Thursday 28 January 2016

कोई जनम रेत के बर्फ या बर्फ के रेत हो जाने की दुआ करना.........

मन कभी अपना कभी पराया सा सोचने लगता है। शाम के उतरने का मंज़र पार्क की बेंच के खाली कोने सा सालने लगता है। रोज शाम का टहलना उसको शहर की चीख चिल्ल्हाट से दूर खींच पेड़ों के उस झुरमुट में ले जाता है जिसके नीचे छनती रोशनी में बस हम दोनों बैठे हैं।

एक रुमानियत भरी शाम , कभी उदास सी शाम में और कभी सुस्त से कदमों में फिर से एक जान सी भर देती है। उन किलों और पहाड़ियों पर घूमते हुए हमने कितनी सदियाँ साथ जी ली !! हमारे साथ इतिहास चल निकला और हम भी इतिहास बन गए ना !

शहर अब कितना बदल गया है ,हम अब साइकिल से उतनी दूर उतनी खामोशी से जा ही नहीं सकते। अब कोई खामोश कोना बचा ही नहीं। हमारे पास कोई तस्वीर भी नहीं ! उन लम्हों की बस यादें हैं जिनको हम अक्सर साझा कर लेते हैं ! तुम कभी सड़क पर दौड़ते तांगों , कभी ऊंट को देख हैरान होते रहते थे। रेत के धोरे में मुट्ठी भर रेत को हाथ से फिसला कर तुम रुक जाते थे ,कुछ रेत बची रखते ....... कहते कि समय है ,देखो मैंने बचा लिया !!  ........... पर समय कहाँ रुका ?

हम रोशनी से बह निकले हैं। अब मेरी शाम तुम्हारी सुबह और तुम्हारी सुबह मेरी शाम हो गयी है। हम दोनों ही जागे कभी सोये से हैं। मैं रेत लिए बैठी हूँ तुम बर्फ से खेल रहे हो ......

दूरियों का भी कोई नाप तो होता होगा !! कैलेंडर की गिनती भी होती होगी !! कौन याद रखे ,कब तक याद रखे.......... समझौते समझ पर हावी कभी समझ समझौतों पर हावी हो जाती है। आदत हो गई है तुम्हारे नहीं होने कि और मेरे नहीं पहुंच पाने कि इतनी कि अब शिकायतों के सिलसिले भी जाते रहे।

हम जब क़यामत के पार जाएंगे तो इस कहानी को साथ ले जाएंगे !! एक बार फिर से उस किले की  किसी दीवार पर बैठ सूरज को डूबते देख साइकिल से अपने ठिकानों को लौट जाएंगे। पर कोई जनम रेत के  बर्फ या बर्फ के रेत हो जाने की दुआ करना।

ढ़लती शामों में पसरती परछाइयों में चाँद का उतर आना देखेंगे , तुम चाँद बन मेरी छत पर उतरना मैं चांदनी सी सांसों में बिखर जाउंगी ..........

रूमानी से इस ख्वाब को कैनवास पर उतार देना ! तुम लकीरों से खेलना जानते हो इस बार तकदीर में कोई साझा साँझ भी लिख देना ........ 

Tuesday 26 January 2016

सहजता की लक्ष्मण रेखा के पार खड़े होने वाला हर याचक अब रावण दिखने लगा है..........


पिछले कुछ समय से खुद को जेहादी बनने से रोक रही हूँ , कामयाब हुई या नहीं, पता नहीं लेकिन भीतर बहुत कुछ घटा है जिसे कहने से खुद को रोक लिया है।

ये भी अजब कश्मकश है चीखने को जी करता है पर हाथ अपने ही मुहं को भींच लेते हैं। हम सब ऐसे ही हैं शायद ........... छुपाना चाहते हैं ,साझा करना चाहते हैं पर डर और संदेह के घेरों में घिरे -छिपे जिंदगी से आँख मिचौनी खेलते हैं। 

ईमानदारी की बात यही कि एक समय था जब बड़ा रुतबा था ख़ुद पर कि ईश्वर की सहृदयता का प्रतिफल मुझसे अधिक कौन जानता होगा ........  जो कुछ देखा -सुना -गुज़रा उसने उस विश्वास को दुगना कर दिया लेकिन कुछ ऐसा बीज कहीं भीतर धंस गया जिसकी शाखाएं अब संशय के फलों से झुकी जा रही हैं ....... 

