Wednesday 23 September 2015

मैं ट्विटर उपवास पर हूँ ....... अच्छा है ! डिजिटल हाज़मा ठीक रहना जरूरी है।

बहुत दिनों से ट्विटर से ब्रेक लेने का मन था , ले नहीं पा रही थी ! ट्विटर भी एक बीमारी है , ट्विटर ही क्या पूरा सोशल मीडिया ही एक बीमारी है ……… जिसके फायदे कम नुकसान ज्यादा हैं।

इस बिमारी ने मुझे घेर लिया है और अतिप्रतिक्रियावादी बना दिया है। खबर कोई आँख से बची न रहे , व्यवस्था सब दुरुस्त रहे , मैं गरिया दूँ .......... क्या है ये सब ??

कल का दिन बड़ा सुकून से गुज़रा !! दुनिया में क्या हुआ नहीं पता, केजरीवाल ने क्या किया नहीं पता .......... मोदी क्या कहे ,अलाना -फ़लाना -ढिमकाने ने क्या बकलोली की नहीं पता……… जान भी लेती तो क्या कर लेती !
जिसको जो बोलना है वो वही बोलेगा ,जिसे जो करना है वो वही करेगा , करता रहे !! जब ट्विटर नहीं था तब भी दुनिया चल रही थी , नेता ऐसे ही लूट रहे थे जनता ऐसे ही पिस  रही थी ! जब  ये तय है कि शासक शोषण ही करेगा तब मैं क्यों न ट्विटर को अपने शासक पद से मुक्त कर दूँ। ..........

कर दिया !! अभी एक ही दिन गुज़रा है…… बिना उसकी और नज़र उठाये ! ये डिजिटल युग का व्रत है।  मैं ट्विटर उपवास पर हूँ .......  अच्छा है ! डिजिटल हाज़मा ठीक रहना जरूरी है।

ज्ञान -अज्ञान का अतिरेक बदहवास बना रहा था। एक के बाद एक आ रहे नोटिफिकेशनों और उनमें भरे कुतर्को और अनर्गल प्रलापों ने डिजिटल वमन के हालात पैदा कर दिए थे ! छूत की बिमारी है ………जवाब दर जवाब ,सवाल दर सवाल ! भयानक चक्रव्यूह जिसमें घुसना पता है निकलना किसी ने नहीं सिखाया .......

पर्सनल स्पेस के नाम पर अतिक्रमणकारियों की फ़ौज़ है यहां ! हर कोई सिर पे सवार हुआ जाना चाहता है ,हर कोई ज्ञान की मिसाइल दागने को तैयार है .......... जेब में सिक्का नहीं पर कलाई पर लाखों की घड़ियां चमका रहा है।  हज़ार चेहरे हैं ,चेहरे दर चेहरे हैं …… नकाबधारी सच हैं ! सार्वजानिक सब पर सब परदे में हैं जो पर्दे में वो वहां नंगे हैं !

डिजिटल हेल्थ बिगड़ रही है  ..........  कुछ एक दिन और कोशिश करेंगे इस उपवास को जारी रखने की !! बहुते गरियाने का मन किया तो चले आएंगे।

 चलते हैं जी !! मस्त रहिये।




Tuesday 22 September 2015

सबके अपने अपने सच है ……खिलौने से सच ! खेलिए और फेंकिए ………यूज़ एन थ्रो सच !

कितना भी सफर कर लें ,कुछ रास्ते -कुछ नज़ारे फिर भी अनजाने ही रहते हैं। न सफर नया, न रास्ते नए ,न नज़ारे जमाने से जुदा ……… फिर भी कितना कुछ देखने से रह जाता है। कभी लगता है कि देखना आँख से कहाँ होता है ,मन से हुआ करता है....... मन नहीं है तो नहीं दीखता। जब मन उचाट हो जाता है तो पन्ना भी झट बदल जाता है ....... फिर वह सब वही नहीं रहता ,बदल जाता है।

ये नज़र आँख से कहाँ वाबस्ता है ....... चश्मा बदल लेने से भी सब कुछ कहाँ साफ़ दीखता है ! जानने -पहचानने के लिए किसी गुज़र से गुज़रना भी कहाँ जरूरी है……… एक लम्बा अरसा साथ गुज़र लेने के बाद भी अचानक किसी रोज़ किसी नए सच का साक्षात्कार होना ये साबित करता है कि कोई पहचान साथ से भी वाबस्ता नहीं होती।

कितने घंटों तुमको सुना है ,कितने ही घंटों तुमको पढ़ा है .......... कितना तुमको लिखा है लेकिन कुछ नहीं जाना ! नहीं दावा कर सकती कि मैंने लेशमात्र भी तुमको या खुद को जान लिया ……बेमानी फ़लसफ़े हैं !
कौनसा लम्हा सच होता होगा ,वो जिनमें अकेले होते हैं या जिसमें साथ होते हैं.………क्या तब सच बोला होगा ? क्या तब जो सुना वो सच था ? जब वो सब भी सच नहीं तो जो आज कह रहे हैं वो भी कहाँ सच है.………

सब मानने का खेल है। जब जो चाहे मानिये -जब जो चाहे ना मानिए। मानने ना मानने से सच भी बदल जाता है ……… और बदले भी क्यों न , हम भी वही सच जीते हैं जिसमें हमें सुकून मिलता है।

सबके अपने अपने सच है  ……खिलौने से सच ! खेलिए और फेंकिए ………यूज़ एन थ्रो सच !

