ़ा बन के तैयार है। बरात दरवाजे पर आ पहुंची है। सोशल मीडिया बैंडबाजा है जिस के हाथ ट्विटर का झुनझुना ,फेसबुक की फूफडी और व्हाट्सप्प का ढोल है। बारात जैसे जैसे दरवाजे पहुंचती है सब जोर जोर से बजने लगते हैं , जीजा -फूफा नागिन नाच करते हैं और बाराती -घराती अपने बेस्ट में तैयार हो नेता-सत्ता के आगे पीछे हो लेते हैं। हर  बराती -घराती इस मुगालते में होता है  मने वो नहीं होगा तो ये ब्याह ही कैंसिल हो जाएगा। 

चंदे की नुक्ती -पूड़ी खा कर लौटने को होते हैं तो सत्ता -नेता का बाप दरवाजे हाथ जोड़े खड़ा होता है। लिफ़ाफ़े दिए बिना लौटेंगे तो आपके नाम के आगे शून्य दर्ज हो जाएगा फिर लल्ला के शगुन की लिस्ट में आपका नाम कट मानियेगा !

अब क्या ......... ब्याह हो गया ना ! हनीमून काल है ,फोटो सब देखते रहिएगा ! उनकी गलबहियों को देखते रहिये। पांच साल बाद ये फिर आएंगे तब तक नेता जी की सेवा पूजा करते रहिये। कल को सत्ता ने फिर इनके गले में ही हार ड़ाल दिया तो ये कहने से भी जाओगे कि हम तो दूल्हे के जिगरी हैं और दुल्हन के पास्ट प्रेजेंट का बही खाता रखते हैं। 

सो नेता जी के साथ माल उड़ाइये , अगला स्वयंवर राज्यसभा का है। हल्दी लगाओ बे नेता जी को ......... का ब्लॉग में टुकुर टुकुर पढ़ के समय खाली कर रहे हैं। चलते रहिये ब्याह का काम बहुत है ,हैशटैग का टोकरा खाली कर दीजिये  ,मोगरे के इन फूलों से दुल्हन इनकी ही न हो तो कहिएगा !

शुभ विवाह !

Friday 22 April 2016

हैशटैग क्रांति से मुद्दों को पासबुक फॉर्म में ले आना भी उपलब्धि है।

हैशटैग क्रांति के वीर सेनानियों को मेरा नमन है। हे क्रांति दूतों तुम इतनी ऊर्जा कहाँ से लाते हो ? ये ठीक है कि तुम ट्विटर मशीन से चार -छह शब्दों को मिसाइल के तौर पर इस्तेमाल करके विरोधी के किले पर  ताबड़तोड़ वार कर उसे हतप्रभ कर देते हो लेकिन इतनी मोटी चमड़ी की सत्ता पर इसका असर अब नहीं होता है। कुछ और सोचो मित्रों !

दिनभर ट्रेंड बदलता रहता है पर समस्याएं और मुद्दे तो महीनों और वर्षों बाद भी वही रहते हैं। बदलता क्या है ? सोशल मीडिया के अतिदोहन ने उसे भड़ास मंच बना दिया है। चर्चा के लिए अब कोई मंच शेष नहीं है। या तो आप महिमा मंडन कीजिये या अपनी मुंडी का  भंजन करवा लीजिए। बच के निकल जाना चाहते हैं तो अपने पीछे गैर जिम्मेदार देशद्रोही का टैग लगवा लीजिए। 

कहीं कोई सूरत नहीं ,कोई विकल्प भी नहीं ! हैशटैग भी मंडन -विखंडन की फैक्ट्री है। सामजिक मुद्दों की आड़ में कहीं सत्ता की रोटी सिक रही है तो कहीं निर्दोष बापूजी की आड़ में भावनाओं का दोहन हो रहा है। सच में अगर कोई द्रवित हो रहा होता तो और इतने लोग अगर उस मुद्दे को लेकर गम्भीर होते तो कोई जनांदोलन बन चुका होता पर ऐसा नहीं हो रहा है।  

