Tuesday 20 September 2016

रिश्ते कभी सहूलियत के लिए गढे जाते हैं और कभी सहूलियतें रिश्तों को मुकर्रर करती हैं........

आसान नहीं होता दीवार हो जाना या सड़क बन जाना ,चाहने से कुछ होता भी नहीं ! होना ही होता है तो वक्त के हाथ से ही होता है ,हमें सिर्फ हमारे होने का भरम होता है पर होना कुछ और ही होता है।

जिंदगी की तेज रफ्तारी में पलों को बरस और बरसों को जन्मों में बदलते देखा है। विडम्बना ये है कि जितना बदलते देखा है उसमें से बदला कुछ भी नहीं , सिवा चेहरों के ! किरदार बदल के हर बार वही चेहरे किसी नए मुखौटे के साथ हमारे सामने आ खड़े होते हैं।

तुमने सही कहा है , मैं रिश्तों पर बहुत कुछ लिखती हूँ ......... पर समझती नहीं हूँ। ये सच है कि हम में से हर कोई इस सच को जानता है पर मानता फिर भी नहीं और माने भी कैसे ? रिश्ते कभी सहूलियत के लिए गढे जाते हैं और कभी सहूलियतें रिश्तों को मुकर्रर करती हैं। मुकम्मल दोनों ही नहीं होते ! ईमानदारी दोनों ही परिस्थितियों में नहीं होती। बेईमानी की परिभाषा किसी के लिए सहूलियतों की वो छत है जिसे हम अपने निज की चाह के आधार पर गढ़ते हैं और किसी के लिए जीवन मृत्य का प्रश्न !

छलना जीवन की परछाई है और अनवरत शोर करने वाली वो तन्हाई है जिसकी चीखें अक्सर सोने नहीं देतीं। अक्सर लोग शिकायतें करते मिलते हैं और अपने अपनी किसी उलझन से दूर भाग , किसी सच से पीछा छुड़ा लेना चाहते हैं। कन्धा ढूंढने की चाह में एक बार फिर अपनी लिए एक और चाहना की चिता सजा लेते हैं।

एक ही उम्र में हजार बार मरना और हर बरस उतनी ही धूम से जनम दिन मना लेना, कैसे करते हैं लोग ?

हकीकत से  कोसों दूर ख्वाहिशों का संसार बस जाता है।  ख्वाबों की परियां अक्सर मेरी उंगली थाम मुझे तुम तक ले जाती हैं। मैं जागने पर भटकती नहीं हूँ ,हाँ सोते हुए भटकने के ड़र से अक्सर उस ख्वाब को खो बैठती हूँ। तुम हकीकत में एक ख्वाब हो जो मुझे मेरी उम्र से बहुत दूर ले आया है। ये खूबसूरत एहसास है और उंगलियों में उलझे तुम्हारे सवालों और तुम्हारी खामोशियों में दीवार बन गया है।

मेरी चाहना इस दीवार के टेक लिए बैठी है। सड़क हो गयी हूँ मैं...... तुम तक पहुंची भी और नहीं भी , आगे बढ़ गयी हूँ और पीछे कुछ छोड़ के भी नहीं आयी। तुम मेरे साथ चले आये हो ये जानते हुए भी की सड़क का कोई छोर नहीं होता।

सुनो , जिंदगी चाय का प्याला नहीं है ,न शराब की बोतल ! नशे के चढ़ने से उतरने के बीच मैं हूँ पर उसके सिवा मेरा होना और तुम्हारा ना होना भी उतना ही सच है जितना तुम्हारा हर वक्त नशे में रहने की चाह रखना !

