Tuesday 12 July 2016

रिश्तों का लिटमस टेस्ट हर कोई अपने फार्मूले से करना चाहता है........

बहुत देर तक सोचती रही क्या बात करूं उससे ,उसके सवालों के जवाब हैं मेरे पास पर सच उसने सुनना नहीं और तर्क में मुझे अब उलझना नहीं।

संवाद का ये दौर भी अजीब होता है। स्वीकृति और अस्वीकृति के बीच भी सहमति बन जाती है जिसमें साथ चलने की गुंजाइश ज्यादा बेहतर हो जाती है ............ जरूरी भी है , हर एक के जिन्दगी के अपने तजुर्बे होते हैं। हर एक की अपनी प्रयोगशाला है। रिश्तों का  लिटमस टेस्ट हर कोई अपने फार्मूले से करना चाहता है।

मुझे पता है वो जो कर रहा है गलत है पर उसके अपने तर्क हैं ,उसकी अपनी क्षमताएं और उसकी अपनी ख्वाहिशें हैं।  हर एक के भीतर कई किरदार हैं , उनकी अपनी कुंठाएं उनकी अपनी लालसाएं हैं जिनको उसे पूरा करना ही होता है।

मेरा गलत उसके पैमाने पर गलत हो सकता है लेकिन मेरे अनसुने तर्क उसकी जिन्दगी की तहरीर लिख रहे हैं।
ये इश्क भी कमाल का है, न उसके करीब जाने देता है न उससे दूर ही होने देता है।
कभी वो खुद से हार जाता है तो बेसाख्ता बाहें पसार देता है और कभी उस जीत से खुश हो जाता है जो उसे खुद से ही दूर ले जाती है ................

एक रोज़ किसी पगडंडी पर टहलते उसने पूछा " क्या सुकून है मेरे साथ वक्त बिताने में " !! ये सवाल भी कमाल था। सोच रही थी कह दूं कि मौत का इंतज़ार इससे हसीं नहीं हो सकता............... कहा नहीं पर खुद पर खूब हंसी ! कितनी अजीब कशमकश है , साथ होने और साथ होकर साथ नहीं होने के भ्रम को पाले रखने की। दोनों की चुप्पी में गजब की रूमानियत और गज़ब का इकरार है ,करार है और तकरार है...........

बरसात में पिघल जाऊं और आसमान को बाहों में भर  खुद को आज़ाद कर देना चाहती हूँ  हर कशमकश से ,हर ख्वाहिश हर ख्वाब से परे.......  पर उसके सवाल जीने नहीं देते और उसकी मुस्कुराहट मरने नहीं देती !!

अच्छा सुनो !! ..........इस बार किसी चौराहे पर मत मिलना ~!! इस बार हम पहाड़ की चोटी या पहाड़ की उस तलहटी में मिलेंगे जहाँ नदी का शोर हो और हवा में देवदार की सरसराहट हो ! बहस करने के लिए भी मूड चाहिए और तुमसे उलझने के लिए तो मुझे कई जनम चाहिए !

मैं कहती जा रही थी ,मुझे पता है वो सुनता नहीं है ! अपनी ही दुनिया में अपना कुछ सुनाने के लिए बेताब .......   वो अपनी दुनिया को लेबोरेट्री बना के जी रहा है मनो उसे ही नोबेल मिलेगा किसी अजूबे ग्रह को खोज लाने के लिए ! मैं हंस देती हूँ उसकी इल्म और फिल्म के बीच जूझ रही जिन्दगी को देख ! वो चिढ़ता है , लड़ता है और फिर से किसी खोज में निकल फिर मुड़ के देख लेता है ......... मैं मुस्कुरा भर देती हूँ !

देखो जो करना है करो ,मैं यहीं हूँ ,देख रही हूँ ,समझा रही हूँ ....... खेलते हुए चोट लग जाए तो सम्भलना ! मैं यहीं मिलूंगी।

चौराहे का पुराना पेड़ हूँ ...... जब भी लौटोगे यहीं मिलूंगी ! वक्त खत्म भी कर देगा तो फिर से यहीं उग जाउंगी और नए रूप में फिर मिलूंगी बस तुम सफ़र सम्भल कर करना ................. खुश खुश मिलना !