आवारगी का ये सफर किसी एक्सप्रेस हाईवे से होकर नहीं गुज़रता। किनारे सैंकड़ों ढाबे - चाय की गुमटियां हैं जहाँ तजुर्बेकारों की जमात मिल जाती है तो कभी किसी चौपाल की खटिया पर से जहाँ मीठी चाय के साथ कुछ सबक जरूर परोसा जाता है।
सब बटोर लिया है झोली में ! एक पल को लगता है कि सब देख लिया सब जान लिया दूसरे ही क्षण कोई बच्चा बंद मुट्ठियाँ लिए सामने आ जाता है कि बताओ तो मेरे हाथ में क्या है ??

मैं हतप्रभ ,हैरान हूँ  नियति का अभी मुझे और क्या दिखाना शेष है.…… आईना देखना अब अच्छा लगने लगा है ! अपने ऊपर लानते -मुलव्वतें बरसाने का भी कोई अवसर मिल जाना चहिये ………इतने पते पूछे कि अपना पता भूल गए और जिनसे मिले वो बे - ठिकाना निकले  !

उम्र  गुज़र जाती हैं पर दीवारों और छत पर लगे सवालों के मकड़जाल नहीं उतरते। सब जस के तस है....... जहाँ से चले थे वहीं आ पहुंचे !

लेकिन फिर भी सफर मेरी सांसों में है ……वो झील वो झील का किनारा वो पहाड़ वो दरिया……… बस एक वही सच है ! मुझे वहीं लौट जाना है। जंगल में गुम हो जाने के लिए या झील पर पहाड़ों से उतरती रोशनी बन तैर जाने के लिए !

मुझे बस अन्ना याद आती है ....... वोलेंस्की से कोई शिकायत नहीं ! यही मेरा सच है जो टॉलस्टाय 100 साल पहले लिख गए थे  …… नाम बदल गए और कुछ नहीं बदला  !

Monday 21 September 2015

सोशल मीडिया का इतिहासकार बन जाना डिजिटल यथार्थ है।

कितना भी चाहें अतीत पीछा नहीं छोड़ता ,वो लौट आता है नए किसी चेहरे के साथ……… बंद किताब के पन्ने फिर फ़ड़फ़ड़ा जाते हैं और वही तारीखें वही सिलसिले एक बार फिर जिंदगी से गुज़र जाते हैं।

हम सबकी जिंदगी का अपना इतिहास है जिसमें कितने ही ऐसे किरदार हैं  जिनके नाम याद नहीं , ठिकाने भी याद नहीं लेकिन वे जाते भी कहीं नहीं। तारीखें भी इतिहास हैं।

सोशल मीडिया भी एक दस्तावेज है ,नए युग का इतिहास इसी में संजोया और लिखा जा रहा है।  हम सब ढूंढने में लगे हैं और जो मिल गए उन्हें लिस्ट में जड़ के फिर नया खोज रहे हैं।

फेस बुक ने पुराने दोस्तों को फिर मिला दिया ,इतिहास बनते बनते रह गए या नए इतिहास में बदल गए कमोबेश बात एक ही है पर जो भी है सोशल मीडिया का इतिहासकार बन जाना डिजिटल यथार्थ है।

हॉस्टल में वो जूनियर थी मेरी ....... प्रेरणा दी ,प्रेरणा दी करती अक्सर आगे पीछे घूमती रहती थी ! यूथ फेस्टिवल में साथ इंदौर गए थे ! कुछ और भी तस्वीरें थीं जिनमें हम साथ थे  ……… दी देखिए ना ,हम यहाँ गए थे ,हम जब वहां गए थे तो आपने ये कहा था ,वो कहा था  ……… उफ्फ्फ ! कितना बोलती थी !

दी ,रोज़ शाम आप जब सामने वाली सड़क से गुज़रती थीं तो हम आपकी खिलखिलाहट से आपको पहचान लेते और दरवाजे तक आपको देखने आ जाते थे !………हॉस्टल अलग था हमारा ,पर उसको जब भी मौका लगता वो चली आती थी ,अपनी किसी दोस्त के साथ , कभी यूँही और फिर घंटो कहानियां सुनाती रहती  !
हॉस्टल से निकले तो एक शहर में रहते हुए भी नहीं मिले……सुना उसकी शादी हो गयी ! मैं जर्मन पढ़ने में व्यस्त रही ……… यूनिवर्सिटी के मायाजाल ने ऐसा उलझा दिया कि पीछे का सब इतिहास बनता चला गया ! मेरे भी शहर बदलते रहे ……

20 साल बाद एक रोज फोन पर वही परिचित आवाज़ एक बार फिर सुनायी दी ! दी , कैसी हैं आप ? आवाज़ नहीं भूली थी पर इतनी उदास आवाज़ उसकी नहीं हो सकती थी सो नाम पूछ बैठी ! ये प्रियंका थी……… ! वही जिसका जिक्र कर रही हूँ ! फेसबुक से ही किसी दोस्त से उसने मेरा फोन नंबर लिया था !