पंजाब के नशे पर चिंता है ,मराठवाड़ा के पानी का रोना है , मोदी जी की डिग्री की चिंता है ,केजरीवाल का सम -विषम है , इस बीच शाहरुख और ना जाने किसी किस का हैशटैगीकरण होना है। करिये खूब करिये लेकिन नतीजे की भी तो परवाह कीजिए ! उसका असर होने तक मैदान में तो रहिये। अपॉइंटमेंट की तरह हैशटैग चलाते रहिएगा तो उसकी भी कद्र निर्दोष बापूजी सरीखी हो जाएगी। 

तमाम सत्ता दलों की तरह हैशटैग उद्योग में भी रवीश के शब्दों में "इज़ इक्वल टू " का सिद्दांत खूब चल रहा है। बताओ मोदी जी ,बताओ सुषमा जी ,बताओ अलाना , बताओ फलाना जी करके सवाल दागते रहिये और दूसरी और से गलियों की जमात में सक्रियता पैदा करते रहिये। सवाल डिग्री को लेकर होगा जवाब में अफजल और शीला -मुन्नी ले आईयेगा ! बेजा - बेहूदे तर्क वितर्क कर, सोशल मीडिया का दोहन कर हम भीतर भी बंजर जमीन तैयार कर रहे हैं। 

इस सब में एक अच्छी बात हुई है वो ये कि हम समस्याओं और मुद्दों को पासबुक फॉर्म में ले आये हैं। इससे हम किसी भी ग्रुप बकलोली में आसानी से हारते नहीं हैं। ज्ञानचंद ,रायचंद प्रसन्न हैं कि कर्मचंद काम कर रहा है और कर्मचंद भी खुश है कि दोनों बेरोजगार भाई काम पर लगे हैं। 

जिस मीडिया की नज़र में आने के लिए ये हैशटैग चलाए जाते हैं उसकी अपनी तो कोई सुनवाई होती नहीं फिर इस हैशटैग वार की चपेट में आने वालों की कौन सुनता है ? जिसने शाहरुख की फिल्म देखनी है वो ट्रेंड देखकर जाना या नहीं जाना तय नहीं करेगा न हैशटैग देखकर मोदी अपनी डिग्री किसी को दिखा देंगे। केजरीवाल हैशटैग से पानी मराठवाड़ा नहीं पहुंचा सकते और न ही मोदी को दिल्ली के कामकाज में टांग अड़ाना बंद करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। 

सत्ता और समाज की मोटी चमड़ी पर स्पंदन के लिए हैशटैग की खुरच नहीं तीखे सामजिक आंदोलन और विमर्श की जरूरत है। टच से मुद्दे फिसलते रहें और कर्म से आज़ाद रहें ,वे यही चाहते हैं और हम वही कर रहे हैं। 

चलिए खुश रहिये ,करते रहिये ,कहते रहिये ! होना न होना सब सत्ता के हाथ है हमसब तो निमित्त मात्र हैं जिनका इस्तेमाल कोई भी करने के लिए स्वतंत्र है। ताली ही बजानी है इधर बजायें या उधर, बात एक ही है। 

सोशल मीडिया के क्रांति दूतों को प्रणाम ! भरम कायम रहे !




Friday 25 March 2016

समाज को धार्मिक कोढ़ हो गया है। सवाल केजरीवाल के पीड़ित परिवार से मिलने का नहीं सवाल ये बनाया जा रहा है कि दादरी गए थे तो पंकज के घर क्यों नहीं गए ?