आशंकाओं से भरी इस दुनिया कि कभी कल्पना नहीं की थी। अपने भीतर डरे सिमटे से लोग इतने लाचार कि उघाड़ कर दिखाना तो दूर अपने जख़्म का इलाज भर नहीं कर सकते। दिन भर दोस्ती का , रिश्तों का दम भरते हैं और सच की नाजुक सी धमक से चटख जाने से डरते हैं।  

जब सबका सच एक ही है तो सब डरते क्यों हैं ? जब सबका झूठ एक ही है तो सबका सच अलग कैसे है ?

सबका दर्द एक ,सबकी दवा एक पर सबके हिस्से अपना अपना घाव है। 

किसी ने कहा कि इश्क़ अंजाम पर इसलिए नहीं पहुंचा क्यूंकि धर्म बीच में आ गया ,किसी ने कहा की महत्वाकांक्षाएं उसे दूर ले गयीं !! किसी ने अपनी जिंदगी के मुश्किल वक़्त को अपने साथी से इसलिए साझा नहीं किया क्यूंकि "बनती नहीं है " तो किसी ने दोस्ती में बगावत कर दी। सबकी अपनी -अपनी कहानियां , अपने अपने अनुभव हैं....... कुछ भी हो बस बात इतनी सी है कि हम बे फ़िक्र हो जाने और कर देने की आज़ादी खो चुके हैं। 

अहं के जंजाल ने रिश्ते निगल लिए , उन्मुक्त हंसी निगल ली। व्हाट्स एप्प के जोक भी इस कदर बोझिल लगने लगते हैं कि एक सोचना पड़ता है कि ये हँसने  के लिए था। 

नहीं , मैं किसी परेशानी में नहीं और किसी अवसाद में भी नहीं हूँ। दोस्त ,  इसे पढ़ के मेरी मनः स्थिति का अंदाजा न लगाया करो। मुझे अब दरिया बन बहना सिखा दिया है जमाने ने। अब किनारों से उलझने से डर नहीं लगता ,न उनको खो दिशा बदले जाने से भयभीत हूँ। 

पर मुझे डर उनका है जो संदेह के इस दौर में निश्चलता से भरपूर उन लम्हों को खो रहे हैं जो ईश्वर ने किसी नियामत की तरह हमारी जिंदगी में भेजे होते हैं।  

सहजता की लक्ष्मण रेखा के पार खड़े होने वाला हर याचक अब रावण दिखने लगा है। स्नेह का दान किसे दूँ ? 

नामों के परे भी कोई संसार तो होगा जहां गुमनाम सा कोई ख्याल होगा ...... वो हंसी ,वो ठहाके ,वो किसी वादी में बिखर जाने का हसीं सा ख्याल ......... 

इर्दगिर्द शंकाओं का जंगल उग आया है ! भाग जाने का मन है........ ब्रेक चाहिए !! ब्रेक ! पहाड़ ,धुआं धुआं मौसम , धुंध की रजाई...... मैं मेरे साथ  !!

हसीं ख्याल है ना ...... पर जल्द ही ये लम्हे भी मैं चुरा ही लूंगी !! आप भी कोशिश करते रहें कि किसी अपने के अपने बने रहे वरना पराया तो हर कोई है ही !

चलते हैं ...... आप भी आनंदित रहिये , आनंदित रखिये भी !

Saturday 9 January 2016

अकेले चलना और चले जाना ही नियति है तो ये रवायतों के मेले फिजूल हैं.…….

तुमने अपना फ्लैट क्यों बेचा !!
तुम क्यों बुलाते रहे मुझको !!
क्यों तुम मुझे ..... ...... 
वो फोन पर उलझ रही थी ,इस बात से बेख़बर कि आसपास कोई है ,उसकी आवाज़ मेरे कमरे तक आ रही थी। कॉलेज में अक्सर उलझते देखती हूँ इन लड़कियों को फोन पर ! नज़रंदाज़ कर दिया पर आवाज़ की तल्खी और दर्द मेरे जेहन में उतरा जा रहा था। मन किया कि उसको बुला कर पूछूँ ..........  पर ..... 

