Monday 17 August 2020

दिल्ली की राजनीति में बधाई की राजनीति के मायने क्या हैं ?







दिल्ली की राजनीति बड़ी दिलचस्प है | शीला दीक्षित का राजकाज हो , साहिब सिंह वर्मा हों या अब अरविन्द केजरीवाल , इन सब की राजनीति में केन्द्रीय सत्ता की भूमिका अन्य राज्यों की तुलना में अलग रही है | स्पष्ट कर दूं कि मैं राजनैतिक मसलों की कोई जानकार नहीं हूँ | एक सामान्य नागरिक की तरह जो सामने घटता दिख रहा है उसी आधार पर ये विश्लेषण कर रही हूँ |

कल अरविन्द केजरीवाल का जन्मदिवस था | नरेंद्र मोदी से लेकर छोटे –बड़े भाजपा नेताओं तक ने उनको बधाई दी | राजनीति में मूलतः विरोधी कोई नहीं होता ये बात जग जाहिर है इसलिए इन संदेशों से कोई अर्थ निकालना प्रथम द्रष्टया अनुचित है लेकिन ऐसा जब बीते सालों में ना हुआ हो तो कुछ अटपटा जरूर लगता है | क्या अरविन्द केजरीवाल भाजपा के करीब जा रहे हैं या भाजपा अरविन्द के करीब आ रही है ? दिल्ली की राजनीति में बधाई की राजनीति के मायने क्या हैं ?

कोरोना दौर की दोस्ती के मायने

कोरोना संकट के शुरुआती दौर में हमने देखा है की दिल्ली भाजपा के नेताओं से लेकर गोदी मीडिया तक के स्वर अरविन्द केजरीवाल को कोसने के थे | हमने ये भी देखा कि दिल्ली सरकार ने कोरोना संकट से जूझने के लिए जो प्रयास किये उसका केंद्र ने शुरुआती दौर में जबर्दस्त विरोध किया | जिसमें होम आईसोलेशन का मुद्दा खूब गर्माया पर वही बाद में देश भर में लागू करने पर भाजपा सरकार ने मंशा दिखाई |

लेकिन जब अमित शाह ने दिल्ली के सरकारी अस्पतालों का दौरा किया , उनकी प्रशंसा की , राधा स्वामी सत्संग हॉल को कोविड उपचार केंद्र में बदलने का रास्ता साफ़ किया तब से मीडिया की भी भाषा बदली और भाजपा नेताओं की जुबान पर भी लगाम लगी | क्या ये उतना ही सहज है जितना दिख रहा है ?

अरविन्द केजरीवाल सरकार की मंशा दिल्ली में कोरोना पर काबू पाने की थी ,उसने यह कर दिखाया भले उसके लिए उसे अपने क्रेडिट कार्ड में सेंध लगवानी पडी |

दिल्ली दंगों पर चुप्पी

यही बात दिल्ली के दंगों में दिल्ली सरकार की भूमिका को लेकर उठे प्रश्नों पर भी लागू होती है | दिल्ली जल रही थी तब आरोप लगे की अरविन्द केजरीवाल की सरकार चुप क्यों है ? सब जानते थे कि दिल्ली के चुनाव होने वाले थे और जल्द ही स्पष्ट भी हो गया था कि भाजपा चुनावों में शाहीन बाग़ का इस्तेमाल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए कर रही थी | 

चुनाव खत्म होने के साथ ही शाहीन बाग़ की खुनस और हार की रार दंगों में कैसे बदली , ये सबने देखा पर फिर भी आज तक लोग जवाब ढूंढ रहे हैं कि “आप “ चुप क्यों रहे ? ये जानते हुए कि जांच कमेटी “आप” के नियन्त्रण से बाहर है , “आप” की दखल की मांग करते रहे ?

अब जब शाहीन बाद में सक्रीय शहजाद अली को भाजपा ने अपने घर में बुला लिया है तो लोगों को समझ आ जाना चाहिए की अरविन्द केजरीवाल चुप क्यों रहा ? सत्ता हर नागरिक आन्दोलन को येनकेन हाईजैक करवा ही लेती है , शाहीन बाग़ का संघर्ष भी अंततः इसी तरह बंधक बना कर सत्ता ने अपने हितों को साधने के लिए काम में लिया |

जानते हुए कि दिल्ली पुलिस ,जिसका नियंत्रण अमित शाह के हाथ में है वही जेएनयू हिंसा के फरार दोषियों को नहीं पकड़ सकी तो भी आप पूछ रहे हैं की अरविन्द केजरीवाल चुप क्यों रहा ?

