दिल्ली की राजनीति बड़ी दिलचस्प है | शीला दीक्षित का राजकाज हो , साहिब सिंह वर्मा हों या अब अरविन्द केजरीवाल , इन सब की राजनीति में केन्द्रीय सत्ता की भूमिका अन्य राज्यों की तुलना में अलग रही है | स्पष्ट कर दूं कि मैं राजनैतिक मसलों की कोई जानकार नहीं हूँ | एक सामान्य नागरिक की तरह जो सामने घटता दिख रहा है उसी आधार पर ये विश्लेषण कर रही हूँ |
कल अरविन्द केजरीवाल का जन्मदिवस था | नरेंद्र मोदी से लेकर छोटे –बड़े भाजपा नेताओं तक ने उनको बधाई दी | राजनीति में मूलतः विरोधी कोई नहीं होता ये बात जग जाहिर है इसलिए इन संदेशों से कोई अर्थ निकालना प्रथम द्रष्टया अनुचित है लेकिन ऐसा जब बीते सालों में ना हुआ हो तो कुछ अटपटा जरूर लगता है | क्या अरविन्द केजरीवाल भाजपा के करीब जा रहे हैं या भाजपा अरविन्द के करीब आ रही है ? दिल्ली की राजनीति में बधाई की राजनीति के मायने क्या हैं ?
कोरोना दौर की दोस्ती के मायने
कोरोना संकट के शुरुआती दौर में हमने देखा है की दिल्ली भाजपा के नेताओं से लेकर गोदी मीडिया तक के स्वर अरविन्द केजरीवाल को कोसने के थे | हमने ये भी देखा कि दिल्ली सरकार ने कोरोना संकट से जूझने के लिए जो प्रयास किये उसका केंद्र ने शुरुआती दौर में जबर्दस्त विरोध किया | जिसमें होम आईसोलेशन का मुद्दा खूब गर्माया पर वही बाद में देश भर में लागू करने पर भाजपा सरकार ने मंशा दिखाई |
लेकिन जब अमित शाह ने दिल्ली के सरकारी अस्पतालों का दौरा किया , उनकी प्रशंसा की , राधा स्वामी सत्संग हॉल को कोविड उपचार केंद्र में बदलने का रास्ता साफ़ किया तब से मीडिया की भी भाषा बदली और भाजपा नेताओं की जुबान पर भी लगाम लगी | क्या ये उतना ही सहज है जितना दिख रहा है ?
अरविन्द केजरीवाल सरकार की मंशा दिल्ली में कोरोना पर काबू पाने की थी ,उसने यह कर दिखाया भले उसके लिए उसे अपने क्रेडिट कार्ड में सेंध लगवानी पडी |
दिल्ली दंगों पर चुप्पी
यही बात दिल्ली के दंगों में दिल्ली सरकार की भूमिका को लेकर उठे प्रश्नों पर भी लागू होती है | दिल्ली जल रही थी तब आरोप लगे की अरविन्द केजरीवाल की सरकार चुप क्यों है ? सब जानते थे कि दिल्ली के चुनाव होने वाले थे और जल्द ही स्पष्ट भी हो गया था कि भाजपा चुनावों में शाहीन बाग़ का इस्तेमाल साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए कर रही थी |
चुनाव खत्म होने के साथ ही शाहीन बाग़ की खुनस और हार की रार दंगों में कैसे बदली , ये सबने देखा पर फिर भी आज तक लोग जवाब ढूंढ रहे हैं कि “आप “ चुप क्यों रहे ? ये जानते हुए कि जांच कमेटी “आप” के नियन्त्रण से बाहर है , “आप” की दखल की मांग करते रहे ?
अब जब शाहीन बाद में सक्रीय शहजाद अली को भाजपा ने अपने घर में बुला लिया है तो लोगों को समझ आ जाना चाहिए की अरविन्द केजरीवाल चुप क्यों रहा ? सत्ता हर नागरिक आन्दोलन को येनकेन हाईजैक करवा ही लेती है , शाहीन बाग़ का संघर्ष भी अंततः इसी तरह बंधक बना कर सत्ता ने अपने हितों को साधने के लिए काम में लिया |
जानते हुए कि दिल्ली पुलिस ,जिसका नियंत्रण अमित शाह के हाथ में है वही जेएनयू हिंसा के फरार दोषियों को नहीं पकड़ सकी तो भी आप पूछ रहे हैं की अरविन्द केजरीवाल चुप क्यों रहा ?