हत्या कैसे जायज ठहराई जा सकती है। कहीं भी हो ,किसी भी रूप में हो ,ये प्रकृति के न्याय के विरुद्ध है। इस अपराध में सोशल मीडिया भी हमलावर है ,वो भी बराबर का हिस्सेदार है ........  देशप्रेम को धर्म से जोड़ दो , वोट को धर्म से जोड़ दो , मरण ,परण ,जनम सबको धर्म से जो दो......... धर्म ना हुआ कोई  हथियार हो गया है। 

धर्म की दुहाई देकर कभी अख़लाक़ के हत्यारों को बचाए या घेरे जाने का प्रयास होता है तो कभी दिल्ली के डॉक्टर नारंग की हत्या को साम्प्रदायिक रंग दे सत्ता की गोटियां चलने का मामला बनाया जाता है। आका हुकुम देते हैं और चेलेचपाटे या रेवड़ कहिए व्हाट्स एप्प ,फेसबुक पर भड़काने वाले संदेश ,हरे गेरुए रंग में पोत कर पटा देने का प्रयास करती है। 

वे जानते हैं कि अधिकांश लोग बिना घटना की तह तक जाए चंद संदेशों के आधार पर भड़केंगे और उनके साथ नारे लगाने सड़क पर आ जायेंगे , नहीं भी निकले तो 10-20 को संदेश तो प्रसारित कर ही देंगे। इन संदेशों के आवेश में आकर फिर भले कितने और पंकज ,कितने और अखलाख मरें इसकी परवाह किसी को नहीं। 

दिल्ली में बच्चे के बाहर खेलने पर एक मोटर साइकिल सवार को कुछ कह देना एक व्यक्ति को इतना भारी पड़ा कि मोटर साइकिल सवार धमकी के साथ घर लौटा और साथ कुछ लाठी -डंडों से लैस गुंडों को लेकर आया और उस इंसान को इतना मारा कि उसने दम तोड़ दिया।  
दूसरे मामले में भीड़ ने एक इंसान को इसलिए मार डाला क्यूंकि किसी ने बताया कि वह गौ मांस खा रहा है। 

दोनों ही मामले में मरने वाले के खून का रंग लाल ही था। दोनों के ही परिवार मातम मना रहे हैं। दोनों में से दोषी कोई नहीं था। दोनों ही युवा थे और सुंदर भारत का सपना पाले हुए थे ,अपने घर के चिराग थे। 

कौन हक़ देता है हमको ये सवाल उठाने का कि उनका धर्म क्या है ,क्या था ? जो जिन्दा हैं उनका धर्म क्या है ,ये कि वो जन भावना को इस कदर दूषित कर दें कि बौद्धिक हैवानियत उनके जिस्म से फूट कर मवाद बन बहने लगे ? 

समाज को धार्मिक कोढ़ हो गया है। सवाल केजरीवाल के पीड़ित परिवार से मिलने का नहीं सवाल ये बनाया जा रहा है कि दादरी गए थे तो पंकज के घर क्यों नहीं गए ? किसी ने ये प्रयास नहीं किया की हर पीड़ित परिवार इस मनोदशा में नहीं होता कि ऐसे दुखद परिस्थिति में किसी बाहरी व्यक्ति को शामिल कर सके। 
केजरीवाल भले ही मुख्य्मंत्री हों पर बिना परिवार की सहमति के उस परिवार से उस समय मिलने की जिद नहीं कर सकते जब वो किसी से मिलना नहीं चाह रहा हो। 

पुलिस ने हमलवारों को पकड़ा है ,प्रशासन धार्मिक उन्माद फ़ैलाने वालों से सतर्क रखने के प्रयास में है तो अब ये हम सबकी जिम्मेदारी हैं कि ऐसे लोगों को जो अपने निज स्वार्थों की रोटी लाशों पर सेकनें के आदी हो गए हैं को पहचाने और सयंम रखते हुए उन लोगों को पहचान सकें तो छद्म राष्ट्रवाद की आड़ में आये दिन धर्म की बोटियाँ उछाल हमें जानवर बना रहे हैं। 

इंसानियत बचाए रखिये , हर धर्म का यही सार है। 


लौटने के लिए कुछ तारीख़ें वक्त तय करके रखता है। आखिर तारीखों का भी तर्पण होता है ,उनमें में भी प्राण होते हैं।