फोन पर खुद को संभाले रखा इसके बाद नहीं संभाला गया ! रो ली ……कैंसर का आखिरी दौर था ये उसका ! उसकी उदास आवाज़ का सबब !

फेसबुक पर उसकी रिक्वेस्ट आयी हुई थी ! हम फिर जुड़े …… एक रोज फेसबुक पर उसका स्टेटस देखा तो उसे बहुत डांटा ! मत लिखा करो ये सब ,हम हैं न ………" दी ,मिलने आ जाओ एक बार " वो यही कहती रही.......

मैं उस मुलाकत से बचना चाह रही थी ! कदम भारी थे उस रोज़ ……" दी , वो  रेलवे में थे , दो बच्चे हैं ....... ! उसने बताया था कि कैंसर ने उसके बच्चों से उनके पिता को छीन लिया और उनकी जगह मिलने वाली नौकरी को वो अपने कैंसर के कारण तब तक ज्वाइन नहीं कर पायी थी !

छोटे बेटे को हिन्दुस्तान के हर रेलवे स्टेशन का नाम और पूरी गुज़र मुहं ज़ुबानी याद है ! 12-13 साल का उसका ये बेटा उससे एक पल को अलग नहीं बैठा ! " मानसिक कमज़ोर बच्चों के स्कूल में दाखिला करवाया है दी "  ये कैसे रहेगा दी ! ………हम चुप थे पर बोल रहे थे !

मैं जब उसके दरवाजे से लौटी तो अहसास हो चला था कि ये शायद आखिरी मुलाक़ात हो !

वो सुबह भी किसी रोज़ आनी ही थी ! आ गयी ,प्रियंका चली गयी ! मैंने उसके फेसबुक पेज पर मेरी उसकी बातचीत का वो आखिरी वीडियो डाला जो उसकी हंसी का अंतिम प्रमाण बन इतिहास में दर्ज हो गया ! उसका फेसबुक प्रोफाइल जिन्दा है वो इतिहास बन गयी है !

डिजिटल इतिहास बन जाना इस डिजिटल युग की नियति है ! एक ही सबक सीखा इस सबसे कि डिजिटल रिश्तों के इस दौर में उन लम्हों को संजो के रखिये जो असल जिंदगी में सुकून और ईमानदार अहसास लिए आते हैं बाकि सब आना -जाना है ,लगा रहेगा ! मेरे पास कुछ ऐसे कीमती पल हैं जो मुझे जिलाये रखते हैं और किसी डिजिटल दीवार के भरभरा के गिर जाने से मुझे सुरक्षित बाहर निकाल लाते हैं !

आवारगी का ये सफर कितने फ़साने समेटे है उन सबको इस डिजिटल इतिहास के आर्काइव  में जमा कर दूँ तो मैं भी चलूँ………

वो झील ,वो पखडंडी मुझे पुकार रही है ! दूर जाना है...........  

Saturday 19 September 2015

मेरी आवरगी को ट्वीटर की नज़र लग गयी !

ये ट्वीटर भी अजब शह है , इसमें न उलझती तो भला रहता ! जिंदगी सुकून में थी ! टीवी और अखबार से मिली चंद खबरें और खबरों से बने मुगालते इस हकीकत से क्या बुरे थे ....... वो कम से कम उलझाते तो ना थे ! कुछ एक सीरियल और उनकी काल्पनिक दुनिया कुछ घंटों के लिए ही सही बेमुरव्वत जमाने से दूर ही टहलाने के लिए लिए जाते थे ! क्या बुरे थे ? किसी खबर का सच जान के भी क्या कर लिया मैंने ?