दंगों और सरकारों को गिराने का इतिहास किस दल का है , सब जानते हैं , सबको मालूम है | सब ये भी जानते हैं कि शहर में आग लगेगी तो आग उनके घर तक भी आयेगी ...... सब जानते बूझते भी अगर लोग भीड़ का हिस्सा बना कर अपनों की ही जमापूंजी को आग के हवाले कर देना चाहते हैं तो कठपुतली पुलिस किस किस को रोकेगी ? क्यों रोकेगी ?

विपक्ष की तैयारी अरविन्द केजरीवाल को दंगों के खेल में फंसा कर चुनावी रण जीतने की थी | केजरीवाल सरकार जानती थी कि न पुलिस उसकी सुनेगी ना विपक्ष के गुंडे उसकी मानेंगे !!


हर राजनैतिक दल ऐसे समर्थकों और कार्यकर्ताओं की फ़ौज बना लेना चाहता है जो उसके कमांडर के हर गलत को सही सिद्द करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद के गुप्तकालीन नियमों का पालन करे | नैतिकता के मारे ये मासूम लोग पोस्टर चिपकाने , नारे लगाने , सोशल मीडिया पर ट्रोलगिरी करने , भीड़ बन जाने को ही जीवन की सार्थकता मान लेते हैं | दिल्ली में आम आदमी पार्टी , कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी तीनों के पास कार्यकर्ताओं की कमी नहीं लेकिन तीनों में अंतर साफ़ दिखाई देता है | ये अंतर उनकी तर्किकता, भाषाई मर्यादा , कार्यशैली , सामाजिक सरोकारों में स्पष्ट रूप से दखा जा सकता है | आम आदमी पार्टी के अधिकाँश कार्यकर्ता / समर्थक सोशल मीडिया से लेकर जमीनी स्तर तक पर भाजपा कार्यकर्ताओं/ समर्थकों की गुंडई से जूझते-उलझते दीखते हैं | दुष्प्रचार और प्रोपगेंडा मशीनरी के इस्तेमाल में सबसे अधिक चंदा उगाही करने वाली पार्टी अव्वल नम्बर पर है | बेरोजगार नवयुवक –युवतियों को आसान मेहनताना/भावुक झांसे देकर कुछ भी लिखवाया-बुलवाया जा सकता है |

केन्द्रीय सत्ता के परोकारों ने व्हाट्सएप्प से लेकर फेसबुक तक सब पर कभी अरविन्द केजरीवाल की खांसी तो कभी उनके ऑड इवन के फार्मूले , मोहल्ला क्लीनिकों तक का मजाक उड़ाया | बाकी चुनावों की तरह दिल्ली के आमचुनावों में बड़े दलों ने धन बल से लेकर भुज बल तक का खूब इस्तेमाल किया | अमित शाह की रैलियां और उनके नेताओं के कड़वे बोल किसे याद नहीं होंगे ? किसे ये याद नहीं होगा कि अरविन्द केजरीवाल भी भाजपा और कांग्रेस की जमकर आलोचना किया करते थे |




सब नजारा यकायक कैसे बदल गया ? क्या दुश्मनी यारी में बदल गयी या दोनों खेमों ने विरोधी की ताकत को भांप के राजनीति बदली है ?

मुझे दूसरा वाला विकल्प ज्यादा करीब लगता है | अरविन्द केजरीवाल अब राजनीति में पहले से ज्यादा परिपक्व व्यवहार करने लगे हैं | जनता की नब्ज समझने में उनका कोई सानी नहीं है | मोदी की आलोचना से ज्यादा वक्त वो अपनी विकास योजनाओं को अमल में लाने में लगा रहे हैं | दिल्ली MCD के चुनाव जीतना उनके लिए चुनौतीपूर्ण रहा है | महामारी के इस दौर में दिल्ली की बीमार MCD अरविन्द केजरीवाल के योग्य सिपहसालारों की निगरानी में आ जाए उससे बेहतर उनके लिए कुछ नहीं हो सकता | दिल्ली सरकार जानती है की उनकी ये विजय जनता तक सीधे पहुंचने और निचले स्तर पर भाजपा के सियासी दखल को कम करने में मदद ही करेगी इसलिए सीधे टकराव को जितना टाला जा सके अच्छा है |