दिल खुश है आज .......  बोझ उतरा हो मानो ! बेवजह की जंजीरें ,बेकार के सिलसिले खुद ही खुद से उलझने -सुलझने के सिलसिले,  नामालूम से सवाल और कभी ना मिल सकने वाले जवाबों की बेजा खोज ! तर्क कुछ नहीं कुतर्को के सहारे अतीत को थामे रहकर खुद को प्रताड़ित करते रहने का कोई अर्थ भी तो नहीं।

अपने फैसलों का खामियाज़ा खुद ही भुगतना होता है। गलत सही का फैसला समय करेगा। 

ये होली गयी और रंग दे गयी ,रंग गयी। मैं फिर से जिंदगी में लौट आयी..........  लौटने के लिए कुछ तारीख़ें वक्त तय करके रखता है। आखिर तारीखों का भी तर्पण होता है ,उनमें में भी प्राण होते हैं। 

खुद को आज़ादी मुबारक कहने का दिल कह रहा है ,वक़्त ने ये हौसला दिया है कि आवारगी कायम रहे। अपने अगले सफर पर निकलने की तैयारी है।  बाबा नीम करोरी के पास जाने का मन है। पहाड़ बुला रहे हैं ,मैं आ रही हूँ........ 

बाहर की व्यवस्था से लड़ना आसान है पर भीतर की उठापटक से जूझना बेहद मुश्किल।  आसान से सवाल और सीधे सपाट दिखने वाले रास्ते उतने सहज भी नहीं जितने प्रतीत होते हैं।  मन के चक्रव्यूह में ख्वाहिशों का अभिमन्यु हर बार मारा जाता है पर ना मन बाज आता है ना ख्वाहिशों की ताक़त कम होती है। 

हम सब भीतर की महाभारत में कभी दुर्योधन कभी कान्हा बन जाते हैं कभी गांधारी बन अंधत्व का ऐच्छिक वरण कर सुख की अनुभूति लेते हैं और दुःख को स्वनिमंत्रित कर बैठते हैं। 

मन भी कमाल है ,कितना धमाल करता है ! सबकुछ उल्टा पुल्टा अस्त व्यस्त और उसके बाद पसरा सन्नाटा ..... समय वो भी बीत जाता है और फिर से वही सब दोहराया जाता है। हर बार, बार बार और कितनी बार मन के फेर में फेरा लग जाता है ,आंसुओं की लड़ियां बांध जाती हैं ,कभी मन समंदर हो तुमसे गले लग जाता है। 

जीवन भी अद्द्भुत है ,तुम संगीत हो। गूंजता है हर पल और उसकी रुनकझनक मुझे जंगल में खींचे लिए जाती है........ असीम शांति और सुकून के लम्हे चुरा ही लिए हैं मैंने !!

जिंदगी को मृर्त्योत्सव की तरह जी लीजिए ! है भी और नहीं भी और होगी भी नहीं ........  वेदना को क्षमा के दरिया में बहा आइये और देखिये ये संगीत फिर बजने लगा है !

खुशियों की चाबी क्षमा में निहित है , खुद को भी कीजिये और और अपने अपनों को भी कीजिये ....... अब हो जाता है ना कभी कभी ,आपसे भी और उनसे भी !!

चलते रहिये -मुस्कुरा के गले मिलते रहिये ! देखिये कोई रूठा तो नहीं है ना आपसे .......... दो कदम आगे बढ़ा के मना लीजिए और न माने तो दुआएं भेजिए कि सब सुख सब के आंगन में बरसे। 

Saturday 12 March 2016

मैं ,तुम और मेरी आवारगी बस और कोई नहीं है ................

एक लम्हा गुज़र गया , चुप से बिखर गया ! मेरे आँचल में सिमटा वो एक अधूरा सा एहसास उसकी सिलवटों पर पसरा रहा। मैं दिन की घड़ियां गिनती रही ,शाम की सीढ़ियों पर जब रात ने दस्तक दी तो चाँद दरवाजे आ खड़ा हुआ।  सितारों से भरा मेरा आँचल रात की सरगम पर गुनगुनाता रहा !

