Tuesday 18 August 2015

ये दौर ए बेपर्दगी है........

ये दौर ए बेपर्दगी है
जिस्म सब उघाड़ कर
आंख बंद कर लीजिये
नज़र बचा लीजिये
हुनर बस एक यही
देखते हुये बच जाइए

ये दौर  ए बेपर्दगी है
हादसों की नुमाइश है
ज़मीर सब बाज़ार में
जाइए खरीद लीजिये
मुखौटा एक खरीद लें
फिर गुनाह से बच जाईये 

ये काल की ही बात थी ..........

हथेली भर बेर के 
प्रसाद के लिए दौड़ी थी 
वो शिव की रात थी 
सब तुमको ही देना था 
मैं तब भी निमित्त मात्र थी 
ये काल की ही बात थी 



नया फिर कुछ चाहिये होगा !! कहाँ से लाइयेगा......नई बातें -नई मुलाकतें…नया मन -नया तन !!

मुगालतों में जिंदगी बसर होती है ……ये सच भी स्वीकार कर लीजिये। खुश होने के लिए सब को कोई कारण चाहिए , इसीलिये आप भी खुश हो जाइए कि आप पहले शख्स हैं जिसे ये सुख मिल रहा है !! मूर्खता की हद तक आत्मउत्पीड़न और आत्मशोषण कीजिए कि हालात आपके नियंत्रण में हैं…………इस्तेमाल कीजिए और इस्तेमाल होते रहिये !!

छद्म रूप धर के खुशियां अपने घुटनों  बैठ आपसे उस सुख की याचना  करती हैं जिसे देकर आप जीवन भर की दरिद्रता अपने हिस्से में रख लेते हैं।  दे दीजिये....... ये जानते हुए हुए भी कि जो हो रहा है वो छल से अधिक कुछ नहीं है ! स्वर्ण मृग की इच्छा में आप भी अपने शोषण को आत्मनिमंत्रण दीजिये..........
दौर सब बीतेंगे , स्वाद सब चुक जाएंगे , कपड़े  पहनते ही पुराने हो जाने हैं..........नया फिर कुछ चाहिये होगा !! कहाँ से लाइयेगा..... नई बातें -नई मुलाकतें….. नया मन -नया तन !!

कहिये कि ऐसा नहीं होगा ,जो मेरे पास है सो मेरे पास सदा रहेगा……… हाहाहा !!! मैं सिर्फ हंस सकती हूँ और आपके लिए प्रार्थना कर सकती हूँ कि आप भी कबाड़ के भाव की अपनी भावनाओं के आदान -प्रदान का खेल  पर्दा गिरने तक उसी शिद्द्त से निभा सकें और चोट खाने लायक साहस अपने भीतर बनाये रख सकें !!

बहरहाल आज का दिन मुबारक ! जश्न का दिन है जी भर के मनाईये....... कल के लिए क्या सोचना जो हो सो तो होना तय हइये ही !!



  

Sunday 16 August 2015

वो जंगल की झोंपड़ी याद है ,तुमने कहा था .......... आशियाना कोई ऐसा हो !!

कई बार रातों की ख़मोशी डराने वाली होती हैं..........इस खामोशी में कितने लम्हे इर्द गिर्द जमा हो शोर मचाने लगते हैं। सिर को तकिये से ढाँफ लूँ तो भी आवाज़ें कम नहीं होती ………अतीत से निकल जाने के लिए वर्तमान में आना होता है , उस वर्तमान में जिसका आधार ही अतीत ने तैयार किया है, फिर से जीना होता है .......जिए हुए को न जिया हुआ कैसे मान लूँ ? डर शोर का भी है , डर खामोशी से भी लगता है ......दोनों में आवाज़ बहुत होती है ..........

सुख सब इर्दगिर्द जमा हैं , रिश्तों का मज़मा लगा है। अतीत को वर्तमान से जोड़ती इन कड़ियों में से नया रिश्ता क्या गढ़ना बाकी है .......... किसी ने भी अब तक कुछ नया नहीं गढ़ा ,गढे हुए को फिर फिर गढ़ नए नाम से पुकारा जा रहा है ……एक सीमा के बाद ये सब फ़लसफ़े बेमानी लगने लगते है। रिश्तों को प्रयोगशाला में ले जाया जाता है……हर कोई समाजिक विज्ञान के सिद्धन्तों के आधार पर अपनी अपनी परखनली ले कर खड़े  है !! सबके पास स्वरचित नैतिकता का लिटमस है जो दूसरे के व्यवहार और अपेक्षाओं को पास फेल घोषित कर देने के लिए तैयार है।

हम सब मिथ्या आर्दर्शों का सफ़ेद कोट पहने वो उद्द्द्ण्ड वैज्ञानिक हैं जो सदैव अपने प्रयोग को ही पेटेंट करवाने के लिए आतुर रहते हैं।

रात के सन्नाटे में तमाम प्रयोगशालाएं तर्क के दरवाजे पर जितनी जोर से दस्तक देने लगती हैं ,मन उतनी ही जोर से दरवाजे के टेक लगा के बैठ जाता है। पानी का गिलास एक बहाना होता है , गला तर हो जाता है पर प्यास खत्म नहीं होती। खिड़की से चाँद भी भीतर ताक रहता  है …… ये रोज मुझे देखता है ,सोचता होगा मुझ सी पागल है ……वो रोज रात के इंतज़ार में रहता है और रात जब आती है तो उजालों के इंतज़ार में पहर गिनती है……रिश्तों के नाम गढ़ने का ये खेल बड़ा पेचीदा है।

'जब सब इसी फ़लसफ़े में उलझे हैं और सब के हाथ खाली हैं तो फिर क्यों न इस सबसे परे निकल जाया जाए
..........