भाजपा जानती है “आप” के पास कांग्रेस का वोट बैंक है , अगर वो ये सिद्ध कर दे कि “आप” भाजपा साथ हैं तो उन वोटों में सेंध लग सकती है | दिल्ली में कांग्रेस वैसे ही नगण्य स्थिति में है , भाजपा के लिए केवल “आप” चुनौती है | “आप” जनता के हित में जितने साधन –संसाधन जुटा सकती है ,जुटाने की जुगत में है भले उसके लिए उनको विरोधियों से फीते कटवाने पड़ें या बधाई की राजनीति से दो चार होना पड़े |

इस सब में भी ‘आप ’ ने लाभ दिल्ली की जनता को ही पहुंचाया है | केजरीवाल की मांग पर अगर एक दिन में 30 हजार ऑक्सीमीटर जनता के लिए उपलब्ध हो जाते हैं तो ये राजनीति सकारात्मक है |

स्कूलों –अस्पतालों और जन सुविधाओं को लेकर अगर कोई सरकार गम्भीर है तो उसकी इस गुरिल्ला राजनीति से किसी को परहेज नहीं होना चाहिए | अन्य दल अगर इसी राजनीति की आड़ में दिल्ली की सत्ता पर नज़र लगाये हैं तो उनको अपने चश्मे के नम्बर में सुधार की दरकार है |

...............बाकि तो दलों के दलदल में राजा-रंक सब नंगे है , सब चंगे हैं ,सब रंगेपुते हैं, इससे ज्यादा क्या कहें !!

Saturday 20 June 2020

बालकनियों में उतरती शामों के किस्से हमेशा रूमानी नहीं होते .....


                           

नींद जब नहीं आती तो नहीं आती और जब आती है तो सुबह आती है जब जागना होता है ..... उठने – सोने का वक्त बदलता रहा !! पहले अपने स्कूल की बस निकल जाने का डर जगा देता था फिर बच्चों की स्कूल बस का, उसके बाद आदत बन गयी और चाहने पर भी देर तक सोना नहीं हो पाया |

पिछले तीन महीने में व्यवस्थाएं बदलीं !! बच्चे हॉस्टल से घर आ गये और संजय ने भी घर को दफ्तर बना लिया था ! बदलना केवल मुझे था , मुझे सबको वैसा ही माहौल देना था जैसा उनके कॉलेज –हॉस्टल –ऑफिस में होता है | घर का एक कोना जो नहीं बदला वो थी रसोई .....सारे स्विच बोर्ड चार्जर से लदे रहते , बिस्तरों पर ,सोफे –कुर्सी ,मेज पर लैपटॉप –पावरबैंक ,किताबें .... कपड़े कहीं और सिरहाने पानी की बोतलों का जमावड़ा !! इस बेतरतीबी से झुंझला कर कलह करने से भी कुछ नहीं होना था क्योंकि मोबाइल और कंप्यूटर से गर्दन उठाने का वक्त किसी के पास नहीं था |

नाश्ता क्या बनाऊं ?
बना लो , जो बनाना है !!
पोहे ?
नहीं कुछ और ?
इस और का जवाब ढूँढने का वक्त किसी और के पास नहीं था, वो मेरा धर्म था, मुझे ही निभाना था |
नाश्ते के बर्तन धोना फिर खाने की तैयारी के बीच सीमा के ना आने का मलाल करते करते झाडू –पोंछा....
करती क्या हो सारा दिन ?
ये काम नहीं है क्या  ?
कोई कुछ कहता नहीं, जैसा जचे जब जचे कर लिया करो क्यों परेशान रहती हो ?

संजय की आवाज़ की तल्खी मुझे हर बार ये बात बताने से रोक देती कि परेशानी काम से नहीं है, उस वक्त से थी जिसमें मैं कहीं हूँ ही नहीं ! पत्नी और मां होने के अलावा मेरा कोई वजूद है क्या ? कुछ देर मोबाइल हाथ में ले लो तो संजय की गर्दन ऐसे घूमती है , जैसे मैं कोई गुनाह कर रही हूँ !

क्या देखती रहती हो इसमें ?
व्हाट्सएप्प है , कानपुर वाली बुआ के पोता हुआ है !!
हुआ होगा , हमें क्या ? ये ग्रुप छोड़ दो, बेकार गॉसिप और पोलिटिकल बातें हैं, दिमाग खराब करती हैं |
मैं सिर्फ देखती हूँ , कहती कुछ नहीं !
बेकार टाइम खराब करना है |
तो क्या करूँ ?
पढ़ा करो !
क्या ?
जो पढ़ना चाहो !!