मैं वक्त हो गयी ,इसी तरह बीतती रही और उतरती रही उसके सांचे में ,उसकी लय से अपनी ताल मिलाने में लम्हे साल और साल जनम में कब बीत गए पता ही नहीं चला। 

मैं तुमको शब्दों में उतार किसी रोज अपने सिरहाने रखना चाहती हूँ पर तुम्हें छपवा कर किसी और के हाथों ,किसी और के सिरहाने नहीं रख सकती। मैं पढूं ,मेरा किरदार मेरे लम्हे और हमारा वजूद उतार दूँ कहीं। 
ऐसा भी कभी होता है भला पगली कि मैं रहूँ और ना भी रहूँ 
हाँ तुम तो ऐसे ही हो , होते भी हो और नहीं भी हो। 
मेरे फरमान मानते भी हो ,उलझते भी हो और सुलझ के फिर बिखर भी जाते हो !

 क्या खूब खेल है ये जिंदगी का ........   धूप कंचों से खेल रही हैं और शाम सिरहाने बैठी है। जादू सा उतर आया है आँगन में। लोग चेहरे से तेरा पता लेने में लगे हैं, मैं हर हाल में तुझे ज़माने से चुराने की जिद पे उतर आयी हूँ। 

आ जाईये , गुलालों का मौसम आया है ! वही रंगों के गीत वही कुनमुनी सी ताल किनारे की हवा का झौंका गुज़रा है !

मेरी ख्वाहिशों मुझे तुमसे बेइंतिहा इश्क़ है !! मैं कब तुमसे अलग रही और कब तुम्हारे साथ थी ........... बेमानी से सवाल है ! बस सच  यही है कि रंग बेहिसाब और जिंदगी सिर्फ ख्वाब तुम्हारे नाम का है !

मैं ,तुम और मेरी आवारगी बस और कोई नहीं है ! चले आओ !




Monday 7 March 2016

नारंगी का मौसम है !! जयकारा लगाइये - जय नारंगी - हर हर नारंगी !

आजकल रोज सुबह उठते ही सबसे पहले खुद को आश्वस्त करना होता है कि सब ठीक है ना ,चेहरे और माथे पे देश द्रोह तो नहीं उग गया , सड़क और आँगन पर भी नज़र डालनी होती है कोई देशद्रोह तो नहीं फेंक गया।
मैं नारंगी फोबिया से ग्रस्त हो गयी हूँ। चाय भी भगवा नज़र आने लगी है ,कोने के मंदिर वाले भगवान जी और पुजारी के सामने से सिर झुका के निकलती हूँ , कहीं ढकोसला विरोधी संस्कार कोई उत्पाती  नारा ना लगा दे।

सड़क पर तमाम पॉलीथिन खाती लावारिस गौ माताओं को देखते हुए घर तक देशभक्ति में सिर झुका के आना पड़ता है। "नारंगी गिल्ट  " घेर लेती है।


वार्डरोब में भी असहिष्णुता आ गयी है। हरी साड़ियां और लाल कुर्ते को मना कर दिया गया है। केसरिया -नारंगी धारण कर के जाती हूँ तो नजरें आश्वस्त रहती हैं ,दूसरे रंग पहनने की धृष्टता कर बैठूं तो एक बार फिर से ' नारंगी गिल्ट" घेर लेती है। 

हरी साड़ियां और लाल कुर्तों को मना कर दिया है कि दिखना भी मत ! केसरिया रंग पहन के जाती हूँ तो सड़क से लेकर ऑफिस तक में कोई सवाल नहीं होता। किसी दिन गलती से कोई दूसरा रंग आ जाये तो सबकी नज़रें बता देती हैं कि देश से गद्दारी कर रही हूँ।

लंच में किसी ने कहा कि बिरयानी अच्छी बनाती हो ,बड़े दिन हुए ,कब ला रही हो ? मुझे लगा कि चोरी पकड़ी गयी ,मेरे चूल्हे को क्या पता कि मैं उस पर मुगलिया रसोई पका रही हूँ !! उफ्फ्फ .........
नारंगी फोबिया ने मेरी जिंदगी को सतरंगी की जगह नारंगी बना दिया है ! मैं उसकी फांकों सी खोल में लिपटी डरी सहमी हूँ......