खैर !! वो एकआध घंटा उससे उलझती रही फिर आवाज़ खामोश हो गयी। मैं भी भूल सी गयी। 
एक दिन बाद जब शहर लौटी ,अखबार उठाया तो खबर पर नज़र गयी कि कुछ दूरी पर ही बसने वाले परिवार के तीन लोगों ने खुदकुशी कर ली। अफ़सोस हुआ , अखबार एक ओर रख उठ गयी। 

घंटी घनघना उठी ........ लड़की आपके कॉलेज में पढ़ती थी। परेशान थी ,तीन साल से सगाई का रिश्ता था ,टूट गया था .......... कर्जा था ,लड़की पर दवाब था ....... दूसरी तरफ से और भी बहुत कुछ कहा जा रहा था ! मैं शायद कुछ सुन ही नहीं पा रही थी....... 

तुम सोचते हो मेरा उसके साथ चक्कर है ,तुम ने मुझे उसके साथ कब देखा ? तुम मुझे अपनी मर्जी से ले जाते रहे ........ ! उस लड़की की आवाज़ें मेरे कानों में झनझनाने लगी। 

लड़की ,उसके पापा और उसकी माँ तीनों दुनिया से विदा हो गए। 

उस गली की जिंदगी दो दिन के बाद सामान्य हो गयी। फुसफुसाहटों का दौर चल रहा है। कर्जा था , दहेज़ का चक्कर था , बेटी पापा -मम्मी से नाराज़ थी....... मैं चुप से गुज़र आती हूँ। 

आसपास कितने घर हैं ,कितने लोग ,कितने कंधे ......... पर तीनों में से किसी को कोई भी नहीं मिला जो इस लौ को बुझने  से बचा पाता। हम सब साथ हैं पर कितने अकेले हैं ........ कितना डर है , कितने भय में जीना सिखाया जाता है। 

काश !! उस पल में उससे बात कर लेती ! काश वो भी रो पाती.......... पर ऐसा नहीं होना था। हर कोई उतना खुशनसीब भी नहीं होता कि उस दौर में कोई हाथ आगे बढ़ा के कह भर दे कि हम साथ हैं ना .......... आप चिंता न करिये !! जब बीतती है तो दर्द का अहसास जोर मारने लगता है और वक़्त कोरों को फिर से नम कर जाता है। 

बात गयी ,कल सब मेहमान भी उस आँगन से चले जाएंगे .........  जो पीछे रह गए वो भी उनके बिना जीना सीख लेंगे पर हम जो जिन्दा हैं कब सीखेंगे कि किसी को इतना भी दर्द न दें कि दर्द ही जिंदगी बन जाए। जो बाँट नहीं सकते उसे दे कर जिए तो क्या जिए ? 

जिन्दा होना और जिंदगी के साथ होना दो दीगर बातें हैं। कुछ और नहीं कर सकते तो कमजोर पलों में हाथ बढ़ा उबार लीजिये बाकि तो जो है सो हईए ही ! किस दोस्ती किस नाते रिश्तों का भरम पाले बैठे हैं ....... ?

अकेले चलना और चले जाना ही नियति है तो ये रवायतों के मेले फिजूल हैं और अगर ये सब काम के हैं तो क्या सब सिर्फ जश्न के साथी हैं ?

सवालों से उलझ रही हूँ। जवाब भी है पर अनजान बन बच निकलना चाहती हूँ। सच यही कि कभी कभी अपना ही सामना हो जाए तो डर लगने लगता है। क्यों नहीं पूछा उससे ? पर पूछ के भी क्या हो जाता ....... खुद से विश्वास डगमगा जाता है ,कभी लौट आता है। भाग्य भी कोई चीज होती है......  बहुत बहाने है खुद को समझाने के ,समझा ही लूंगी !