यहाँ आये शायद साल भर हुआ है लेकिन लगने लगा है कि कहीं जन्म से ही तो यहाँ नहीं हूँ.......... रवीश से ट्वीटर था और शायद अब भी है ! रवीश इतनी बार ट्वीटर का नाम न लेते तो मैं शायद यहाँ नहीं होती....... जब आयी थी तो लगता था कि 140 शब्दों की सीमा में कुछ भी कह पाना मुश्किल है ,अब लगता है कि 1000 शब्द भी लिख दो तो भी कुछ नहीं होने वाला ! सब कुछ जस का तस है……… धरती घूमे जा रही है हमें वहीं बने रहने का भरम बना रहता है।  जो बदल रहा है वो कहाँ बदल रहा है किसी को नहीं पता पर सब के तमंचे में 140 गोलियां हमेशा भरे रहती हैं।

जिंदगी की टाइम लाइन और ट्वीटर की टाइम लाइन में कोई अंतर नहीं है , यहाँ भी जानेअनजाने वही चेहरे -नकाबपोश इर्दगिर्द जमा हो जाते हैं जो या तो आपके घोर समर्थक हैं या घोर आलोचक ! जो न्यूट्रल हैं वे आते जाते रहते हैं ! संवाद समर्थकों -प्रशंसकों से होता है विवाद आलोचकों से !  तुम मेरा आरटी करो मैं तुम्हारा आरटी कर देता हूँ वाली डील उन रिश्तों सरीखी है जो हाँ में हाँ कहने के लिए सहेजी और बनायी जाती है।

यहाँ आने के बाद मेरे शब्द भंडार में उन शब्दों ने भी जगह बना ली जिसे मेरे भाषायी संस्कार शायद ही कभी अपना पाते ....... अब सब सामान्य लगने लगा है ! इम्युनिटी पैदा हो गयी है ,निम्नतम उपमाएं भी सहन करने लगी हूँ .......... देर शाम घर लौटते थे तो पहले माँ -पापा  फिर पति चिंता करते कि सुरक्षित लौट आये ! अब क्या ? …… अब वे क्या जाने कि यहाँ बिना कहीं जाए मैं दिन भर मान भंग की शिकार होती हूँ !

हवस के भूखे -नंगों का ठिकाना भी यहीं देखा ! ठरक के ठेकेदारों को नैतिकता का ज्ञान बांटते देखा ! इश्क़ के पैरोकारों को जिस्म को उघाड़ते देता …वो जो 140 शब्दों में आँखों में मयख़ाना उतार देते हैं उनको दूसरे कमरों में उन्हीं आँखों से उसी मयखाने को जिस्मफरोशी का अड्डा घोषित करते देखा !

अजब खेल है गज़ब लोग हैं ! सत्ता के खिलाड़ी भी मिले ,गोटी चलने और गोटी बदलने में हुनरबाज़ भी यहीं मिले ! खबरों को तलने वाले , ख़बरों को मसाला लगाने वाले भी देखे ! सच के पुलिंदे और झूठ से लबरेज ,पल -पल पलटते वादे -दावे भी देखे !

इस एक साल में जिंदगी बदल गयी ! ट्वीटर की गली में बने मकान की ईंटों से भी घर सा प्यार हो गया है , इर्दगिर्द नए रिश्तों का बगीचा भी लगा है पर मन अक्सर उचाट हो जाता है……… लगता है मनो ये निःशब्द चीखने की जगह है !

इन सबके बीच तुम भी यहीं हो ....... ट्वीटर शहर की एक गली में तुम्हारा भी आशियाना है ! घूमते -फिरते पीले सितारों की सौगात दे जाते हो ! कभी कोई खत डीएम पर चला आता है ! कुछ दिनों से तुम उदास हो या शहर से दूर हो -- हर पल की खबर मुझ तक पहुँचती रहती है  ……पर जब ट्वीटर पर नहीं थे तब भी तो हम वहीं थे ! खबर की तब जरूरत भी न थी। ....... पता था कि तुम कहीं भी हो आसपास ही हो !

ऑरकुट से चले ट्वीटर पर आ पहुंचे ! सब बदल गया ……… कैलेंडर के पन्नो सा हैडर -बायो बदलता रहा।

मैं भी बदल रही हूँ -- ट्वीटर ने मुझे बदल दिया ! मैं कहने लगी हूँ ,सहने लगी हूँ ,छुपाने लगी हूँ...........मैं अब सिमटने लगी हूँ !

उचाट हुआ जाती हूँ……जाती हूँ फिर यहीं लौट आती हूँ ! बंद हो ये सिलसिला ,लौट आये वो सुकून...... मेरी बेपरवाही कहीं खो गयी है इस सफर में ! मेरी आवरगी को ट्वीटर की नज़र लग गयी !

ये ट्वीटर है मेरी जान यहाँ सब चलता रहेगा अब कुछ थमने वाला नहीं है सो आप भी कहते रहिये -सहते रहिये - ढोते -बहते रहिये ! खुद से बतियाना है ये !

चलते हैं आप भी बढ़ते रहिये !




Thursday 17 September 2015

आप भी चलते रहिये…… सफर में रहेंगे तो सफरिंग कुछ कम होगी ! हैप्पी आवारगी !

बानगी है सफर की या रवानी उम्र की………  पड़ाव दर पड़ाव हैं ! चलती फिरती रिश्तों की धर्मशालायें हैं ,कुछ सस्ते होटल कुछ जेब काट होटल भी हैं ! कुछ खुले आसमान से हैं कुछ खिड़कियों के पीछे से झांकते ,दरवाजे की जद से झांकते रिश्ते हैं…………

तुम साथ क्यों न आईं …… वो अक्सर पूछता है ? बरसों से पूछ रहा है …… मैं चुप रह जाती हूँ ! जवाब ना तब था ना अब है। पर सच ये है कि न उसका लौट जाना हुआ न मेरा लौट आना हुआ........ हुआ तो बस सफर हुआ !