दंगों और सरकारों को गिराने का इतिहास किस दल का है , सब जानते हैं , सबको मालूम है | सब ये भी जानते हैं कि शहर में आग लगेगी तो आग उनके घर तक भी आयेगी ...... सब जानते बूझते भी अगर लोग भीड़ का हिस्सा बना कर अपनों की ही जमापूंजी को आग के हवाले कर देना चाहते हैं तो कठपुतली पुलिस किस किस को रोकेगी ? क्यों रोकेगी ?
विपक्ष की तैयारी अरविन्द केजरीवाल को दंगों के खेल में फंसा कर चुनावी रण जीतने की थी | केजरीवाल सरकार जानती थी कि न पुलिस उसकी सुनेगी ना विपक्ष के गुंडे उसकी मानेंगे !!
हर राजनैतिक दल ऐसे समर्थकों और कार्यकर्ताओं की फ़ौज बना लेना चाहता है जो उसके कमांडर के हर गलत को सही सिद्द करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद के गुप्तकालीन नियमों का पालन करे | नैतिकता के मारे ये मासूम लोग पोस्टर चिपकाने , नारे लगाने , सोशल मीडिया पर ट्रोलगिरी करने , भीड़ बन जाने को ही जीवन की सार्थकता मान लेते हैं | दिल्ली में आम आदमी पार्टी , कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी तीनों के पास कार्यकर्ताओं की कमी नहीं लेकिन तीनों में अंतर साफ़ दिखाई देता है | ये अंतर उनकी तर्किकता, भाषाई मर्यादा , कार्यशैली , सामाजिक सरोकारों में स्पष्ट रूप से दखा जा सकता है | आम आदमी पार्टी के अधिकाँश कार्यकर्ता / समर्थक सोशल मीडिया से लेकर जमीनी स्तर तक पर भाजपा कार्यकर्ताओं/ समर्थकों की गुंडई से जूझते-उलझते दीखते हैं | दुष्प्रचार और प्रोपगेंडा मशीनरी के इस्तेमाल में सबसे अधिक चंदा उगाही करने वाली पार्टी अव्वल नम्बर पर है | बेरोजगार नवयुवक –युवतियों को आसान मेहनताना/भावुक झांसे देकर कुछ भी लिखवाया-बुलवाया जा सकता है |
केन्द्रीय सत्ता के परोकारों ने व्हाट्सएप्प से लेकर फेसबुक तक सब पर कभी अरविन्द केजरीवाल की खांसी तो कभी उनके ऑड इवन के फार्मूले , मोहल्ला क्लीनिकों तक का मजाक उड़ाया | बाकी चुनावों की तरह दिल्ली के आमचुनावों में बड़े दलों ने धन बल से लेकर भुज बल तक का खूब इस्तेमाल किया | अमित शाह की रैलियां और उनके नेताओं के कड़वे बोल किसे याद नहीं होंगे ? किसे ये याद नहीं होगा कि अरविन्द केजरीवाल भी भाजपा और कांग्रेस की जमकर आलोचना किया करते थे |
सब नजारा यकायक कैसे बदल गया ? क्या दुश्मनी यारी में बदल गयी या दोनों खेमों ने विरोधी की ताकत को भांप के राजनीति बदली है ?
