Sunday 16 August 2015

वो जंगल की झोंपड़ी याद है ,तुमने कहा था .......... आशियाना कोई ऐसा हो !!

कई बार रातों की ख़मोशी डराने वाली होती हैं..........इस खामोशी में कितने लम्हे इर्द गिर्द जमा हो शोर मचाने लगते हैं। सिर को तकिये से ढाँफ लूँ तो भी आवाज़ें कम नहीं होती ………अतीत से निकल जाने के लिए वर्तमान में आना होता है , उस वर्तमान में जिसका आधार ही अतीत ने तैयार किया है, फिर से जीना होता है .......जिए हुए को न जिया हुआ कैसे मान लूँ ? डर शोर का भी है , डर खामोशी से भी लगता है ......दोनों में आवाज़ बहुत होती है ..........

सुख सब इर्दगिर्द जमा हैं , रिश्तों का मज़मा लगा है। अतीत को वर्तमान से जोड़ती इन कड़ियों में से नया रिश्ता क्या गढ़ना बाकी है .......... किसी ने भी अब तक कुछ नया नहीं गढ़ा ,गढे हुए को फिर फिर गढ़ नए नाम से पुकारा जा रहा है ……एक सीमा के बाद ये सब फ़लसफ़े बेमानी लगने लगते है। रिश्तों को प्रयोगशाला में ले जाया जाता है……हर कोई समाजिक विज्ञान के सिद्धन्तों के आधार पर अपनी अपनी परखनली ले कर खड़े  है !! सबके पास स्वरचित नैतिकता का लिटमस है जो दूसरे के व्यवहार और अपेक्षाओं को पास फेल घोषित कर देने के लिए तैयार है।

हम सब मिथ्या आर्दर्शों का सफ़ेद कोट पहने वो उद्द्द्ण्ड वैज्ञानिक हैं जो सदैव अपने प्रयोग को ही पेटेंट करवाने के लिए आतुर रहते हैं।

रात के सन्नाटे में तमाम प्रयोगशालाएं तर्क के दरवाजे पर जितनी जोर से दस्तक देने लगती हैं ,मन उतनी ही जोर से दरवाजे के टेक लगा के बैठ जाता है। पानी का गिलास एक बहाना होता है , गला तर हो जाता है पर प्यास खत्म नहीं होती। खिड़की से चाँद भी भीतर ताक रहता  है …… ये रोज मुझे देखता है ,सोचता होगा मुझ सी पागल है ……वो रोज रात के इंतज़ार में रहता है और रात जब आती है तो उजालों के इंतज़ार में पहर गिनती है……रिश्तों के नाम गढ़ने का ये खेल बड़ा पेचीदा है।

'जब सब इसी फ़लसफ़े में उलझे हैं और सब के हाथ खाली हैं तो फिर क्यों न इस सबसे परे निकल जाया जाए
..........

वही झील ,वही पखडंडी ,वही तुम............. वो जंगल की झोंपड़ी याद है ,तुमने कहा था .......... आशियाना कोई ऐसा हो  !! वैसा ही कोई जंगल हो  जिसे बाँहों में भर लिया जाए और इस ख़्वाब के सिरहाने उम्र सब गुज़र जाए ……' बात यहीं आ कर टिक आ जाती है।  जिए हुए इन पलों का वर्तमान बनना देख रही हूँ मैं........भविष्य का पता नहीं पर पदचाप कोई सुनाई जरूर दे रही है।

सोचते -सोचते रात की ख़ामोशी में रोज ऐसा ही कोई ख़्वाब गुनगुनाने लग जाता है और मैं हर आवाज़ से बेख़बर उस झील के आगोश में समा जाती हूँ जहाँ रोशनी फिसलती हुई दूर किनारों से जा लगती हैं ........... तुम तक ले जाती है !

2 comments:

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  2. रिश्तों के बूनट का धागा ,ताना-बाना जो कहते हैं की सब समझ चुके ,सब उधेड़ के देख लिया,हर फ़लसफ़ा समझ लिया उन्हें ये तक नही मालूम होता की कौन सा धागा किस फेर से होके किधर को मुड़के किस गाँठ को कस रही है ,किस ओढ़नी को,किस कंचुकी को बुन रही है।
    बस हर शख़्स यही सोचके अपनी पीठ ठोंक लेता है की मेरा सिद्धान्त,मेरा नज़रिया और पहचान ही सटीक ।

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