जिंदगी की कहानी सफ़र के इर्दगिर्द टिकी है। अमृता प्रीतम के " रसीदी टिकिट " को कई बार पढ़ा ,हर बार इसी नतीजे पर आ टिकी कि सब आवरगी है ....... ख्यालों की आवारगी ,रूह की आवारगी ! टॉलस्टॉय की अन्ना का अंत उन पहियों के नीचे हुआ जो ताउम्र उसका पीछा करते रहे ..........

वोलेंस्की हर युग में रहे ,अन्ना भी आसपास है ……सफर भी, पटरी भी !!

कितने टुकड़ों में बंटे अहसास है ,न सब तेरे हैं न सब मेरे हैं - सब आधे सब अधूरे !! पूरा होने की प्यास में सफर दर सफर - पड़ाव -दर पड़ाव !! हर बस्ती मयखाना थी पर हर बस्ती प्यासी थी ……कोई नहीं मिला जो कहे कि " बस ! अब और कुछ नहीं " !!

मैंने कस्तूरी चुनी है , भाग रही हूँ उस सोने के हिरण के पीछे जो मुझे जंगल जंगल लिए जाता है ! अब इस तलाश में मज़ा आने लगा है , गुम जाने का मन है ! ऐसा गुमना हो कि कोई शोर मुझ तक न पहुंचे ....... चलना ऐसा हो कि रुकने की हर गुंजाइश खत्म हो जाए !

सात समंदर की दूरी है पर रूह के इतने करीब कि सफ़र का ना आगाज़ अब याद रहा न अंजाम का पता है………मेरे आसपास की दुनिया में सब हैं पर कोई सफ़र की दूरी का साथी नहीं हो सकता !

सफर हमेशा अकेले ही करना चाहिए जब अकेले होते हैं तो झमेले से दूर होते हैं !! सबके अपने सफर -सबकी अपनी मंज़िल !!

कोई सफर चाँद के साथ लौट रही हूँ ……चाँद रात उजास लिए  मेरी पलकों पे टिकी है ! खिड़की से सिर टिका है.... हवा की नमी और मटियाली गंध चुंबक सी वक़्त को सालों पीछे के किसी सफर में ले जाती हैं !

सफ़र अकेले करती हूँ पर अकेली कब होती हूँ ....... मुझे ऐसे ही पसंद है ! उस एक विदा के बाद अब कोई विदा सहने करने का माद्दा शेष नहीं है !  अब किसी साथ की चाह भी शेष नहीं हाँ बस सफर शेष है  जो अंतिम विदा तक करना ही नियति है , करना जरूरी है !

मेरी आवारगी मेरी जान मेरा सलाम है !

आप भी चलते रहिये…… सफर में रहेंगे तो सफरिंग कुछ कम होगी ! हैप्पी आवारगी !

Tuesday 15 September 2015

जितना दूर हो रही हूँ शोहरत की बाजीगरी उतना उलझा रही है .......

जिंदगी हैरान करती रहती है , कितना कुछ अचानक कितना कुछ वैसा घट जाता है जो कभी सोचा भी न होता है ……

ABP न्यूज़ का बेस्ट ब्लॉगर अवार्ड मिलना भी ऐसा ही कुछ अप्रत्याशित सा है  ………… हैरान इतनी कि खुद अपने ब्लॉग को दुबारा पढ़ने का जतन किया कि ऐसा क्या लिख दिया जो ईनाम का हकदार था !

नहीं समझ आया ....... बस वो लिख देती हूँ जो मेरा दिल कहता है ……… जिंदगी के इस मोड़ पर सही -गलत का निर्णय करना बेमानी है ! अब जो चाहे तय करे पर मेरे लिए अब इसका कोई अर्थ नहीं रह गया है। 

बोलने से पहले सोचना ही हो तो चुप्पी बेहतर है।  ज्यादा सोच -विचार से ईमानदारी चली जाती है …… स्वार्थ के मुलम्मे चढ़े शब्द बोल अब किसे रिझाऊं …………हमाम में सब नंगे हैं। 

लोग सलाह देते हैं दोस्तों को परख लिया करो ……मैं कहती हूँ बिना दोस्ती किये परखूँ कैसे और जिसे दोस्त मान लिया उसे परखना कैसा ? जो हो सो नसीब मेरा………… छल मिला तो भी अपना - निश्छल मिला तो भी अपना सा लगा।

 मैं दरिया हूँ ,ये कब सोचूँ कि बहूँ कि ना बहूं ……………इतना सोचूंगी तो मेरी रवानी नाले में बदल जाएगी। .......... मैं तो फिर सफर में हूँ ,दूर सागर में जा मिलना है।  लम्बा सफर है कहाँ तक ,किस घाट -किस बाँध की जद में आऊं …………। 

"मैं आगे निकल आयी हूँ………… और तुमसे भी दूर निकल आयी हूँ  .......... हाँ , तुमसे भी " 

पहाड़ -जंगल -झील.………सबसे पार जाना चाहती हूँ …… उड़ जाना चाहती हूँ ,हर सिलसिले से दूर ,हर किस्से -हर कहानी से दूर ……सांस के झमेलों से दूर.......... 