मुझे दूसरा वाला विकल्प ज्यादा करीब लगता है | अरविन्द केजरीवाल अब राजनीति में पहले से ज्यादा परिपक्व व्यवहार करने लगे हैं | जनता की नब्ज समझने में उनका कोई सानी नहीं है | मोदी की आलोचना से ज्यादा वक्त वो अपनी विकास योजनाओं को अमल में लाने में लगा रहे हैं | दिल्ली MCD के चुनाव जीतना उनके लिए चुनौतीपूर्ण रहा है | महामारी के इस दौर में दिल्ली की बीमार MCD अरविन्द केजरीवाल के योग्य सिपहसालारों की निगरानी में आ जाए उससे बेहतर उनके लिए कुछ नहीं हो सकता | दिल्ली सरकार जानती है की उनकी ये विजय जनता तक सीधे पहुंचने और निचले स्तर पर भाजपा के सियासी दखल को कम करने में मदद ही करेगी इसलिए सीधे टकराव को जितना टाला जा सके अच्छा है |
भाजपा जानती है “आप” के पास कांग्रेस का वोट बैंक है , अगर वो ये सिद्ध कर दे कि “आप” भाजपा साथ हैं तो उन वोटों में सेंध लग सकती है | दिल्ली में कांग्रेस वैसे ही नगण्य स्थिति में है , भाजपा के लिए केवल “आप” चुनौती है | “आप” जनता के हित में जितने साधन –संसाधन जुटा सकती है ,जुटाने की जुगत में है भले उसके लिए उनको विरोधियों से फीते कटवाने पड़ें या बधाई की राजनीति से दो चार होना पड़े |
इस सब में भी ‘आप ’ ने लाभ दिल्ली की जनता को ही पहुंचाया है | केजरीवाल की मांग पर अगर एक दिन में 30 हजार ऑक्सीमीटर जनता के लिए उपलब्ध हो जाते हैं तो ये राजनीति सकारात्मक है |
स्कूलों –अस्पतालों और जन सुविधाओं को लेकर अगर कोई सरकार गम्भीर है तो उसकी इस गुरिल्ला राजनीति से किसी को परहेज नहीं होना चाहिए | अन्य दल अगर इसी राजनीति की आड़ में दिल्ली की सत्ता पर नज़र लगाये हैं तो उनको अपने चश्मे के नम्बर में सुधार की दरकार है |
...............बाकि तो दलों के दलदल में राजा-रंक सब नंगे है , सब चंगे हैं ,सब रंगेपुते हैं, इससे ज्यादा क्या कहें !!
अब जब शाहीन बाद में सक्रीय शहजाद अली को भाजपा ने अपने घर में बुला लिया है तो लोगों को समझ आ जाना चाहिए की अरविन्द केजरीवाल चुप क्यों रहा ? सत्ता हर नागरिक आन्दोलन को येनकेन हाईजैक करवा ही लेती है , शाहीन बाग़ का संघर्ष भी अंततः इसी तरह बंधक बना कर सत्ता ने अपने हितों को साधने के लिए काम में लिया |
जानते हुए कि दिल्ली पुलिस ,जिसका नियंत्रण अमित शाह के हाथ में है वही जेएनयू हिंसा के फरार दोषियों को नहीं पकड़ सकी तो भी आप पूछ रहे हैं की अरविन्द केजरीवाल चुप क्यों रहा ?
दंगों और सरकारों को गिराने का इतिहास किस दल का है , सब जानते हैं , सबको मालूम है | सब ये भी जानते हैं कि शहर में आग लगेगी तो आग उनके घर तक भी आयेगी ...... सब जानते बूझते भी अगर लोग भीड़ का हिस्सा बना कर अपनों की ही जमापूंजी को आग के हवाले कर देना चाहते हैं तो कठपुतली पुलिस किस किस को रोकेगी ? क्यों रोकेगी ?
विपक्ष की तैयारी अरविन्द केजरीवाल को दंगों के खेल में फंसा कर चुनावी रण जीतने की थी | केजरीवाल सरकार जानती थी कि न पुलिस उसकी सुनेगी ना विपक्ष के गुंडे उसकी मानेंगे !!