टीवी देख कर डर लगता है कि सामने बैठे नारंगी देशभक्त मुझे वहीं से खींच के चिल्लाने ना लग जाए कि " गौर से देखिये इस चेहरे को जो आराम से सोफे पर बैठ कन्हैया की स्पीच सुन रहा है " मैं मोबाइल बंद कर देती हूँ। कुछ देर के लिए टीवी का वॉल्यूम बढ़ा देती हूँ , दो फायदे होते हैं इसके - पहला कि घरवाले सब पुराने सब मसले भूल कर बहस में उलझ जाते हैं और मैं खामोशी से वहां से निकल लेती हूँ और दूसरा पड़ोसी भी निश्चिन्त रहते हैं कि भगवा है तो सब ठीक है !

रोज पंचांग देख लेती हूँ और मंडे संडे की जगह पड़वा ,प्रदोष याद रखती हूँ। नमस्ते पहले भी करती थी अब जयकारा भी लगा देती हूँ। 
सब सही चल रहा है बस नारंगी फोबिया पर जय पा ही चुकी हूँ। अब कोई फर्क नहीं पड़ता कि चिकन खाते हुए नारंगी गैंग से बीफ से संस्कृति के नुकसान या पड़ोस वाली दादी के पैर छूके आने वाले भाई जी को साथ वाली भाभी जी की माँ -बहन करते देखना !!

सब सही है बस कहने -पीने -सोने -पहनने -बोलने -रोने -धोने -गाने -ताने सबका रंग नारंगी होना चाहिए बाकि तो जो है सो आप सब जानत रहे।
नारंगी का मौसम है !! जयकारा लगाइये - जय नारंगी - हर हर नारंगी !

Sunday 6 March 2016

अंजुरी अब रीत गई ........... काल गति काल को लील गयी !

सुनो वो दूर झील के पार क्या है ?
मंदिर है शायद !
चलते हैं ना ......
इस समय ?
हाँ तो !!

अँधेरा उतर आया था , पहाड़ पर यूँ भी सुस्ताई कुछ जल्दी ही पसर जाती है। ताल में रोशनी समाने लगी थी और पहाड़ों से उतर अँधेरा उस पखडंडी पर बिछने लगा था। स्ट्रीट लाइटों का बंद होना अखरा भी नहीं। चढ़ती शाम के सन्नाटे और कुनमुनाती शाम के बीच उनकी मुस्कुराहटों के सिलसिले थे।

चाय पीने का मन हुआ पर झील किनारे एक भी दुकान खुली नहीं थी। सब खामोश था सिवा दूर से आती मंदिर की घंटियों और तेज बज रहे भजनों के अलावा कोई आवाज़ नहीं कोई आवाजाही नहीं।
मुझे मंदिर पसंद नहीं !
मुझे भी नहीं !
पर आज शिवरात्रि है !
हम्म्म !
मुझे भूख लगी है , जल्दी होटल चलो !
प्रसाद तो ले लें !
मुझे बेर पसंद हैं ! पहाड़ी बेर मैदानी बेर से ज्यादा स्वाद होते हैं .......
रुको जरा ......
वो दौड़ पडी ,लौटी तो अंजुरी में ढेर से बेर -केले के साथ !
ये क्या है ? कितनी देर कर दी !!
भीड़ में घुस के लाना पड़ा है ,तुम्हें पसंद हैं ना ! लो खा लो ......
तुम भी लो !
नहीं मुझे दोनों ही पसंद नहीं.....
फिर क्यों लाई हो इतनी भीड़ में धक्के खाकर ?
तुम्हारे लिए ,तुम्हे पसंद हैं ना
तुम भी गजब हो ,किसी को कुछ भी पसंद हो तो दौड़ पड़ती हो दिलाने के लिए !
मैं ऐसी ही हूँ......

