Sunday 4 December 2016

जाड़ों की शाम है

जाड़ों की शाम है
धूप का सिमटना
दिन का सिकुड़ना
रात का फैलना
अदरखी चाय में
तीखी हवा
तुम्हारी बातों
गुलाबी शरारतों का
घुलना और जम जाना
नम होना
आंखों के कोरों का
कोई जाड़ा याद आना
तुम्हारी वार्डरोब हो जाना
बर्फ संग
तुम्हारा खेलना
मुझे लंबे से खत भेजना
अब सब
जाड़ो की शाम है
वही एक मौसम
वही एल्पस
वही ठंड
इस छोर से उस छोर तक
बची रह गयी
केवल जाडों की शाम
वही एक शाम....



तुम मेरी शाम हो ,जंगल वाली शाम !

जंगल में शाम का ढलना अजीब अजीब सा शोर पैदा कर देता है। इस डूबने का अपना मजा है और इस शोर में भीतर की खामोशी को तोड़ने का हुनर है ...... एक साथ इतनी आवाजें कि पहचान ही न सको कि कौनसी भीतर की है और कौनसी बाहर की ! कुछ दरकने की, कुछ संवरने की ,कुछ सुनी - कुछ अनसुनी सी। परिंदे घर लौट रहे हैं , अपनी-अपनी शाख को पहचान रहे हैं ,अपने नीड़ के लिए सामान ला रहे हैं ,कुछ सपने बुन रहे हैं और कुछ थक के जो भी भी मिला, उसी में गुनगुना रहे हैं।

दूर धुआं उठ रहा है , चूल्हा जला होगा। कोई वहां भी लौटा होगा ....... झील ने सूरज में हाथ डुबो दिए और उसको अपनी रोशनी दी है...... पानी पर लौ तैर रही है। उधर क्षितिज पर एक तारा है.....  बुलाने आया है औरों को भी ,आ जाओ ,खेलने का समय हो गया है। सही भी है ना ,लकड़ियां बीनती औरत को घर लौटने का इशारा करना भी तो उसी का काम है। वही बताएगा कि और संगी आ जायें , उसके पहले लौट जाओ।  वही रास्ते भर उनका ख्याल रखेंगे और उनको उनके घर लौटने तक पगडंडी की आवाज़ को भी जिलाये रखेंगे। 

शाम कहीं भी हो ,जंगल में हो या कम्प्यूटर के सामने बन्द कमरे में ...... अपने साथ एक एहसास लाती है। भूख जगने लगती है। भूख, उन ख्वाबों की जो दिन देखता है और भूख उन ख्वाहिशों की जो कैलेंडर सी दीवार पर टंगीं है .......

कितनी ही शामें गुजर गयीं , सालों में तब्दील होती चली गयीं और मैं उन्हें लम्हों की तलाश में शाम से सुबह ,सुबह से फिर शाम में बदलती चली गयी। मुझे शामों ने सिखाया है कि कोई भी शाम वैसी नहीं होती जैसी कल थी ,जैसी अब है और ये भी कि मैं कल भी वैसी ही थी और आज भी वैसी ही हूं जैसी कल थी। उसमें और मुझमें इतना सा रिश्ता है कि मैं उसके साथ उतनी सी बदलती हूं, जितना कि सूरज के ढलने और उगने का भरम होता है। कोई सोता है तो मान लेता है कि सूरज डूब गया ,कोई जाग गया तो मान लेता है कि उग गया। 

शामें इसी दुविधा का नाम हैं ! क्या मानूं ? अब जो भी हैं अजीज़ हैं मुझे ,जंगल की इस शाम जैसी !

सुनो ,तुम मेरे कितना करीब हो आज भी। बिलकुल इस शाम जितना ...... मेरे ख्वाब ,मेरी ख्वाहिशें सब तुमसे वाबस्ता हैं। इतना सा करम रखना बस ......तुम भी मेरे हिस्से के सितारे बस मेरे ही रखना ...... हर रात मेरे ही आंचल में उंडेलने के लिए , हर रात चांद मेरे ही सिराहने हो...... मैं वैसे ही लौटती रहूं तुममें !

तुम मेरी शाम हो ,जंगल वाली शाम ! मुझमें बसे रहना..... ताल किनारे चाँद के डूबने तक !








Friday 2 December 2016

जंगल और ताल ..... गजब का पागलपन है मुझमें !

जंगल में हूँ। उम्मीदों का जंगल ,ख्वाहिशों का जंगल , अमरबेल से लिपटे ख्वाब ,पेड़ दर पेड़ -झाडी दर झाडी...... ये पगडंडी किसी के कदमों से बनी है पर नहीं पता कि किस ओर ले जा रही है। ऐसे रास्तों को भी चुन लेना चाहिये जो किसी नामालूम सी जगह पर ले जाएँ , जिसका पता सिर्फ और सिर्फ आपको ही पता हो। पैरों के नीचे सूखे पत्तों की चरमर और बदन को छूकर गुजरती दिसम्बर की हवा ...... जंगल में और क्या चाहिए !

