Thursday 16 June 2016

शिकायतों में वक्त इतना जाया हो जाता है कि लौटते वक्त मलाल के सिवा जिस्म पर कुछ नहीं होता............

कभी कभी शिकायतों का सिम सिम  पिटारा खुल जाता है और वक्त के आहते में लम्हे इधर उधर बिखर जाते हैं। उसकी शिकायतें खुद से इस कदर हैं कि गाहे बगाहे छम्म से फ़ैल जाती हैं और उसको ही परेशान करती रहती हैं , मुश्किल ये है वो सुनता भी नहीं और सुनाये बिना रहता भी नहीं।


हम जिंदगी के कितने करीब से गुज़र जाते हैं और जिंदगी को छू भी नहीं पाते। शिकायतों में वक्त इतना जाया हो जाता है कि लौटते वक्त मलाल के सिवा जिस्म पर कुछ नहीं होता। ताउम्र खुद के लिए सहूलियतें जुटाने में इस कदर मसरूफ रहते हैं कि रूह जिस्म से कब फना हो गई होती है इसका पता ही नहीं चलता।

आक्रोश स्वभाविक होते हैं पर एक से जुर्म के लिए खुद को  पारितोषिक और दूसरे के लिए  सजा का आयोजन भी अजीब सच है। आक्रोश खुद को तर्क से परे और दूसरे को कटघरे में खड़ा कर देता है।  हम सब अपने  कंधों पर अपने सच का सलीब ले कर चलते हैं और सब के पास अपने सही होने की वजह है। वाजिब है या गैरवाजिब इसका फैसला जब हो सकता है जब वो एक दूसरे की जिंदगी के फैसलों से परे हो।  नैतिकता के धरातल पर सब नंगे हैं। सबके जिस्म से उह्ह्ह् आती है। लिबास को जिस्म समझने वाले और रवायतों को गिरवी रख रूह का मोलभाव करने वाले दिल के दलाल गली के हर मोड़ पर मिल जाते हैं।

मैं उसकी  शिकायतों से पार उससे  हार जाना चाहती हूँ। हर तर्क से परे उसको उस झील सा ठहरा और हजारों सितारों को अपने सीने पर लिए बेसाख्ता खिलखिलाते ,उड़ते देखना चाहती हूँ। ये वक्त का दरिया है जो हमारे बीच बह रहा है। क्या फर्क पड़ेगा ये दरिया मनो सूख भी जाए ............तो भी हर बरसात पानी अब यहीं से हो कर गुज़रेगा और जब भी गुज़रेगा हम फिर एक दूसरे के सामने होंगे।

कुछ रिश्ते  न काल के , न सवाल के  मोहताज़ होते  है। उनकी उम्र भी नहीं होती ,जिसकी होती है वो रिश्ते नहीं होते बस मुलाकात होती है । सो चुकना तो है ही है आज नहीं तो कल ये हिसाब बराबर होगा पर जितना होगा उतना  मेरा दावा वक्त पर मजबूत होता जाएगा।

वो उलझा हुआ है ये मैं जानती हूँ लेकिन ये भी सच है कि बिना सच को स्वीकार किये वो  एक कदम आगे नहीं बढ़ पाएगा। शिकायतों से परे संवाद की दुनिया है । इस दुनिया में जाओ और सुनो कि पीड़ा की हरेक की परिभाषा अलग अलग है। कुछ देर कंधे पर हाथ रखो और सुनो..........दर्द पिघल जाएगा और अहम की दीवार टूटेगी तो ये सूखी सी लगने वाली घास फिर से हरी होने लगेगी ! मौसम सब गुज़रते हैं ,ये भी गुजरेगा !

हर एक को उसका आईना  प्यारा ही बताएगा पर कभी उसके आईने से उसको भी देखो शायद आराम आ जाए .......वैसे भी तुम को अपने चेहरे पर ज्यादा ही गुमान है भले गुस्से में नाक पकौड़े सी हो जाए और गाल बंगाल की खाड़ी हो रहे हों .........    तो मुस्कुराओ उठो और शिकायतों को  परे रख आसमान  को अपने आलिंगन में समेट लो ! मौसम खुशगवार है !                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                          

Monday 13 June 2016

ये रिश्तों का बंटवारा है , ये रूह कहीं, जिस्म कहीं का रिश्ता है !

