Tuesday 22 September 2015

सबके अपने अपने सच है ……खिलौने से सच ! खेलिए और फेंकिए ………यूज़ एन थ्रो सच !

कितना भी सफर कर लें ,कुछ रास्ते -कुछ नज़ारे फिर भी अनजाने ही रहते हैं। न सफर नया, न रास्ते नए ,न नज़ारे जमाने से जुदा ……… फिर भी कितना कुछ देखने से रह जाता है। कभी लगता है कि देखना आँख से कहाँ होता है ,मन से हुआ करता है....... मन नहीं है तो नहीं दीखता। जब मन उचाट हो जाता है तो पन्ना भी झट बदल जाता है ....... फिर वह सब वही नहीं रहता ,बदल जाता है।

ये नज़र आँख से कहाँ वाबस्ता है ....... चश्मा बदल लेने से भी सब कुछ कहाँ साफ़ दीखता है ! जानने -पहचानने के लिए किसी गुज़र से गुज़रना भी कहाँ जरूरी है……… एक लम्बा अरसा साथ गुज़र लेने के बाद भी अचानक किसी रोज़ किसी नए सच का साक्षात्कार होना ये साबित करता है कि कोई पहचान साथ से भी वाबस्ता नहीं होती।

कितने घंटों तुमको सुना है ,कितने ही घंटों तुमको पढ़ा है .......... कितना तुमको लिखा है लेकिन कुछ नहीं जाना ! नहीं दावा कर सकती कि मैंने लेशमात्र भी तुमको या खुद को जान लिया ……बेमानी फ़लसफ़े हैं !
कौनसा लम्हा सच होता होगा ,वो जिनमें अकेले होते हैं या जिसमें साथ होते हैं.………क्या तब सच बोला होगा ? क्या तब जो सुना वो सच था ? जब वो सब भी सच नहीं तो जो आज कह रहे हैं वो भी कहाँ सच है.………

सब मानने का खेल है। जब जो चाहे मानिये -जब जो चाहे ना मानिए। मानने ना मानने से सच भी बदल जाता है ……… और बदले भी क्यों न , हम भी वही सच जीते हैं जिसमें हमें सुकून मिलता है।

सबके अपने अपने सच है  ……खिलौने से सच ! खेलिए और फेंकिए ………यूज़ एन थ्रो सच !

आवारगी का ये सफर किसी एक्सप्रेस हाईवे से होकर नहीं गुज़रता। किनारे सैंकड़ों ढाबे - चाय की गुमटियां हैं जहाँ तजुर्बेकारों की जमात मिल जाती है तो कभी किसी चौपाल की खटिया पर से जहाँ मीठी चाय के साथ कुछ सबक जरूर परोसा जाता है।
सब बटोर लिया है झोली में ! एक पल को लगता है कि सब देख लिया सब जान लिया दूसरे ही क्षण कोई बच्चा बंद मुट्ठियाँ लिए सामने आ जाता है कि बताओ तो मेरे हाथ में क्या है ??

मैं हतप्रभ ,हैरान हूँ  नियति का अभी मुझे और क्या दिखाना शेष है.…… आईना देखना अब अच्छा लगने लगा है ! अपने ऊपर लानते -मुलव्वतें बरसाने का भी कोई अवसर मिल जाना चहिये ………इतने पते पूछे कि अपना पता भूल गए और जिनसे मिले वो बे - ठिकाना निकले  !

उम्र  गुज़र जाती हैं पर दीवारों और छत पर लगे सवालों के मकड़जाल नहीं उतरते। सब जस के तस है....... जहाँ से चले थे वहीं आ पहुंचे !

लेकिन फिर भी सफर मेरी सांसों में है ……वो झील वो झील का किनारा वो पहाड़ वो दरिया……… बस एक वही सच है ! मुझे वहीं लौट जाना है। जंगल में गुम हो जाने के लिए या झील पर पहाड़ों से उतरती रोशनी बन तैर जाने के लिए !

मुझे बस अन्ना याद आती है ....... वोलेंस्की से कोई शिकायत नहीं ! यही मेरा सच है जो टॉलस्टाय 100 साल पहले लिख गए थे  …… नाम बदल गए और कुछ नहीं बदला  !

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