वही झील ,वही पखडंडी ,वही तुम............. वो जंगल की झोंपड़ी याद है ,तुमने कहा था .......... आशियाना कोई ऐसा हो  !! वैसा ही कोई जंगल हो  जिसे बाँहों में भर लिया जाए और इस ख़्वाब के सिरहाने उम्र सब गुज़र जाए ……' बात यहीं आ कर टिक आ जाती है।  जिए हुए इन पलों का वर्तमान बनना देख रही हूँ मैं........भविष्य का पता नहीं पर पदचाप कोई सुनाई जरूर दे रही है।

सोचते -सोचते रात की ख़ामोशी में रोज ऐसा ही कोई ख़्वाब गुनगुनाने लग जाता है और मैं हर आवाज़ से बेख़बर उस झील के आगोश में समा जाती हूँ जहाँ रोशनी फिसलती हुई दूर किनारों से जा लगती हैं ........... तुम तक ले जाती है !

Thursday 13 August 2015

तुम से तुम तक और फिर तुम तक आकर तमाम अंतर्विरोध शांत हो जाते हैं..................

कमाल की जिंदगी है ,छोटी सी है पर लम्बी है। खामोश है पर बोलती बहुत है। चलती है पर ठहरी सी है...........
सवाल है या सवालों का जवाब है..........पता नहीं ,पर जो भी है गोरखधंधा जरूर है। 

सब सुख का जतन कर रहे हैं ,सब दुःख से निकलने की कोशिश कर रहे हैं है -- बात एक ही है। रिश्तों के मकड़जाल में सुख गुम जाता है.......रिश्ते कंप्लेन बुक की तरह होते हैं ,दर्ज करवाते रहिये।  ग्रीवेंस रिड्रेसल का फ़ीड बैक यानि  सफाइयों  का अंतहीन सिलसिला जो नई ग्रीवेंस पर जा के खत्म होगा या अगले विवाद तक के लिए अल्पविराम मान लिया जाएगा। 

सब जी रहे हैं ,सबके अपने भीतर मोर्चे खुले हुए हैं। विरोध भी अपनों से है ,जीत की चाहना भी है। आकांक्षाओं -अपेक्षाओं के घमासान में वो लम्हे चुराना कितना मुश्किल है जिसमें "मैं " जी सकूँ। 

 उम्र की हर दहलीज पर द्वन्द युद्ध होते देखा है -- सांसे बस नाम को अपनी  हैं बाकि हक इन पर भी कहाँ है ? आसपास हर कोई सांसों के नियम-अधिनियम बनाने -सुनाने में लगा है। हर कोई इसी मुगालते में है कि वही भाग्य विधाता है ............. 

स्वार्थी मैं भी हो जाती हूँ जब तुमको अपने से बांधे रखती हूँ ……कहीं गाना बजने लगा है........ "  मोह -मोह के धागे , तेरी उँगलियों से जा उलझे ".......इन धागों ने एक संसार रच लिया है जिसमें रिश्तों से परे की कोई कहानी आ बसी है ……… जिसमें वही झील ,वही पखडंडी ,वही लम्हे और वही तुम ,वैसे ही तुम बस गए हो। कुछ नहीं बदलता !!

वक्त रुका हुआ है कि बढ़ रहा है ,पता नहीं ! कोई कुछ बोल रहा है या चुप्पी है , पता नहीं ! शिकायतें भी नहीं -समझौता भी नहीं फिर भी कुछ है जो घटता भी नहीं ! कुछ है जो खाली नहीं होने देता ,कुछ है जो सोने नहीं देता....... ये वही सुख है जो जीने भी नहीं देता और मरने भी नहीं  देता। 

तुम से तुम तक और फिर तुम तक आकर तमाम अंतर्विरोध शांत हो जाते हैं। रिश्ते का अध्यात्म में बदल जाना सुकून देता है। मेरी उँगलियों के पोरों में साझा क्षणों के मनके हैं।  इस माला को हथेलियों में थामे मैं मीलों चल सकती हूँ……सुख का ये उजास मुझे जिंदगी ने दिया है इसके लिए उसे शुक्रिया कहने का अनमोल सुख मेरे पास है  !! जब तुम आसपास हो तो कोई कमी भी कहाँ है ! 

जी रही हूँ मैं .............तुम्हारे नाम से खुद को जी रही हूँ मैं ........खुद को साध रही हूँ मैं !  बेहतरीन वक्त है ये ...... 

ये पड़पड़गंज की गलियां हैं कि एनाकोंडा हैं.................