याद आया पढ़ने के लिये पिछले मेले से कुछ किताबें लाई थी | एक रोज उठाईं, कुछ पन्ने पलटे कि संजय कहने लगे कि ये बेकार ऑथर है , सनसनी के लिए लिखता है |

किताब उस दिन से शेल्फ से बाहर नहीं निकली |

तुम घूम आया करो , वजन बढ़ जाएगा !!
ठीक है , शाम को जाउंगी !
शाम को तो बच्चों के स्नैक्स का टाइम होता है ,कैसे जाओगी ?
तो सुबह चली जाउंगी !!
देख लेना ऐसे जाना कि 7 बजे तक लौट आओ, मुझे 8 बजे रिपोर्ट करनी होती है !!
उसके बाद वो सुबह भी आज तक नहीं आयी |

ना घूमने जाना हुआ ,ना पढना ,ना सोना ,ना जागना ......
इस सब का अभ्यास हो गया है मुझे , अब यही जिन्दगी है | मैं नहीं समझ पाती कि 14 दिन के क्वारेंनटीन से या होम आईसोलेशन से लोग डरते क्यों हैं ? ये होम आईसोलेशन तो मैं 28 बरस से जी रही हूँ !!!! चुप्पी का एक मास्क ओढ़े रिश्तों को बचाते, जी रही हूँ |
क्या पहनना है ,क्या बनना है ,क्या लाना है, किससे रिश्ते रखने हैं और किसके साथ कितनी दूरी रखने है सब गाईडलाइन जी ली हैं मैंने |

बच्चों को क्या खुद में शामिल करूं , मैं अब मेरे साथ नहीं रहती !!
तो, ऐसे कब तक चलेगा ?
चलेगा, सबका चल ही रहा है | बच्चों की अपनी दुनिया है, अपनी परेशानियाँ हैं..... उनको और क्या परेशान करना !! सबको अपने हिस्से की चक्की चलानी हैं– अपना पेट भरना है| भाड़ है दुनिया – फूंक मारते जाओ !!

आभा कहती जा रही थी ...... धाराप्रवाह , सांस की फ़िक्र किये बिना !!
फेसबुक पर तुम्हारी तस्वीरें देखकर मुझे लगता था कि तुम अपने परिवार में खुश हो ?
हाँ ,खुश हूँ मना कब किया ?
फिर खुद में नहीं होना क्या है ?
कुछ नहीं बस ज़िंदा रहना है , साँसों के खेल को मेले में बदलना भर है | इसका ख़ुशी या नाखुशी से कोई वास्ता नहीं है !! जो ख़ुशी है तो बस इतनी कि अब दर्द नहीं होता ना किसी से झगड़ने का मन करता है | संजय की कर्कशता और मेरे प्रति उनका दोयम प्रेम मुझमें अब ऊब और गुस्सा भी नहीं भरता !! वो जब  कभी कहता भी है कि तुमको लोगों से तौर तरीके सीखने चाहियें तो लगता है कि इतना दोगला होने से बेहतर है चुप रह जाना , अकेले रह जाना |

आभा कहते कहते चुप हो गयी ....पीछे से आवाज़ आ रही थी “किससे इतनी देर तक बातें कर रही हो ? समय देखो, ये फोन करने का वक्त है क्या ?

आभा ने रिसीवर रख दिया , उसका फोन आना कम हो गया है ! उसका होम आईसोलेशन अंतहीन है , उसके लिए इस जिन्दगी से जूझने के सिवा कोई विकल्प नहीं !! उसके प्रश्नों का मेरे पास समाधान नहीं और मेरे समाधानों को वो अपने सवालों में फिट कर पाए उसके पास उतनी स्पेस नहीं |

ये हर बंद दरवाजे के पीछे की कहानी है .... समन्दर की स्याही से रेत पर लिखी कहानी !! फेसबुकिया तस्वीरों से किसी की तकलीफ , भीतर चल रहे संघर्ष और इन्कलाब की करवटों को जान लेना आसान नहीं | प्रेम का परिंदा उड़ान चाहता है पर हमने उसे दुनियादारी की और कभी अपने कम्फर्ट जोन की सलाखों के पीछे धकेला है |


बंद दरवाजों और बालकनियों में उतरती शामों के किस्से हमेशा रूमानी नहीं होते ...... इनके किरदार अपने वजूद की लड़ाई - लड़ते , समझौते करते करते लम्बी नींद सो जाते हैं !! इनके ख्व़ाब बहुत खूबसूरत होते हैं , मौका मिले कभी आपको तो इनके सोने से पहले उनको जगा के पूछियेगा, खुद से और दुनिया से आपकी भी शिकायतें कम हो जायेंगी  !!!!