जितना दूर हो रही हूँ शोहरत की बाजीगरी उतना उलझा रही है....... ये जिंदगी का आख़िरी दांव है शायद ,मुझे बहकाने का , मुझे फंसाने का ............. मैं इसे भी जी रही हूँ पर मैं इसमें कहीं नहीं हूँ ! ये खेल नियति रच रही है मेरे लिए ……………कब तक फंसा सकती है , ये खेल भी देख रही हूँ !

मुझे बस झील का एक वो एक कोना चाहिए  जिसके किनारे खड़े दरख्त का सहारा लिए मैं पहाड़ों से उतरती परछाइयाँ जी सकूँ………नियति मुझे सागर के किनारे ला खड़ा करती है , वो सागर जो न प्यास बुझाता है न मेरे परवाज़ की जद में है ! मैं इस सागर का क्या करूँ……… ?

जब सफर पर निकल थी तब भी सोच के नहीं निकली थी कि कहाँ पहुँचूंगी , बस इतना पता था कि सफर को जीना है………… 

भरपूर प्यार दिया इस आवारगी ने ,इतना कि मेरा आँचल भी इसे समेटने को कम है। जो मिला सब स्वीकार है …… बस उलझना स्वीकार नहीं है। 

मुझसे मत उलझिए ,बहते रहिये , जीते रहिये ,चलते रहिये………मिलें न मिलें किनारों सी मेरी जद बने रहिये !

खुश रहिये  !


Sunday 6 September 2015

पर्सनल मैटर पर गपशप आंटियों का काम है ……अंकल झाँका-झांकी से काम चला रहे हैं

कुछ दिन पहले मेरी टाइम लाइन पर मुझे टैग करके किसी ने किसी के किसी के साथ संबंधों में होने की बात कही , संबंधित हैंडल देखे तो लगा कि संबंधित की स्वीकृति है तो बधाई दे डाली ............. एक बधाई को स्वीकार करने वाले ने इस बधाई पर हाहाकार मचा दिया............. लड्डडू की उम्मीद में लानतें नसीब हुई ……

उस दिन ज्ञान मिला कि किसी का किसी के साथ रिश्ता उसका निजी मामला है , पर्सनल मैटर पर गपशप आंटियों का काम है ……दीगर बात ये कि अंकल झाँका-झांकी से काम चला रहे हैं। 

उस दिन से मेरी ऑंखें अंकलों की इन्द्राणी के पतियों में दिलचस्पी और दिग्विजय सिंह के अमृता से विवाह पर आने वाले ठरकी सवालों पर जा टिकी हैं।  

वे जो दूसरों की नैतिकता पर प्रश्न उठा रहे हैं अपने गिरेबान में क्यों नहीं झांक रहे ……… इसलिए कि उनके गिरेबान में सनी लियोनी के कंडोम एड की क्लिप है या पोर्न की ओवरडोज़ ने उनके गिरेबान को चाक कर रखा है। 

जब आपकी बारी आती है तो सब निजी हो जाता है जब दूसरों की बारी आती है तो सब सार्वजानिक हो  जाता है और आपके पास उनके चरित्र हनन का अधिकार चला आता है !

सवाल ये होना चाहिए कि क्या वयस्क ये अधिकार भी नहीं रखते कि वे अपना साथी चुन सकें ?? उम्र जब उन दोनों के लिए बंधन नहीं है तो किसी को भी क्या परेशानी है………… वे विवाह कर हे हैं , रेप नहीं कर रहे हैं ! 

इन्द्राणी के कितने पति हैं कि जगह उसके नैतिक और कानूनी अपराधों का जिक्र होता तो ठीक होता पर आपको ये अधिकार किसने दिया कि किसी के बैडरूम की कहानियां आप चटखारे ले कर सुनाते फिरें और निजता की ताल भी ठोकते रहें।  

बेमानी है आपकी नैतिकता और निजता कि दुहाई --- बिलकुल मेरे कहानी "ट्विटर रासलीला के महानायक " के महानायक के चारित्रिक गुणों जैसी ! जो संबंध बनाता है फिर संबंधों को नकारता है............ नैतिकता और बौद्धिक  व्यवहारिकता के धरातल पर उसे सही सिद्ध करने के लिए हर तरह का जुगाड़ करता है। 

क्लीवेज का मसला हो या राधे माँ के नए अवतार हों सब पर आने वाली टिप्पणियां यौन कुंठाओं का बयां करती हैं। जब आप गालियों  में माँ -बहन और यौन शब्दावली का सार्वजानिक इस्तेमाल करते हैं तो फिर निजी कहने के लिए बचता क्या है……

बंद कीजिए उपदेश देना ! यदि आप नहीं चाहते हैं कि आपके बैडरूम और आपके संबंधों को लेकर सवाल किये जाएँ तो आप भी अपना मुहं बंद रखिये। 

पर उपदेश कुशल बहुतेरे………… बाबा तुलसी जानते थे कि ये बात हर युग में सही सिद्ध होगी ! सो हो गयी !