पड़पड़गंज की गलियों में एक अद्भुत संसार बसा है --- किसी रोज सुबह और ऑफिस वापसी के समय इन गलियों के उस मुहं पर खड़े हो जाइए जहाँ DTC की बसें ,वैन ,ऑटो मुहं बाये खड़े रहते हैं।

मैं जिस गली  का जिक्र कर रही हूँ उसे एनाकोंडा कह सकती हूँ -- ऐसे ही और भी एनाकोंडा महानगरों में बसते होंगे ……लम्बी सर्पीली गलियां और उनका लपलपाता मुहं मने निगलने -उगलने के ही बना हो.............. सपनों को निगलते -उगलते देखना हो तो वहां सटे पार्क की बेंच पर तसल्ली से बैठ जाइए ……… 

अद्द्भुत संसार है ---हाथों में खाने का डिब्बा थामे एलियन ……… ये वही खूबसूरत लोग हैं जो कुछ घंटे पहले तक हँसते -मुस्कुराते जिंदगी का गुणा भाग कर रहे थे।  घर से निकलते ही इन सबके चेहरे एक जैसे क्यों  हो जाते हैं , ये आखिरी बार कब हँसे होंगे इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है………ये वही मेट्रो वाली भीड़ है जो चाबी से चलती है -यहाँ से वहां और वहां से जाने कहाँ………

जिस गति से एनाकोंडा सपनों को उगलता है , दिन ढ़ले उसी गति से उनको निगल भी जाता है ……पलते- बढ़ते ,घटते -बनते ये सपने हर रोज किसी जाम से डरे , बॉस की घुड़की से डरे , निश्चिंतता -अनिश्चिंतता की मझधार में उलझे , रोज भागते -हाँफते बस -अॉटो में बैठ गायब हो जाते हैं। 

जो गलियाँ आसमान के भी टुकड़े कर देती हैं , धूप खा जाती हैं , हवा भी जहाँ आने से डरती है वहां खुले आसमान के बाशिंदे कैसे रहते होंगे ?? 

सोच रही थी अपने हिस्से का आसमान छोड़ ये सब यहाँ  क्यों चले आये , क्या हासिल होगा इनको……

अजीब है ये उस मुकाम को हासिल करने की चाह में उलझने चले आये जिस मुकाम को छोड़ने की चाह में मैं आवारगी में उलझी हूँ………

मेरे सपने तो झील में पसरे हैं तो कभी  पहाड़ से सटी किसी पखडंडी पर चहलकदमी करते हैं ………… इस एनाकोंडा से मुझे डर लगता है !!

उस दृश्य का ख्याल ही मन को उदास कर देता है ,ख्याल उनका आता है  जो अपनों से दूर किसी सपने की तलाश में किसी एनाकोंडा में समा गए हैं ........ काश ! सबको खुला आसमान और ऐसी खिड़की नसीब हो जहाँ सोते समय चाँद का साथ हो ……उनकी जिंदगी की  गणित और भूगोल भी आसान हो जाये और वो सब भी अपने हिस्से की चांदनी को किसी एनाकोंडा से बचा सकें ……!





Wednesday 12 August 2015

मुझे पता है जो सच है उसका लिखना मना है पर जो लिखा है उसका सच हो जाना कहाँ मना है .......

एकाएक जब मौसम बदल जाये ,आसमान तुम्हारे ख्यालों से भर बरसने को हो जाये , हवाओं से तुम्हारी हथेलियों की सौंधी सी गंध आने लगे तो समझ लेती हूँ कि सावन आ गया है …………इस  बरसात को बाँहों में न भरा तो सावन को क्या खाक जिया ................

खिड़की के बाहर छम -छम गिरती हर बूंद  पर तुम्हारा नाम लिखा है ……रोमांटिक होती जा रही हूँ ना " हाँ ,तो क्या ?? अच्छी लगती है, तुम्हारे चेहरे पर मुझ पर जीत की ख़ुशी !!! हार जाने का मज़ा भी बरसात में ही आता है ना ……प्रकृति से कौन जीत पाया है , मुझे तुमसे हार जाने में सुख मिलने लगा है ……… जीतने के लिए बचा भी क्या है इसीलिये आँगन में निकल जाती हूँ , खुली हथेलियों में बरसते आकाश को भर लेने के लिए..........गीली जमीन और तर पेड़ों से बरसती -बहती बूंदों को समेट लेने का जी करता है !!! 

बरस और बरस ,खनक के बरस ,झमक के बरस ---- इस कदर बरस कि बस ये बरस बस मेरा आखिरी बरस हो ........... मेरी ख्वाहिशों से तर मेरी सांसों में तरबतर बरसात की हर बूँद मेरी देह से तुम्हारा एहसास जाने तक न फिसले……… जम के बरसो मेघा , इतना की दिल में धमक जागे और रूह का तार -तार आसमान से जा मिले ………शज़र सब महक जाएंगे !! झील में गिरती बरसात और वो पहाड़ी से सटी पखडंडी भी धुआं -धुआं होगी …रूह आज़ाद हो तो सब करीब आ जायेगा ! 

हंसो मत ! ख़्वाब देख रही हूँ ………  मुझे पता है जो सच है उसका लिखना मना है पर जो लिखा है उसका सच हो जाना कहाँ मना है ....... अब मुस्कुरा दो , और कुछ नहीं कहूँगी !!

Tuesday 11 August 2015

वो तुमको परखने की जिद छोड़ न सके...........