वो उसकी अंजुरी से प्रसाद उठाता रहा वो इसी में तृप्त थी कि वो खुश है। मंदिर से दूर निकल आये तो झील किनारे की वो सड़क खामोश हो गयी।

अंजुरी खाली हो गयी ! साल बीत गया शिव की रात फिर आ गयी। हर साल हर जनम में आएगी पर प्रसाद सब बीत गया ! अंजुरी अब रीत गई ........... काल गति काल को लील गयी !

तारीखें कैलेंडर पर ही बदलती हैं। मन की दीवार पर कुछ तारीखें नश्तर से उकेरी जाती हैं....... जन्मों के खाते पलों में दफन नहीं होते ! न ना चाहने से ना चाहने से ये वक़्त नहीं बीतता ........ !!   यही नियति है यही यथार्थ है।














Saturday 27 February 2016

मन का मौसम रंग बदल रहा है। फाल्गुन में सब रंग सजेंगे...........!!

बसंत बीता ,फाल्गुन का रंग चढ़ आया है। गुनगुनी धूप का जादू उतरने लगा है , गर्म कपड़ों को समेट के रखने लगी तो अलमारी के किसी कोने में रखी सफ़ेद कमीज़ की तह खुल के बिखर गयी।
अरसा हुआ ना उसे ऐसे ही सहेजे हुए ...... कुछ रंग जिंदगी के आले में ऐसे ही रख दिए जाते हैं। ये सफ़ेद है ,स्याह होती तो शायद हर बार नज़र आती। इसका इस अलमारी में बने रहना और फिर भी न होना ,होना ही तो है।

मौसम रंग बदलता रहेगा ! शाम अब कुछ देर ठहरती है ,मेरा इंतज़ार करती है। मैं अब अक्सर पैदल ही निकल पड़ती हूँ , ड्राइविंग कम कर दी है। दिन भर में 5-7  किलोमीटर चलने के बाद भी कुछ बचा रहता जो थकता नहीं है। मैं उसे हरा देना चाहती हूँ। जितनी देर अकेले पैदल चलती हूँ , खुद से जुडी रहती हूँ और जब भीड़ में होती हूँ तब मुझमें मैं नहीं होती। ये सन्नाटा भी अजीब है। इसका रंग सफ़ेद है लेकिन ये बुगनबेलिया के फूलों सी तरोताजा करने वाली दिखती है।

नई कोपलें फूट रही हैं , तना इतराने लगा है। मैं कुछ देर ठहर कर उसकी मुस्कान को भीतर भर लेती हूँ ...... रास्ते की बेरी बेर से लदी है। मैं हर रोज अंजुरी भर उन बेरों को याद कर लेती हूँ जो तुम्हारे लिए भर लाई थी , बेर मुझे आज भी पसंद नहीं , पर अब खाने लगी हूँ...... !

मंदिर तक की पखडंडी पर पत्तों की चरमराहट गूंजती है। शोरगुल से दूर इस मंदिर में कोई कोई ही आता होगा। सुबह तक तमाम फूल मुरझा जाते हैं , मुझे अच्छा लगता है उनको समेट , कुछ देर आँख बंद कर वहां बैठ जाती हूँ। सफेद रंग वहां भी भीतर तक उतर जाता है।

धूप चढ़ने लगती है तो मन सिमट आता है। सब कुछ होना होता है पर उस होने में मैं अब नहीं हूँ।

मन का मौसम रंग बदल रहा है। फाल्गुन में सब रंग सजेंगे ,इस होली भी थाल सजेंगे। गुंझिया पसंद है तुमको ,चले आना , गारी भी तो गानी है ,फाग भी खेलना है।

थम थम कर लिखना होता है........ कुछ तुम भी लिखना ! कुछ रंग उठा लाना ,कुछ ख्वाब सजा देना ! इस बार जरा जल्दी आना !