" एक अरसे के बाद उससे मुलकात हुई ! अरसा भी क्या कहूं एक दशक ही बीत गया होगा ........ वो जब लौटा था तो  उसकी नीली -भूरी सपनीली आँखों में हजार सपने और कंधे पर सच की सलीब थी। इस बार वो जब लौटा तो कंधे पर जिम्मेदारियां और आँखों में तलाश थी ,सवाल थे।

इंसान भी अजीब है , कुछ की तलाश में कुछ भी खो देता है और कुछ मिल जाता है तो फिर कुछ पाने की जद्दोजहद में लग जाता है। मैंने उसके साथ ,उसके सफर में एक बेनाम हमसफर का रिश्ता निभाया है  ..... उसके साथ रोना उसके साथ हंसना भी हुआ ,बस नहीं हुआ तो साथ नहीं हुआ।

ये रिश्तों का बंटवारा है , ये रूह कहीं, जिस्म कहीं का रिश्ता है ! दोनों अधूरे- अधूरी कहानी ,पूरी सी दिखने वाली पर खत्म नहीं होने वाली सी कहानी है मनो ..... ! परिवार और समाज से परे कुछ नहीं है पर कुछ है जो इन दोनों में ही नहीं ,वो बस वहीं है, जहाँ रूह बसती है।

जिंदगी बिना रिश्तों के नहीं चलती ,रिश्ते जरूरी भी नहीं। जरूरतों का धरातल बदलता रहता है। बस जो नहीं बदलता वो एक एहसास है कि "तुम हो ना "........    उसका हाँ कह देना और मेरा मान लेना !!

बस वही एक एहसास खींच लाया उसको ,वही एक खालीपन ,वही एक उदास कोना ,वही एक टीस ...... देस क्या परदेस क्या ! अब समंदर भी बूँद और कभी बूँद भी समंदर लगता है।

अच्छा सुनो ! बिटिया कितनी बड़ी हो गयी ?
18 पूरे होने वाले हैं , उसने कहा और मुस्कुरा दिया !
तुमने उसका नाम वही रखा ना जो हमने सोचा था ?
तुमको याद है ?
मैं हंस पडी.........
और तुमने भी तो ऐसा ही कुछ किया है ना ?
वो हंस पड़ा .......
हम्म !! ऐसे पागलपन भी भला भूलता है कोई !
नहीं ! वो पागलपन नहीं था ,वक्त था ! हम पर कहानी लिख रहा था और हम किरदार सिर्फ उसके कहे को निभा रहे थे !
थे नहीं हैं ! मैंने बात को विराम दे दिया।

विराम दे देने की कोशिशें नाकाम होती रहीं ! घंटों उँगलियों में उलझे वक्त के धागे सुलझाते रहे......... दोनों को पता था सुलझेगा कुछ नहीं पर इन धागों की पेचीदगी में उम्र के तार फंसे हैं जिनके फंसे रहना ही हमारी नियति बन गयी है।

पर जो भी है अच्छा ही है ! साथ रहते तो शायद कभी टूट जाते इसलिए दूर सही साथ हैं तो भी क्या बुरा है। जो पास हैं वो भी कितना जुड़े हैं ? "

वो अपनी बात कहती जा रही थी। कुछ मुझे पता था, कुछ अनसुना भी था।

फिर क्या हुआ ........ ? मैंने सवाल बढ़ा दिया ये सोच के कि उसकी चुप के अंतराल को कम कर  सकूंगी पर वो अब निढ़ाल सी सोफे पर पसर गयी। आंसुओं की धार उसके गालों से लुढ़कते देख पा रही थी मैं  .......

मैं कमरे का पर्दा खींच निकल आयी। कुछ सवाल अनुत्तरित रह जाने चाहिए ,जवाब जिनका खुद के पास ही न हो तो फिर नासूर बन जाने तक उनको कुरेदने से भी क्या हासिल।

मुझे पता है जिंदगी किसी के लिए नहीं रुकती  ........ सब चलते रहेंगे ,मिलते रहेंगे और फिर कहीं गुम जाएंगे फिर मिलने के लिए !

आप भी चलते रहिये पर जो साथ है उनका शुक्रिया करते रहिये कि वे साथ तो हैं ! ये साथ और साथ के भरोसे की मिट्टी नम रहनी चाहिए ! मोहब्बत की बेल इसी से हरीभरी रहेगी ! रिश्तों को हरा रखना है तो हाथ थामे  रखिये..... ! मौसम की फितरत है देर -सवेर बदल जाएगा !




Sunday 12 June 2016

राजनीति की रसोई में पकाने आये हैं तो चमचे और लोटों की जगह बना लीजिए !