Wednesday 6 July 2016

काश कि मोदी भी अरविन्द के साथ खड़े होते .........

सत्ता और सट्टा बेईमानी सिखा ही देते हैं। नीयत में खोट भले न हो राजनीति के दांव खेलने में चालबाज बन ही जाते हैं। हर कोई ईमानदारी का दम भरता है और बेईमान बन जाता है। ईमानदारों की फ़ौज बेईमानों से उलझते उलझते कब दांवपेच सीख जाती है पता ही नहीं चलता।

अरविन्द अकेले क्या कर लेंगे ? मोदी भी अकेले क्या कर लेंगे ? निर्णय दोनों अकेले नहीं ले सकते ,ले भी लें तो उस निर्णय को लागू कराने के लिए जिन लोगों का सहारा लेना पड़ेगा , वो वही होंगे जो उन तक वही बात पहुंचाएंगे जो उनके मन मुताबिक़ हो। सत्ता के चौकीदार भेस धरे घूमते हैं। चमचे और चाटुकार अंततः मोतियों का हार ले जाने में  कामयाब हो जाते हैं और दूरगामी परिणाम के लिए नेतृत्व को छोड़ देते हैं।

मोदी भी उसी छद्म दुनिया में चले गए हैं और उसके ग्लैमर से इस कदर अभिभूत हैं कि वास्तविकता को अब चाह कर भी जी नहीं सकेंगे। सत्ता कुछ मायनों में बेहद क्रूर होती है। 

जब तक नेतृत्व घेराबंदी से बाहर है तभी तक ताजी हवा की गुंजाइश है , बंद कमरों में सिर्फ साजिशें रची जाती हैं। सत्ता का यही खेला जबर्दस्त है , पद और शक्ति पर एकाधिकार की भावना इस कदर प्रबल है कि आलोचना को विरोध मान कर दरवाजे -खिड़कियां बंद कर ली जाती हैं। नतीजा पूरा समाज और उसकी असीमित अपेक्षाएं भुगतती हैं। 

 देश को मोदी और अरविन्द से असीमित अपेक्षाएं हैं।  जनमानस ने दोनों को सर्वशक्तिमान मान लिया है। दुखद ये है कि देश के दो सर्वशक्तिमान साथ होने की जगह हर बार आमने सामने आ खड़े होते हैं। यही दुर्भाग्य है जो देश का पीछा नहीं छोड़ रहा। 

उत्तराखंड भीषण त्रासदी से गुज़र रहा है ,बुंदेलखंड सूखे से परेशान  , बस्तर गरीबी में कैद है.  हम अठ्ठन्नी चवन्नी की लड़ाई लड़ रहे हैं। दाल है नहीं गाय पर बवाल करते हैं। नौकरी नहीं पर राष्ट्रवाद कभी भारतमाता पर बखेड़ा करते हैं ......... 

अरविन्द आंदोलन की उपज हैं ,उनके साथ आंदोलन की शक्ति थी जिसे मोदी दिल्ली के हित के लिए काम में ले सकते थे और देश में सकारात्मक राजनैतिक ऊर्जा का संचार कर सकते थे लेकिन हुआ इसके विपरीत। 

काश कि मोदी भी अरविन्द के साथ खड़े होते और विकास के उस सपने को सच करते जिसका कि वो दावा करते हैं। 

किसी दुर्घटना से कोई नहीं सीखता ! शहादत भी खेल और सियासत भी खेल है।दोनों की मैयत हमारी नियति है।

तो राजनीति -राजनीति खेलते रहिये ,तकाजे करते रहिये और इज़ इक्वल टू की थ्योरी पर चलते हुए देश के प्रति अपनी छद्म प्रतिबद्धता का बेशर्म प्रदर्शन करते रहिये। सब राम हवाले और राम तम्बू के हवाले हैं। 

जय राम जी की। चलते हैं !