Monday 8 February 2016

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तू ने............ "

बारबार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
गया, ले गया तू जीवन की सब से मस्त खुशी मेरी।।


क्या सोच के लिखा होगा सुभद्रा कुमारी चौहान ने ये ? जब मन बेहद विचलित, बेहद शिथिल होता है तब बचपन आकर उसे कुछ पल ही सही दुलारता जरूर है। लौट जाने को मन करता है उन्हीं उन्मुक्त पलों में जब दूर दूर तक दर्द से कोई नाता नहीं हुआ करता था। चोटों से ज्यादा चोट के फिर से जल्द ठीक होने की व्यग्रता रहती थी। फिर से उन्हीं दोस्तों के पास पहुंच जाते थे जिनसे कल शाम ही लड़ाई हुई थी और माँ से जी भर के जिनकी शिकायत की थी। माँ ने तब कहा होगा कि कल सब ठीक हो जाएगा और वो हो जाता था !! अब क्यों नहीं होता ? माँ तो अब भी कहती हैं सब ठीक होगा पर न मन मानता है ना सब वैसा होता है जैसा पिछली शाम था। 

कितनी जल्दी थी बड़े होने की !! मन चमत्कृत सा देखता था आस पास के "बड़ों" की दुनिया को......जिनको ना होमवर्क की चिंता थी ना टीचर की डांट की, ना घर जल्दी लौटने की हिदायत !! अब जब बड़े हुए तो पता लगा कि जिस होमवर्क से भाग रहे थे उसकी मियाद तो अंतहीन है। हर पल कॉपी जंचती है, हर मोड़ कोई क्लास टीचर, हर कोने कोई मॉनीटर खड़ा है। अब खेल का कोई मैदान नहीं, अब वैसा कोई लंच का डिब्बा भी नहीं। 

छुट्टियां होतीं तो मौसी, बुआ, मामा, भाई भतीजे सबका मज़मा लगता, रात-रात दादी भूतों की कभी अपने जमाने के आने -दो आने के किस्से-कहानी सुनाती ! माँ का चूल्हा जलता रहता था और डांट से घर गूंजता "दिन भर हंसी ठठ्ठा करती हो बुआ से कुछ हारमोनियम सीख लो ,नानी से कसीदा " और मैं कभी अनमनी सी सीखने बैठती, कभी छू हो जाती। 

अरे हाँ ! वो साइकिल पर 20 किलोमीटर जाना, कभी नाहरगढ़ की पहाड़ी , कभी आमेर की घाटी नापना........... अब कार है तो भी अवकाश पर मन नहीं है। अब वो दिन भी तो नहीं हैं,  दोस्तों की फेहरिस्त लम्बी इतनी हो गयी है कि पहले नंबर पर जो था उसे मैं याद नहीं और जो आखिर है उससे मैं भागती हूँ !

"लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमंग रंगीली थी
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी।।
दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी।।
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तू ने............ " 

जन्मदिन आ रहा है शायद इसीलिए बचपन याद आ रहा है....... पर जन्मदिन अब सिर्फ एक तारीख है। तारीख जिसे भूल जाने का कोई रास्ता भी नहीं है , बधाइयां लेनी ही होंगीं....... नियति ने भी क्या खूब खेल रचा है !

सब दिन स्वीकार ! ठगी भी स्वीकार है रे जीवन तेरी......... पर जब तक मुझमें आवारगी शेष है मैं अशेष बचपन भी जी लूंगी और अंबर पार शारदा के तट पर फिर किसी रोज एक बार फिर तुझसे आ मिलूंगी सब हिसाब किसी रोज उसी तट बैठ पूरे करने हैं तुझसे ! वादा है खुद से, वादा है जिंदगी तुमसे !