चलते हैं  ! जो जीती हूँ लिख देती हूँ , आप सही गलत ,नैतिक -अनैतिक सब तय करने के लिए स्वतंत्र है। 

मस्त रहिये ! खुश रहिये ! चलते रहिये !


Thursday 7 January 2016

ये सफर मज़ेदार है....... मेरी आवारगी का दरिया हो , इश्क़ को समंदर हो जाना है।

वो एक पल होता है जिसमें जिंदगी या तो खत्म हो जाती है या फिर से जी उठती है........ आशाओं और अपेक्षाओं के बीच डूबती उतरती ख्वाहिशें और ख्वाहिशों की बेहिसाब बारिश में भीगते हम -तुम। तुम कब समंदर बन गए पता ही नहीं चला मैं कब सिमट के दरिया रह गयी नहीं पता। बरसों गुज़र गए तुम खार से उलझते रहे मैं गति से उलझती रही। तुम कब मेरे मन के किसी कोने से विस्तार पा किनारों से पार हो गए ,कैसे मैं जिंदगी की ताल -बे -ताल पर बहती रही......... कोई तो हिसाब होना चाहिये ना !

कभी कभी जी करता है कि तुम कुछ कहो और हज़ार सवाल  पूछो। तुम कुछ कभी नहीं पूछते , क्यों सिर्फ मुस्कुरा कर हाथ आगे बढ़ा देते हो ? नाराज़गी इस बात से भी कि कभी तो समंदर दरिया से उलझे ..... हाहाहा !
मुझे पता है तुम कहोगे कि क्या होगा पूछने से ? क्या जवाब दोगी तुम ? हम्म ,उसका कहना भी सही है , जब  जवाब कुछ नहीं तो सवाल पूछने भर से क्या होगा ! ये भी सच है और झूठ ये भी कहाँ कि हम शिकायतों की जद से भी परे आ पहुंचे हैं।

कितना अनमोल एहसास है तुम्हारे होने का ! हजारों दास्तानें हैं जो तुमको सुनानी हैं , तुमसे कहनी हैं ,कुछ पल हैं जो तुमसे साझा करने हैं……चुप से हाथ थामे चलते रहने में भी कितना सुकून है। 

सुकून की गर्माहटों की बीच जिंदगी के तमाशे चलते रहते हैं। कभी खुद पर हंसने के पल कभी खुद पर रो देने के पल ...... सब कुछ फिर वहीं तुम पर आकर खत्म हो जाते हैं। लहरों से आते हो और मन की हर शंका को बहा ले जाते हो। मैं फिर से जी उठती हूँ , मैं फिर से बह निकलती हूँ। 

कहीं तुमने लिखा था कि तुम्हारे और मेरे ख्यालों के बीच समंदर का ये शोर भी तुम्हें पसंद नहीं लेकिन देखो वक्त ने तुमको ही समंदर बना दिया। कितने खामोश दिख रहे हो पर भीतर के शोर की आवाज़ मैं सुन पा रही हूँ। हमने ऐसे ही जीना सीख लिया है। तुम आकाश से जा मिले हो मैं ककंर -पत्थरों को पार करती ,समेटती , खुद को आगे ठेलती जा रही हूँ। 

ये सफर मज़ेदार है.......  मेरी आवारगी का दरिया हो, इश्क़ को समंदर हो जाना है। जी भर के चाहा है जिंदगी ने मुझको और मैंने समंदर को। जब समंदर से निकली तो जिंदगी ने मीठा कर दिया अब ख्वाहिश ये कि मैं जिंदगी से बाहर आऊं तो समंदर का खार मेरे रोम रोम का निशां खत्म करे ,मेरा वजूद  तुम में इस कदर घुल जाये कि मैं लहर दर दर लहर तुममें फिर फिर मिलती ही रहूँ ..... 

उफ्फ्फ ये ख्वाहिशें ! ना जीने दें ना मरने दें..... पर अच्छा है कि ये मेरी आवारगी की लौ को दिए में तेल रहने तक जिलाये रखें बाकी हवाओं को किसने रोका है , मैं वहीं थमी हूँ आप जम के बहते रहिये !