दोस्त , देख रही हूं ,समझ रही हूँ ………परेशान हो ! किससे परेशान हो खुद से या उस निर्णय से जो खुद तुम्हारा था……. सच जानते हुए किसी ऐसे रिश्ते की नींव रखने को उतावले  हो चले हो जो तुम्हारे लिए बना ही नहीं है । अब सच ये है कि नुकसान दोनों को हो गया ……तुम अपनी ईमानदारी को उसकी कसौटी पर घिसते रहने लायक धैर्य न रख  सके, वो तुमको परखने की जिद छोड़ न सके। 

वक़्त जो जीवन के कुछ लक्ष्य हासिल करने के लिए रखा था वो भी बेजा प्रयोगों में चला गया ……कहा था न , खुद को खत्म करके न तुम खुद के लिए कुछ बन पाओगे न उसके लिए ,जिसके लिए तुम खुद को बदल रहे हो। 

सालों पहले किसी दोस्त ने मुझे भी यही कहा था कि पौध को बदला जा सकता है , वृक्ष को अपनी जगह से उखाड़ देने के प्रयास में वृक्ष का सूखना तय है !! जड़ें गहरी हों तो उखाड़ने की जिद मूर्खता है……जिसके परिणाम में सिर्फ निराशा ही हाथ लगनी है। 

अवसर किसी की प्रतीक्षा नहीं करते , मन के उतार -चढाव चलते रहेंगे लेकिन जब तक मंज़िल को हासिल कर लेने की मंज़िल हासिल नहीं कर लेते तब तक भटकन को विराम दे दो ................... 

बिगड़ा अब भी कुछ नहीं , अपने आप में लौट आओ और वही बने रहो जो तुम हो। मैं हर रास्ते पर कभी उस छाँव सी बनकर तुमसे मिलती रहूंगी जो तुम्हें विश्राम दे , कभी वो रास्ता बन कर तुम्हारे साथ रहूंगी जो तुम्हें भटकने न दे ……………… उठो ,हाथ दो अपना ! रास्ते की पुकार सुनो ……… 

तुम्हारी 

मन की डील 







Monday 10 August 2015

मुझे न केंद्र बनना है न परिधि और न ही पेंडुलम ..........

गाहे बेगाहे जिंदगी  में कुछ रिश्ते केंद्र और कुछ परिधि बन जाते हैं और इन सब के बीच हम पेंडुलम से झूलते इधर -उधर बीत जाते हैं…………ये रिश्ते अनिवार्य प्रश्नों वाला लम्बा प्रश्न पत्र है जिसमें चयन का कोई विकल्प हमारे लिए नहीं होता। सबमें उलझना जरूरी है वरना नैतिक योग्यता के इम्तिहान में फेल करार दिया जाना तय है……………

मन विद्रोही है……नहीं मानता !! आप मुझे हर नैतिक मानदंड पर अयोग्य घोषित करने के लिए स्वतंत्र हैं। पास होकर भी क्या हासिल होना है .......... मुझे न केंद्र बनना है न परिधि और न ही पेंडुलम !!!

आसपास का हर नैतिक योग्यता धारी शख्स आपको स्कैनर के नीचे से निकालना चाहता है ,मने मैं कोई ओएमआर हूँ --- कितने गोले काले और कितने सफ़ेद हैं , इसका हिसाब आप क्यों रखना चाहते हैं। 

जब तक मेरी निजता आपकी स्वतंत्रता और आपकी निजता का लंघन नहीं करती , जीने दीजिये न ………हर बार नैतिक शिक्षा की किताब मेरे सामने खोल देने से मेरे पंखों की उड़ान कम नहीं हो जाएगी !!

केंद्र बनें ,परिधि बने या पेंडुलम बन के जिए.......आपकी इच्छा ! मेरे लिए रिश्तों में भी आवारगी होनी चाहिये - जहाँ कहीं लौट आने और टिक जाने की बाध्यता न हो...... साथ भर हो ,भरपूर साथ हो , बेपनाह साथ हो ,रवानी हो पर कोई नाम न हो...................  

कुछ हो न हो , दम निकले तो मेरी आवरगी मेरे साथ हो ………!!

Sunday 9 August 2015

मेरा अध्यात्म मेरी आवारगी है

बताया था ना कुछ एक महीने पहले अटकते भटकते उत्तराखंड के कैंची धाम पहुंची थी --- बाबा नीब करौरी को और जानने की इच्छा से  लौटते समय आश्रम से कुछ किताबें ले आयी थी ! जितना पढ़ती गयी उतनी ही उलझती गयी …अध्यात्म की शक्ति से अभिभूत हूँ या चमत्कार की कहानियों से ………… कहना अभी भी कठिन है।

योगानंद परमहंस की लिखी किताब से लहडी महाशय और महावतार बाबा जी की आध्यात्मिक शक्तियों के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला था।  उसके बाद लम्बे अरसे तक उनके साहित्य को पढ़ा ……   पढ़ने के बाद याद आया कि किताब में जिन जगहों का जिक्र हुआ उन में से अल्मोड़ा प्रवास के दौरान बहुत सी जगह मैं जा चुकी हूँ ……जागेश्वर के जंगलों में शिव का प्रवास अनुभव हुआ !! लगा कि सब कुछ तय है ,प्रकृति की टाइमिंग के आगे हर प्लानिंग बेकार है।

