Thursday 13 August 2015

ये पड़पड़गंज की गलियां हैं कि एनाकोंडा हैं.................

पड़पड़गंज की गलियों में एक अद्भुत संसार बसा है --- किसी रोज सुबह और ऑफिस वापसी के समय इन गलियों के उस मुहं पर खड़े हो जाइए जहाँ DTC की बसें ,वैन ,ऑटो मुहं बाये खड़े रहते हैं।

मैं जिस गली  का जिक्र कर रही हूँ उसे एनाकोंडा कह सकती हूँ -- ऐसे ही और भी एनाकोंडा महानगरों में बसते होंगे ……लम्बी सर्पीली गलियां और उनका लपलपाता मुहं मने निगलने -उगलने के ही बना हो.............. सपनों को निगलते -उगलते देखना हो तो वहां सटे पार्क की बेंच पर तसल्ली से बैठ जाइए ……… 

अद्द्भुत संसार है ---हाथों में खाने का डिब्बा थामे एलियन ……… ये वही खूबसूरत लोग हैं जो कुछ घंटे पहले तक हँसते -मुस्कुराते जिंदगी का गुणा भाग कर रहे थे।  घर से निकलते ही इन सबके चेहरे एक जैसे क्यों  हो जाते हैं , ये आखिरी बार कब हँसे होंगे इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है………ये वही मेट्रो वाली भीड़ है जो चाबी से चलती है -यहाँ से वहां और वहां से जाने कहाँ………

जिस गति से एनाकोंडा सपनों को उगलता है , दिन ढ़ले उसी गति से उनको निगल भी जाता है ……पलते- बढ़ते ,घटते -बनते ये सपने हर रोज किसी जाम से डरे , बॉस की घुड़की से डरे , निश्चिंतता -अनिश्चिंतता की मझधार में उलझे , रोज भागते -हाँफते बस -अॉटो में बैठ गायब हो जाते हैं। 

जो गलियाँ आसमान के भी टुकड़े कर देती हैं , धूप खा जाती हैं , हवा भी जहाँ आने से डरती है वहां खुले आसमान के बाशिंदे कैसे रहते होंगे ?? 

सोच रही थी अपने हिस्से का आसमान छोड़ ये सब यहाँ  क्यों चले आये , क्या हासिल होगा इनको……

अजीब है ये उस मुकाम को हासिल करने की चाह में उलझने चले आये जिस मुकाम को छोड़ने की चाह में मैं आवारगी में उलझी हूँ………

मेरे सपने तो झील में पसरे हैं तो कभी  पहाड़ से सटी किसी पखडंडी पर चहलकदमी करते हैं ………… इस एनाकोंडा से मुझे डर लगता है !!

उस दृश्य का ख्याल ही मन को उदास कर देता है ,ख्याल उनका आता है  जो अपनों से दूर किसी सपने की तलाश में किसी एनाकोंडा में समा गए हैं ........ काश ! सबको खुला आसमान और ऐसी खिड़की नसीब हो जहाँ सोते समय चाँद का साथ हो ……उनकी जिंदगी की  गणित और भूगोल भी आसान हो जाये और वो सब भी अपने हिस्से की चांदनी को किसी एनाकोंडा से बचा सकें ……!





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