तालाब को झुक कर चूमते पेड़ और उनपर इठलाती सुनहरे पंखों वाली तितलियां..... एक और बार -एक और बार के स्पर्श के आनंद में डूबे पाखी , छपाक से पानी पर उतरते हैं और फुर्र से उड़ जाते हैं। जो उसे नहीं छू पा रहे वो उसमें खुद को देख रहे हैं .... वो टुकड़ा गुजर रहा है न बादलों का , हां  वही जिसको देख महसूस होगा कि आसमान में हिरन भागा जा रहा है ! हां वही .....  ताल में कुलांचे भर रहा है।

कुछ उलझ गया झाड़ियों में , कदम ठिठके तो याद आया और मुस्कुरा दी ! ताल ....... मुझे मुक्त नहीं करेगा शायद ! शायद कभी नहीं .... करेगा भी कैसे ? अब मैं ही वो जंगल हूँ जो उस ताल के किनारे उग आयी हूँ और धीरे धीरे फैलती जा रही हूं , घनी और गहरी होती जा रही हूँ। मुझमें कितनी पगडंडियां बन गयी हैं ,कितने वजूद मेरे ही मुझमें लापता हो गए हैं।

मुझे अच्छा लगता है ,कभी ताल को पेड़ बन चूमना और कभी उसके इर्दगिर्द उग के जंगल हो जाना ! मेरी आवारगी ने मुझे उसके आसपास ही समेट दिया है..... हर एक सफर में उसके साथ सैंकड़ों सफर करती हूं। जिंदगी हर बार किसी फूलों से लदी डाल को मेरे रास्ते पर झटक देती है और मैं फिर से इश्क़ की खुशबू से लबरेज उसके इश्क़ में नंगे पैर दौड़ पड़ती हूं।

जंगल और ताल .....  गजब का पागलपन है मुझमें ! अब जो भी है इश्क़ में सब जायज है... जंगल हो जाना भी और ताल हो जाना भी !
आप भी इश्क़ में रहिये और खिलखलाते रहिये ! चलते रहिये !

शेष -

एक साथ
एक दर्द
वही राह
वही चाह

नहीं है तो -
मन

है भी तो -
जीवन

शेष -
सांसे
आंसू
आक्रोश
प्रश्न
प्रतीक्षा
मृत्यु 

ख्वाहिशों की लपट जिंदगी के दरिया होने का भरम जिलाये रखती है......

मरीचिका देखें हैं क्या कभी ? देखें होंगे ,वो जो तपती सड़क पर लपट सी , दरिया का भरम बनता है न ,वही ! जिंदगी वैसी ही लगती है कभी ...... दरिया ,लपट की दरिया ! अंतहीन प्रतीक्षा और अंतहीन प्यास.... निष्ठुर कहीं की ! छलना है और छल के आगे फिर प्रेम -वेदना का ताना बाना है। सांसों का ऐसा बुनघट कभी देखे हैं जिसमें जिस्म ही ढका हो और रूह उघड़ी हो ... हाँ ,ये वैसी ही है। इसके आरपार वो सब है जो दीखता नहीं लेकिन जनम -जनम से है ...... सांसें सफर करती हैं , कभी इसकी शक्ल में कभी उसकी शक्ल में !
कोई अधिकार नहीं, कोई प्रतिकार भी नहीं .... जो मेरा है ही नहीं उससे शिकायतों का व्यवहार भी नहीं .....जिंदगी से रिश्ते की ये शर्त भी मान ली है।

उंडेल दिया है खुद को उसी प्याले में ....... जहर हो या अमृत कौन जाने ! फर्क भी क्या पड़ता है अब ! निष्कर्षों का  दौर बीत चुका है। हर निष्कर्ष बेमानी निकला और मुझे ही मूर्ख साबित करके चला गया ....... नहीं पता ,जिंदगी क्या चाहती है ,क्या मन चाहता है !

बावरा है, सपने देखता है , बातें करता है , हंसता है और फिर खुद ही रो देता है ! अब ये सोचना भी अच्छा लगता है कि आप ठगे गए ...... ठग लिया, सांसों ने ठग लिया। न ठगे जाते तो सफर कैसे होता ? गठरी कांधे पर रखी है ,अब प्रतिवाद भी नहीं होता ! जी करता है.....खुद ही सौंप दूं "ले जा,अब ये भी ले जा " ........शेष कुछ न रहे ,कुछ मुझमें और कुछ उसमें भी न रहे जो कहता है कि ना दे !

इस सब खेले में एक ही सच है , वो इश्क़ है ! जो लम्हे चांदनी में घुल अमृत बन बरसे हैं बस उतना सा जीवन है ...... मन की डोर और सांसों के इस बुनघट के बीच उसका होना ही मेरा होना है। रात सी जिंदगी है और दिन उगते से गुम जाती है ! दिन सब ख़लिश में बीतता है और ख्वाहिशों की लपट जिंदगी के दरिया होने का भरम जिलाये रखती है। 

मुझे चाँद ही भाता है , भरम नहीं भरोसा देता है। उसकी मुस्कुराहटों से सांसे तर हुई जातीं हैं ,मन के किसी कोने में जिंदगी दमकती है और कहती है मैं मरीचिका नहीं हूँ ,दरिया हूँ , इश्क़ का दरिया..... बाँध लो मुझे , आओ मेरे करीब आओ !

मैं उतर रही हूं और अब दरिया के बीच में हूं ...... डूबी तो भी पार और उतरी तो भी पार !

चल मेरे मांझी ले चल अब जहां तेरा दिल कहे , नदी भी तेरी है और सांसे भी तेरी ! मेरा होना केवल भ्रम है।