एक लम्बे अरसे तक ब्रह्माकुमारी शिवानी को सुनती रही ,आज भी उसको सुनना अच्छा लगता है तो मन हुआ कि ब्रह्माकुमारी जाकर और  नज़दीक से अनुभव किया जाये  ....... संयोग  कहिये कि माउन्ट आबू में फैमली वेकेशन के लिए सर्किट हाउस के जिस कॉटेज को बुक कराया वहां से आश्रम कुछ ही मीटर की दूरी पर  था।

कितना अजीब है ,सब कुछ कितना तय होता है -- वक्त -जगह सब कुछ तय है फिर "मैं " क्या तय करता हूँ ?
रास्ते तय हैं ,मंजिलें तय हैं ,साथी तय हैं ,माध्यम भी तय हैं …………घड़ी की सुई सी देह जन्म दर  जन्म टिकटिकाती रहती है।  कभी प्रेम का कर्ज कभी नफरतों के घाव लिए हर जन्म में नए कलेवर में आमने -सामने होते रहते हैं --- पुराने चुकते नहीं ,नए तैयार हो जाते हैं।

रास्ते पुकार रहे हैं……पंछी किस दिशा में उड़ जाएगा कौन जाने लेकिन नियति का संकेत स्पष्ट है कि लौट के वहीं आना है जहाँ के कुछ कर्ज बाकी हैं।

अब तक जहाँ भी गयी लगा कि पहली बार नहीं आयी हूँ ,लौट आयी हूँ .......मेरा अध्यात्म मेरी आवारगी है और खुद में ही लौट आना ही मेरी नियति है।





Saturday 8 August 2015

निशां रास्ते बनाते रहे मैं उनकी खोज में खुद को ढूंढती रही........

पापा ने सीधे कभी टोका नहीं ,माँ के सहारे से उनकी दबी सी झिड़की मुझ तक पहुंचती रही …… बेटी की आज़ादी का भरपूर सम्मान उनसे ही पाया। स्कूल से कॉलेज तक साइकिल से रोज नए रास्तों से जाना ,यूनिवर्सिटी में जर्मन भाषा की इवनिंग क्लास से देर शाम घर लौटना…… बिना बताये जैसलमेर के धोरों तक पहुंच जाना.... क्या न किया !! वे एक ही बात कहते , अपना ध्यान रखना ....... कितना ध्यान रख पायी ,पता नहीं ,हाँ पर जहाँ हूँ वहां संतुष्ट हूँ।

अजीब सनक थी अजमेर से पुष्कर तक सूरज को उगते और ढलते देखने जाती थी -- वो भी सावित्री मंदिर की पहाड़ी पर बैठ देखना होता था  !! एक ही दिन में दो बार पुष्कर , सूरज को ढलते -उगते देखने कोई सनकी ही जा सकता होगा ....  क्या रहा होगा उस सूरज में ,उस पहाड़ में ,उस सफर में ,उस तकलीफ में………वो गलियाँ आज भी ज़हन में आबाद हैं। 

मकान मालिक को बता के सोना पड़ता था कि सुबह जल्दी दरवाजा खोल दें , निहायत परम्परावादी सोच के वे सज्जन मुझको अक्सर लड़की होने की सीमाओं का विविध प्रकार से ज्ञान देते पर अल सुबह दरवाजा खोल ही देते।  घर से एक डेढ़ किलोमीटर पैदल चलकर पुष्कर की बस मिलती पुष्कर बस स्टॉप से एक डेढ़ किलोमीटर सावित्री मंदिर की पहाड़ी , पहाड़ी की १००-२०० सीढीयां ……फिर जाके कहीं सूरज के दर्शन होते !!! 

एक जुनून दूसरे जुनून के लिए साहस देता रहा , डर न अंधेरों से लगा न उजालों से लगा। सफर में जितने भी दर्द मिले निशां छोड़ते रहे....... निशां रास्ते बनाते रहे मैं उनकी  खोज में खुद को ढूंढती रही। अपने लौट आने का  इंतज़ार करते रहे , मैं गुम जाने की फिराक में रही। 

दुनयावी रवायतों की जंजीरे छूटे तो एक बार फिर ये शज़र महके, फिर वो रास्ते महकें ,वो झील वो किनारे इंतज़ार में हैं कब ये सांस टूटे..............और आस का पंछी फिर उड़ चले , दूर समंदर पार  पहाड़ों की किसी चोटी पर जहाँ जमीन और आसमान एक हो जाते हैं ! ख्वाहिशों का बोझ सीने पर भारी हो चला है ,दम किसी एक शाम में अटका है ---- वो हो तो फिर किसी झील से खनकता सूरज पहाड़ी के पीछे जा डूबे !!

Friday 7 August 2015

जब सवाल चौराहे बन जाते हैं तो मैं फिर तुममें लौट आता हूँ ......