हर राजनैतिक दल ऐसे समर्थकों और कार्यकर्ताओं की फ़ौज बना लेना चाहता है जो उसके कमांडर के हर गलत को सही सिद्द करने के लिए साम, दाम, दंड, भेद के गुप्तकालीन नियमों का पालन करे | नैतिकता के मारे ये मासूम लोग पोस्टर चिपकाने , नारे लगाने , सोशल मीडिया पर ट्रोलगिरी करने , भीड़ बन जाने को ही जीवन की सार्थकता मान लेते हैं | दिल्ली में आम आदमी पार्टी , कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी तीनों के पास कार्यकर्ताओं की कमी नहीं लेकिन तीनों में अंतर साफ़ दिखाई देता है | ये अंतर उनकी तर्किकता, भाषाई मर्यादा , कार्यशैली , सामाजिक सरोकारों में स्पष्ट रूप से दखा जा सकता है | आम आदमी पार्टी के अधिकाँश कार्यकर्ता / समर्थक सोशल मीडिया से लेकर जमीनी स्तर तक पर भाजपा कार्यकर्ताओं/ समर्थकों की गुंडई से जूझते-उलझते दीखते हैं | दुष्प्रचार और प्रोपगेंडा मशीनरी के इस्तेमाल में सबसे अधिक चंदा उगाही करने वाली पार्टी अव्वल नम्बर पर है | बेरोजगार नवयुवक –युवतियों को आसान मेहनताना/भावुक झांसे देकर कुछ भी लिखवाया-बुलवाया जा सकता है |
केन्द्रीय सत्ता के परोकारों ने व्हाट्सएप्प से लेकर फेसबुक तक सब पर कभी अरविन्द केजरीवाल की खांसी तो कभी उनके ऑड इवन के फार्मूले , मोहल्ला क्लीनिकों तक का मजाक उड़ाया | बाकी चुनावों की तरह दिल्ली के आमचुनावों में बड़े दलों ने धन बल से लेकर भुज बल तक का खूब इस्तेमाल किया | अमित शाह की रैलियां और उनके नेताओं के कड़वे बोल किसे याद नहीं होंगे ? किसे ये याद नहीं होगा कि अरविन्द केजरीवाल भी भाजपा और कांग्रेस की जमकर आलोचना किया करते थे |
सब नजारा यकायक कैसे बदल गया ? क्या दुश्मनी यारी में बदल गयी या दोनों खेमों ने विरोधी की ताकत को भांप के राजनीति बदली है ?
मुझे दूसरा वाला विकल्प ज्यादा करीब लगता है | अरविन्द केजरीवाल अब राजनीति में पहले से ज्यादा परिपक्व व्यवहार करने लगे हैं | जनता की नब्ज समझने में उनका कोई सानी नहीं है | मोदी की आलोचना से ज्यादा वक्त वो अपनी विकास योजनाओं को अमल में लाने में लगा रहे हैं | दिल्ली MCD के चुनाव जीतना उनके लिए चुनौतीपूर्ण रहा है | महामारी के इस दौर में दिल्ली की बीमार MCD अरविन्द केजरीवाल के योग्य सिपहसालारों की निगरानी में आ जाए उससे बेहतर उनके लिए कुछ नहीं हो सकता | दिल्ली सरकार जानती है की उनकी ये विजय जनता तक सीधे पहुंचने और निचले स्तर पर भाजपा के सियासी दखल को कम करने में मदद ही करेगी इसलिए सीधे टकराव को जितना टाला जा सके अच्छा है |
भाजपा जानती है “आप” के पास कांग्रेस का वोट बैंक है , अगर वो ये सिद्ध कर दे कि “आप” भाजपा साथ हैं तो उन वोटों में सेंध लग सकती है | दिल्ली में कांग्रेस वैसे ही नगण्य स्थिति में है , भाजपा के लिए केवल “आप” चुनौती है | “आप” जनता के हित में जितने साधन –संसाधन जुटा सकती है ,जुटाने की जुगत में है भले उसके लिए उनको विरोधियों से फीते कटवाने पड़ें या बधाई की राजनीति से दो चार होना पड़े |
इस सब में भी ‘आप ’ ने लाभ दिल्ली की जनता को ही पहुंचाया है | केजरीवाल की मांग पर अगर एक दिन में 30 हजार ऑक्सीमीटर जनता के लिए उपलब्ध हो जाते हैं तो ये राजनीति सकारात्मक है |
स्कूलों –अस्पतालों और जन सुविधाओं को लेकर अगर कोई सरकार गम्भीर है तो उसकी इस गुरिल्ला राजनीति से किसी को परहेज नहीं होना चाहिए | अन्य दल अगर इसी राजनीति की आड़ में दिल्ली की सत्ता पर नज़र लगाये हैं तो उनको अपने चश्मे के नम्बर में सुधार की दरकार है |
...............बाकि तो दलों के दलदल में राजा-रंक सब नंगे है , सब चंगे हैं ,सब रंगेपुते हैं, इससे ज्यादा क्या कहें !!