चलते हैं आप भी चलते रहिये....... ठहरा पानी बदबू मारने लगता है सो बहते रहिये !

Saturday 5 September 2015

ये ख़्वाब उस झील किनारे किसी प्रेत सा लटका है ………पर रूह से अब आज़ाद हुआ जाता है !!

कुछ लम्हे  जिंदगी में  चाँद से उतर के आते हैं और हादसों की शक्ल में उम्र भर न भरने वाला घाव देकर जाते हैं।……ये वो पल होते हैं जिनमें जिंदगी भर के तमाम तजुर्बे  और फ़लसफ़े बेमानी हो जाते हैं !! सब सीखा -पढ़ा बेकार सब सुना अनसुना हो जाता है …………

यकीं दिला कर ताउम्र बे - यकीं कर देना किसी के लिए आसां हो सकता है ,किसी के लिए किसी के आंसू उपहास का सामान हो सकते हैं , किसी के लिए किसी का समर्पण बाज़ार में हर दुकान पर बिकने वाला कोई सस्ता सामान भी हो सकता है !!

जिंदगी भी हिसाब बराबर करती है --- मेरे गुनाह की सजा मुझे स्वीकार है और इसी जन्म में स्वीकार है !! गुनाहों का कर्ज लेकर अगले जन्म में फिर एक बार उसको चुकाने के लिए सामना हो ,नहीं चाहती ! गुनाह ये कि किसी चाँद की रोशनाई पर भरोसा कर चाँद के लिए सीढ़ी चुन ली !!

चाँद से उतर आयी हूँ ....... अब जमीन पर हूँ तो दिखा  कि वो स्याह काली रात के बाद के धुंध में लिपटी सुबह भी काली ही थी जब एक और अँधेरे का सफ़र तय करना था…………

पहाड़ के चक्कर खाती कार और उसमें बज रहे गानों की रुमानियत अब रुदाली के गीतों सी महसूस हो रही है !! सीन बदलता है और फिर एक सफ़र ....... फिर कोई शाम ,कोई रात कोई अंधेरी सी सुबह .......

चीत्कार मे बदल जाती हैं खूबसूरत स्मृतियाँ………… घाव इतने रिसते हैं कि धोने के लिए जिंदगी भर आंसू भी कम पड़ेंगे !!

कुछ सफर अंधेरों के होते हैं ,अंधेरों के साथ होते हैं ,अंधेरों पर खत्म होते हैं !  ऐसे सफ़र के फ़साने अक्सर तो सोने नहीं देते सो जाओ तो डरा के उठाए रहते हैं……… कितनी रातें दीवारों पर परछाईयाँ गिनते बीतती है और कितनी सुबह कितनी रातों को खो कर चली आती !!

दर्द का सिलसिला सैलाब बन बहता रहता है ………तकिये पर पड़ी आंसुओं की धार के निशां उस ख्वाब की गवाही देते हैं जिसमें मेरा जमीर ही मेरा क़ातिल हुआ जाता है …………

ये दर्द का ज़लज़ला है जो मेरे जिस्म से मेरी रूह को लिए जाता है .............

ये ख़्वाब उस झील किनारे किसी प्रेत सा लटका है ………पर रूह से अब आज़ाद हुआ जाता है !!

चलो अब अलविदा कहते हैं , ये सफर यहीं खत्म करते हैं !

Thursday 3 September 2015

ये दरिया ए आवारगी है …खामोशी से इसकी धुन सुनिए और बहते रहिये !

कल रात शारदा नदी का वो किनारा याद आ रहा था !! शाम का मंज़र और पहाड़ों के सिरहाने से गुजरती शारदा ………नदी की आवाज़ में एक जादू होता हो , उसकी आगे बढ़ने की गति और किनारों से उलझने की लय में जीने का मंत्र गूंजता है !!

नदी किनारे के रास्ते पर आगे बढ़ते रहिये तो लगेगा कि मनो आप के संग खेल रही है , जीतने को कभी हार जाने को मचल रही है……… किनारों पर कभी ठहरी सी , कभी उनको धकेलती- मचलती सी खुद ही में आनंद लुटाती बढ़ती जाती है ……

मैं जिस पर बैठी थी वो बालू रेत का किनारा था ……हाथ में सीपियाँ आ गयीं कुछ पत्थर भी !! अकेले बैठे हों तो धार को भी शांत नहीं देख सकते ……नन्हे पत्थर हथेलियों से होकर नदी में समाते रहे ! ख्याल दर ख्याल किसी चित्रकथा से नदी में उतरते रहे………नमी कभी मुस्कान तैरती रही !!