जिंदगी को किसी नए मोड़ पे खड़े देखना , जिंदगी के लिए किसी बवाल से कम नहीं होता। एक दिशा के अभ्यस्त पांव अपरिचत रास्ते पर जब निकल पड़ते हैं तो आपके साथ केवल आपका ईश्वर होता है और कोई नहीं।

अजनबी चेहरे ,अधूरी बातें ,अधूरे सच , अनगिनित मरिचिकाएं पल पल इम्तिहान लेने को तैयार मिलते है। ये वो पल होते हैं जब सब आपके साथ होते हैं पर "मैं " अकेला होता हूँ। भीड़ में अकेले होने का अहसास भीड़ से निकल जाने या भीड़ में गुम हो जाने के लिए उकसाता रहता है। 

मेरा लक्ष्य ये नहीं था , मैं रास्ता भटक गया हूँ या ये रास्ता उसी मंजिल की ओर जा रहा है जहाँ मुझे पहुंचना था …… सवालों से घिरा मैं फिर भी चल रहा हूँ !  सुनो ,तुम साथ हो न मेरे ?? हमेशा …!! जवाब सुनकर मैं भी मुस्कुरा देता हूँ !! सच उस को  भी पता है सच मुझको  भी पता है। 

यहाँ से भाग जाने का मन करता है पर जाने के लिए इस सबके परे कोई जगह कहाँ है ? होगी पर अभी नहीं पता , सब छोड़ दूंगा और निकल जाऊँगा किसी दिशा में .......बेजा संकल्प बुलबुलों से उठते -बैठते रहते हैं। 

इन सबके बीच तुम भी कहीं हो .......जो मेरा पीछा करती हो।  अकेला छोड़ क्यों नहीं देती मुझको ? वो मुस्कुरा देती है ……पर ये सच है कि उसका होना मुझे साहस देता है  , वही एक शख्स है जो मेरे हर सच से वाकिफ है। उसके साथ होने का अहसास मेरा भरोसा है जो मुझे भीड़ से अलग कर देता है और अकेला भी नहीं होने देता। 

मैं नए सफर पर हूँ --- तमाम उलझनों के साथ ,सवालों और अनमने से रिश्तों के साथ ! अपने को ढूंढने निकला था, क्या  खुद को खो दिया मैंने ? क्या पा लिया मैंने ? 

जब सवाल चौराहे बन जाते हैं  तो मैं फिर तुममें लौट आता हूँ ........ताकि कल फिर उसी उम्मीद से मंज़िल की ओर बढ़ चलूँ जहां सफ़ेद रोशनी मेरा इंतज़ार कर रही है................... 

Thursday 6 August 2015

सांसों का शोर सुनना - जवाब मिल जाएगा ...........

सच को नकारने में उम्र बीत जाती है ,सच स्वीकार करने में सांसे चुक जाती हैं.………… हमेशा डिनायल के मोड में रहने वाला मन मेरे ही मन की कहता है। तर्क कहता है "नहीं" मन कहता है 'हाँ ' …… और जवाब मुझे हाँ में ही चाहिए ....... मन तानाशाह है। तर्क मन के दरबार का गुलाम जिसका इस्तेमाल मन के निर्णय को वैधानिक जामा पहनाने के लिए सभी करते है मैं कौन अपवाद हूँ !

जानते हुए कि अपेक्षाओं - आकांक्षाओं की जद कहाँ है , सीमाओं के लघंन के लिए मन विद्रोह करता रहता है....उस जीत के लिए विद्रोह जिसके अंत में तर्क की हार तय है और उस हार से भयभीत है जिसमें मन की जीत तय है………।

सच तुम भी जानते हो - मैं भी जानती हूँ।  तुम्हारे इर्द गिर्द  मेरी मौजूदगी हर उस क्षण में भी है  जिन क्षणों के एक मात्र गवाह तुम खुद होते हो  ……… तुमको साझा करने के लिए अब किसी और के पास कुछ शेष नहीं है। हर साझेदारी पर मेरे हस्ताक्षर हैं……इसलिए मन को कहो कि तर्क की सुने।

जानती हूँ , तर्क मन की नहीं सुनेगा और मन तुम्हें तर्क  करने नहीं देगा ............ जब जवाब न मिले ,सवाल सब उलझ जाएँ तो कुछ पल ख़ुद में लौट आना……जहाँ न मन -हो न तर्क हो !!

सांसों का शोर सुनना - जवाब मिल जाएगा।

साँझ ढ़ले उससे पहले लौट आना............. 

उसी झील किनारे किसी ढलती शाम सांसों का मेला भरेगा !! चले आना ....

किसी वक्त के आने की कुछ आहट कुछ दस्तक जरूर होती है , अनसुना कर दिया है ! हाथ की लकीरें -पोथी सब धरे रह जाने है.......... खुला नीला आसमान , झील किनारे की पखडंडी और धुआं -धुआं सा कोई मंज़र सामने हो.......!! लौट आने की कोई वजह नहीं, सामने कोई  चाह बाकी नहीं।

खामोशी पसरी है। सिरहाने सांसों की डोर सिमटी सहेज रखी है……  और कुछ नहीं चंद किताबें चंद बातें चंद लम्हे आसपास हैं। कॉफी का प्याला सूख गया ,अब नहीं पीती.......

जिद बाकी है , जद इतनी ही थी ! बहीखाते सब पूरे होना मुश्किल है कोशिश थी कि सब चुक जाए पर सहारों का बकाया कितना बकाया है पता नहीं ……शेष जो है सब तुम्हारा है। तुम्हारा नाम -ठिकाना वजूद में शामिल है --- उस स्कूल में पढ़ी कहानी सा कोई ख़त पढ़ के चले आना ………  उसी झील किनारे किसी ढलती शाम सांसों का मेला भरेगा !! चले आना ....उस कहानी को सच होते देख लेना !!