राजनीति के रसोईघर में दाखिल होने से पहले कवच -कुंडल धारण करके आईये। पकाने आये हैं तो चमचे और लोटों की जगह बना लीजिए , दाल गलने से लेकर परोसने तक वही काम आएंगे । अगर जीमने आये हैं तो अपनी थाली -कटोरा लेकर पंगत में बैठ जाइये , "जैसे ही बनेगा परोसा जाएगा " पर भरोसा रखिये और इंतज़ार कीजिये।

इस रसोईघर में कुछ बर्तन हैं जो बरसों से काम नहीं आये ,शायद दादी दहेज़ में लाई हों या दादा जी जिद करके ले आये हों , बहरहाल वो ऊपर वाली दुछत्ती में पड़े हैं ,इस इंतज़ार में कि कभी जरूरत हुई तो निकालेंगे। मुझ याद ही नहीं कि वहां से बर्तन कभी निकले भी थे ,हाँ ये जरूर हुआ कि बाऊजी सबको बताते रहे कि उनके पास अंग्रेजों के जमाने का कलसा और मुगलों के जमाने का लोटा पड़ा है। बाज़ार में कोई खरीददार भी नहीं ,कबाड़ी को बेचेंगे तो मुहल्ला कहेगा कि पुरखों की निशानी बेच दी , सो सब जस के तस है।

निष्ठाओं के अचार की कई बरनियां भी एक आले में सजी हैं। ये सब मौसम आने पर सस्ते में मिल जाने वाली सब्जियां हैं तो बारहों महीने काम आती हैं। निष्ठा का अचार चटपटा और पाचक होता है। सब्जी न हो तो इसके साथ किसी गर्मागर्म बवाल को परोसा जा सकता है।

रसोई पार के कोने में एक चक्की है जो मुद्दों को पीस मालपुए का घोल बनाने के काम आती है। चक्की की घरघराहट से सात घर दूर तक पता चल जाता है कि आज दिन की रसोई में क्या पकने वाला है। सब अलर्ट हो जाते हैं और कानाफूसी शुरू हो जाती है। माहौल में उत्तेजना बनाए रखने के लिए ये दो पाट की मशीन बड़े काम आती है। इसे चलाता कोई और, और इसमें पिसता कोई और है।

मीडिया का दूध आंच पर चढ़ा है और बहने के इंतज़ार में है पर इस रसोई काका की पैनी नज़र से न दूध उबल के गिरता है न आंच ही मंदी होती है। ये दूध जितना उबलेगा इस पर मलाई उतनी गाढ़ी आएगी और रसोई काका  ही जानते हैं कि उस मलाई का हकदार कौन होगा सो आपको ये कभी पता नहीं चलेगा कि जो दूध आप चढ़ा के आये थे उसकी मलाई कौन खा गया।

राजनीति की रसोई सब्र का इम्तिहान भी लेती है। छुरी में धार न हो तो फांक नहीं मिलती और गलती से खुद को लग जाए तो धार रुकती नहीं सो सब्र से काम लें। थाली में बैंगन लुढ़क रहे हों  या तड़का लगाना हो या चार बर्तनों की टकराहट को सम्भालना हो ,आपको धीरज रखना ही होगा वरना रायता फैलते देर नहीं होगी और मेहमान रसोई की अव्यवस्था के लिए सब रसोई काका की जगह जजमान को लानते भेजेंगे।
यहाँ सब कुछ पकता है , छिलके से लेकर गूदे तक कुछ भी ! कचरे के डिब्बे में जो कुछ दिख रहा है वह सब उनकी किस्मत का लेखा है

सो देवियों -सज्जनों ! राजनीति की रसोई में सम्भल के पांव धरियेगा ! पांव के नीचे भी नज़र रखिएगा कि कोई टूटे गिलास का कांच ही न आ जाए या मक्खन पर फिसल जाएँ। यहाँ जो कुछ भी पक रहा है वो सबको बराबर पचे जरूरी नहीं सो बाजार से आदर्शों की भूसी खाते रहिये और यहाँ का लुत्फ़ उठते रहिये।

रसोई काका आपके अन्नदाता हैं उन्हें प्रणाम करके बाहर आईयेगा वरना अगली बार भूख लगने पर खाना तो क्या दाना भी नसीब नहीं होगा !

नमस्कार ,चलते हैं ! हाँ ! जानते हैं ,भूख पर जोर किसी का नहीं है ...........