सूरज डूब रहा था ,पेड़ की छायाएं लम्बी हो नदी में उतरने को आतुर थीं , पहाड़ों की परछाईयों के सहारे आसमान  का अक्स नदी को सतरंगी बना रहा था ! कहीं दूर से तैरते आ रहे दीपों की जोड़ी लहरों के थपेड़ों खाकर भी न बुझने की जिद पाले तैर रही थी ……

मैं घंटों बैठी रही ……वो शाम ख़ास थी ! वो जिद थी वो जद नहीं थी इसका एहसास हो चला था मुझे ……मेरी जिद मेरी जद और मेरी जंग में ये नदी मध्यस्थ थी !!

निर्णय बड़ी देर में आया .......... नदी ने कहा बहती जा , जा दरिया बनके जी ! 

मैं लौट आयी उस निर्णय के साथ और अब कंक्रीट के जंगल में भी दरिया सी बहती हूँ , दरिया को जीती हूँ ....... पहाड़ सी ख्व्वाहिशों के दीप नदी में हर शाम टिमटिमाते ,उलझते तिरोहित हो जाते हैं ……मैं बहती रहती हूँ ....... दरिया के कोर की नमी जाती नहीं पर मैं मुस्कुराती आवारगी से बाज आती भी नहीं ……… 

थम जाने की नियति मुझे मंज़ूर नहीं है , मैं जब तक तुम में न समा जाऊं बहती ही रहूंगी ..........सागर कोई इतना भी दूर नहीं………बहने दो मुझे ! माना कि बहना खेल नहीं है पर खेल ना खेलूं ये कहाँ मना है ……मैं डूबूँ या पार हो जाऊं कोई फर्क नहीं पड़ता ………उम्र के इस मंज़र पर शर्त कोई मंज़ूर नहीं है !

ये दरिया ए आवारगी है …खामोशी से इसकी धुन सुनिए और बहते रहिये !

Wednesday 2 September 2015

सवालों का जंगल मन में बसा है। समंदर से खारे जवाब ..........दरिया सी प्यास है .........

कुछ दिन चिल्ल्पों में गुज़ार दो तो  दिमाग का फ्यूज उड़ जाता है ……… भाग जाने का मन करने लगता है !! सब कुछ कितना बेमानी सा है ! एक दौर होता है जब आसपास सब सुख साधन चाहिए होते हैं .......नया टीवी ,नई कार ,नया मोबाइल सब रोमांचित करते हैं लेकिन एक सीमा के बाद इनकी औकात भी किराने सी हो जाती है ………

सब बोझल हो जाता है ,मन फिर इस सबसे परे किसी आकाश में उड़ने लगता है ……

वो पहाड़ की चोटी याद आती  है जिसके एक और फॉयसागर और दूसरी और पुष्कर दिखाई देता  है ……पहाड़ी पखडंडी ,बकरियों के झुण्ड , झूलती शाखाएं और तने का सहारा याद आता है ……पहाड़ों से मुझे ऑब्सेशन है …… वो मुझे ऐसी जादुई दुनिया में ले जाते हैं जिसका आकर्षण खत्म होने को ही नहीं आता है !! न सागर भाता है ना जंगल …………पहाड़ साथ न हों तो दुनिया पहाड़ सी लगने लगती है !! 

सवालों का जंगल मन में पसरा  है। समंदर से खारे जवाब ..........दरिया सी प्यास है .........

अजब आवारगी का आलम है ,सफर पर हूँ पर ठहर सी गयी हूँ ! बीता सब कुछ  बीता पर भीतर कितना कुछ रीत गया ……क्या दावा करूँ कि सब देखा पर कितना कुछ है जो अनदेखा है , अनदेखे का रोमांच जिलाये रखता है पर जो घट जाता है उसका भाव भी बीता जाता है ....

मैं फिर से लौट आती हूँ तुममें……… उस स्नेह के स्पर्श में जिसमें पहाड़ सा आकर्षण है , पहाड़ों सा ठहराव और पहाड़ों सी ताजगी है !!

सुनो … बाल खुले छोड़ दो .... हाथ दो और साथ बाहें फैला कर मेरे साथ खड़ी हो जाओ………गहरी साँस लो और मुझे जी लो ……… !  

वो कुछ पल आज तक जी रही हूँ ……… और इसीलिये जी भी रही हूँ !

उस पहाड़ी का वो शिखर मेरी आवारगी का साथी है !! मैं कहीं भी जाऊं ,तुम में लौट आना ही मेरी नियति है .......... मुझे इससे बेहतर कुछ मिला भी नहीं ! न मिले ....... तुम हो ना !