Wednesday 5 August 2015

आप -आप बने रहिये ..........

एक बात जो कभी समझ में नहीं आयी , हमेशा उलझाती रही वो ये कि किसी रिश्ते के लिए वैसा होना ही क्यों जरूरी है जैसा कि वो चाहें ……हम वैसे क्यों नहीं बने रह सकते जैसे कि हम हैं ---- भले हैं तो बुरे हैं तो।

आपके किसी भी नज़रिये को मैं अपने नज़रिये से गुनाह घोषित कर आपको अपनी ही नज़र में अपराधी बना कर घुटनों पर ले आऊँ और रिश्ते की बेड़ियां पहना कर खुद को विजयी घोषित कर दूँ ---- ऐसा रिश्ता समझ के परे है !

जिंदगी की किस किताब में गलत और सही की परिभाषाएं लिखी हुई हैं ?? आपने कहा इसलिए सही , मैंने जिया इसलिए गलत .......... अजब दुनियावी रवायतें हैं !!  मैं तुम्हारे साथ अगर मैं नहीं बनी रह सकती या तुम मेरे साथ तुम बन कर नहीं रह सकते तो मेरे -तुम्हारे बीच कोई रिश्ता कैसे हुआ ………… ये रिश्ता तो तुम्हारा -तुम्हारे साथ और मेरा - मेरे साथ हुआ !! फिर क्यों न ये माना जाए कि तुमको मैं नहीं तुम खुद पसंद हो …!! 

आत्ममुग्धता में किसी के अस्तित्व , किसी के व्यक्तित्व को लील जाना किसी रिश्ते की निम्नतम परिणीति होती है  जिसका बोध होते -होते आप अपना बेहतरीन वक्त बेजा उलझनों में बर्बाद कर चुके होते हैं। 

जब आप आप ही न रहेंगे तो उनके लिए भी लाश बन जायेंगे, जिसे हर कोई जल्द दफन करना चाहता है…………आप -आप बने रहिये वरना आप वो भी न बन पाएंगे जो वो खुद भी नहीं हैं !!!! 

Monday 3 August 2015

वानप्रस्थ जरूरी है !

जिंदगी जब जब बहुत बेचैन कर देती है अध्यात्म की राह सबसे सुकून देती है। भटकते -भटकते कुछ समय पहले उत्तराखंड के कैंची धाम आश्रम पहुंची थी ……यूँही पढ़ के सुन के ! संयोग से आश्रम में रहने का मौका मिल गया और जिंदगी को फिर एक मौका अपने करीब आने का  ! 

बाबा नीम करोरी को गुज़रे बरसों हो गए।  आश्रम उनके सेवादार चलाते हैं। कोई सत्तसंग - कोई प्रवचन नहीं। बाबा की स्मृतियाँ आश्रम में जस की तस हैं …………पहली मुलाकत थी उस दिव्यात्मा से। सिरहाने बैठ कितने घंटे पल में गुज़र गए पता नहीं चला। बरसों का गुबार आंसुओं की धार बन बहता रहा और सीने का बोझ हल्का होता रहा ..... क्या बाबा ने कहा क्या मैंने सुना नहीं पता पर जो कुछ भी घटा वो सूकून भरा था। 

आध्यात्मिक पाखंड के इस दौर में इस यदि मेरे जैसे नास्तिक को इतना खूबसूरत अनुभव हुआ तो निसंदेह मुझ पर अज्ञात शक्तियों की कुछ कृपा जरूर रही होगी। 

भटकना बेजा नहीं होता ……कुदरत का इशारा होता है। आपके लिए रास्ता बन रहा है ..........  इंतज़ार में हूँ कि कब वो वक्त आएगा जब सब जंजाल खत्म हो और पहाड़ -जंगल के बीच मैं उस निरकार के साथ अंतिम लम्हे गुज़ार  सकूँ ..........वानप्रस्थ जरूरी है पर आश्रम कोई मन में ही बस जाए ये भी जरूरी है !!  


जी हाँ !!! चोट पैकेज में मिलती है ........

उम्र का तजुर्बे से लेनदेन जब तक पूरा नहीं माना जा सकता जब तक कि तजुर्बा न हो जाए। पुराने किसी तजुर्बे का नए तजुर्बे से कोई लेना देना नहीं होता फिर भी अक्ल की कसौटी पर उसे जब तक घिसते हैं जब तक कि नतीजा सिफर नहीं निकल आता।  हर कोई उम्र के हर पायदान पर अक्ल का ऐसा ही तराजू लेकर खड़ा हो जाता है जिसका पलड़ा  हमेशा उसी और झुका होता है जो उसकी इंस्टा नीड्स को पूरी करता है।

मूर्खता की पराकाष्ठा  जब हो जाती है जब आप अपना ज्ञान मुफ्त में बाँटने जाते हैं और लौटते हैं तो साथ में एक के साथ एक वाला फ्री का ज्ञान लेकर ……धक्के खाते रहना हम सबकी फितरत है ,किसी के धक्के से किसी को सबक नहीं मिलता ,हर एक को अपनी  ड्राइविंग पर हद दर्जे तक ओवरकॉन्फिडेंस है।  

अपनी योग्यता को फ़लसफ़ों से निहारने में मशगूल हम अपने इर्दगिर्द अपेक्षाओं और अप्राप्य सत्य का चक्रव्यूह रच लेते हैं। सच को झूठ में बदलने की कहानी गढ़ लेते हैं ,खुद को खुद ही उस सच से दूर किये रहते हैं जो अभिमन्यु की मानिंद उस चक्रव्यूह को किसी भी क्षण ध्वस्त कर आत्महत्या करने के लिए तत्तपर रहता है। 

तजुर्बा कहीं काम नहीं आता। घिरना हम सब की नियति है और हर अनुभव के बाद उस ज्ञान को बाँटने और सलाह देना हमारी मूर्खता की पराकाष्ठा है। नियति हम सब को धक्के खाने के समान अवसर देती है .............

धक्के खाइये फिर खड़े हो जाइए अगले धक्के के लिये..........चोट कोई स्थायी नहीं होती ,हर धक्के के साथ आपको साहस का नया पैकेज मिलता है नई चोट लगने तक उसे एन्जॉय कीजिए……चलते रहिये। 

Sunday 2 August 2015

भटक जाना ही लौट जाना है

बरसों से एक ख्वाब पीछा करता है -- कहीं खो जाऊं ऐसे कि फिर न मिलूं !! किसी को कभी फिर दुबारा नहीं मिलूँ.......सपने भी ऐसी ही देखती हूँ ,कहीं खो जाती हूँ ऐसे कि फिर रास्ता भी नहीं ढूंढती !! अचानक नींद टूटती है फिर से वही सब ,वहीं सब ……।
मनोविज्ञान की किताब उठाई लगा कि शायद यूँ भागना पलायनवादी मानसिकता की ओर जाने का इशारा है , फिर लगा की मुसीबत को खुद गले लगाना जिसकी फितरत हो वो भागेगा क्यों ? कभी लगा कि डर है , सच का सामना नहीं हो पा रहा !! हो सकता है ,सच हो ....... पर सच है क्या इसको कौन तय करेगा ?? अजब सवाल -अजब जवाब .......

अब सब जवाब -सवाल ढूंढने बंद कर दिए हैं  , झोला उठा कुछ पल अपने लिए निकाल लेना ही समाधान है !! सफर से प्यार हो गया है …… जब अकेले सफर में होते हैं तो अपने साथ होते हैं वरना झमेले साथ होते हैं। 

किसी झील किनारे घंटों अकेले बैठ कर सूरज को डूबते देखिये ,देखिये कितने लम्हे खामोश झील में उतर के आपके पास खिंचे चले आते हैं ……… भटक जाना ही लौट जाना है , हर बार अब इसी नतीजे पर आकर ख्वाब अटक  जाता है !

सब बदल रहा है बस अपनी आवारगी से प्यार कम नहीं होता !



तुमसे सूखी- दबी घास सा रिश्ता है मेरा ………

अब तक लिखा बहुत कुछ , साझा बहुत कम किया !! आज जब सब दोस्ती के जश्न में डूबे है तो लगा कुछ उनकी याद साझा की जाये जो कभी साथ दोस्त बन कर कुछ कदम साथ चले.......  वो चले ,कितना चले ,क्यों चले ,कब चले ,कहाँ चले .............सारे प्रश्न बेमानी हैं। बेमानी यूँ कि अब भी सब साथ हैं और अब कोई भी साथ नहीं है। हर रिश्ते की एक उम्र होती है ,कुछ बहीखाते होते हैं इसलिए शिकवे -शिकायतों का दौर उम्र की दहलीज तक खींचते रहने का कोई औचित्य भी नहीं है।

स्कूल -कालेज के कुछ साथी  आज भी मिलते हैं - साथ वक्त गुज़ारते हैं ,अच्छा लगता है !! वक्त थम सा जाता है। कुछ दोस्त आवारा फितरत ने बना लिए ,वक्त और साथ वहां भी गुज़रा -- जितना गुज़रा भला गुज़रा ! ये मिलने -मिलाने का सिलसिला भी अजीब है , ऐसे रिश्तों के बीज बोये जाते हैं जिनको काटते समय किसी एक के हाथ में थरथराहट और दूसरे के चेहरे पर मुस्कुराहट जरूर होती है ………

प्रेम बोते हैं और हृदयहीनता पर संबंध विच्छेद करते हैं………… ऐसे रिश्ते -ऐसी दोस्ती ?? फितरत है जश्न मनाने के लिए बहाने चाहिए। इसी बहाने कुछ नए रिश्तों की खेती हो जाती है जिसे साल -छह महीने में काट लेना होता है ! 

इन सबके बीच कुछ रिश्ते सूखी -दबी घास बन जाते हैं जो हर बरस एक बरसात का इंतज़ार करते हैं , हरे हो जाते हैं फिर सूख जाते हैं फिर इंतज़ार करते हैं ………बरसात के बरसने का ....... !

बहरहाल उत्सव मनाईये ! दोस्ती एक खूबसूरत जाम है ,पी लीजिये फिर भर लीजिये……यहाँ हर साकी मधुशाला है !