ये सफर है दोस्त , साथ चलो न चलो...... कोई विकल्प वक्त मर्जी से नहीं देता। कदम और रूह हमेशा एक साथ हों इसकी जाँच का कोई पैमाना  दुनिया बना ही नहीं सकती। साथ के लिए तुम कोई क़ानून बना सकते हो पर किन पलों में कौन साथ होता है इसकी सच्चाई को कोई जज महसूस भी नहीं कर सकता ....... इसीलिये दोस्त, दीवार बनकर कोई निर्णय की लकीर खींच भी दो तो भी सड़क उस दीवार को किसी और दीवार से जोड़ ही देती है।

कभी शाम बन के आंगन में उतर जाना और मेरे आँचल पर ग़ज़ल का कोई मिसरा लिखना फिर देखना कि असल  होने और असल जीने में उतना ही फर्क है जितना मेरे मरने और हर रोज जिन्दा होकर एक चाँद बन खिड़की में टिकने में है।

सवालों को छोड़ अब जवाब में आसमां होना सीख लो , मेरी तुम्हारी मुलाकात अब हर रोज वहीं होती है जहाँ सुबह तक हम ख्वाहिशों के सितारे लपेटे अपने लिए नया सूरज गढ़ लेते हैं ! यही हमारा सच है , जितना जल्दी स्वीकार कर लोगे रास्ता उतना आसान हो जाएगा।




Sunday 18 September 2016

मैं वहीं मिलूंगी और तुमको एक बार फिर से थाम लूंगी ......... मैं जिन्दगी हूँ तुम्हारी !

कोई भी सफर पूरा नहीं होता और अधूरा भी नहीं रहता। कुछ चेहरे ,कुछ बातें ,कुछ लम्हे ,कुछ सच और कुछ झूठ,अधूरे -अनगढ़ से हम सबके बीच तमाम उम्र बसे रहते हैं।

नाम भूल सकते हैं , बातें धुंधली हो सकती हैं लेकिन रास्ते के हर पत्थर पर किसी पुरानी हवेली की तरह उनका होना झुठलाया नहीं जा सकता। अतीत से आजाद होना आसां नहीं है पर नामुमकिन भी नहीं बशर्ते उसे धारा के विरुद्ध न मोड़ा जाए। अपने आप को ,अपने अपनों को ,अपनी कमजोरियों को और अपने सपनों को अपनी ढाल बनाये बिना हम जीत सकते हैं ,आगे बढ़ सकते हैं। 

ये कहाँ जरूरी है कि टूट जाया जाए ,ये कहाँ जरूरी है कि तोड़ दिया जाए ? कुछ सबक याद करने के लिए होते हैं जिन्हें याद कर लेना ही काफी है , वजन लेकर कब तक दौड़ लगाईयेगा ? मुस्कुराईये कि वक्त वो बीत गया ,सूरज फिर निकला है और वक्त ने फिर मोहलत दी है। 

नाइन्साफी की शिकायत कब तक कीजियेगा और किससे कीजियेगा ? यहाँ हर कोई मसरूफ है ,हर कोई अपनी ही उलझनों और ख्वाहिशों में कैद है। जाने दीजिये , बहने दीजिये !  

मैं पढ़ रही हूँ और उसकी उलझनों को जी रही हूँ। ये दौर मुश्किल जरूर है पर संभलने के रास्ते किसी के लिए पेटेंट नहीं हैं। हम गलतियों की माटी से गढ़े पुतले में अपनी जान फूंक उसे खुद की शक्ल देने में उम्र जाया कर देते हैं , जिसका हासिल निल बटा सन्नाटा होता है। एक के बाद एक ........ और फिर कोई एक ख्वाब शॉर्टकट दिखा जाता है जो असल से फिर दूर ले जाता है और एक बार फिर एक और गलती ! हर बार भाग्य को भी क्या दोष दीजियेगा और खुद को भी क्या कहियेगा ? 

मन भोला पंछी है खुद ही खुद को बहला लेता है और खुद ही खुद को आज़ाद मान बैठता है। रात को परिंदे को आज़ाद किया भी तो क्या किया ,उजालों में नीड़ ढूंढते तो बात थी। 

तुम्हारे सपनों की दौड़ तुमसे ही हार रही है। जीतने की जंग क्या लडनी है, जीने के लिए जिओ पर उनके लिए भी जियो जो तुम्हारी जीत के लिए सपना देख रहे हैं। वक्त दरिया की मानिंद है , बहता रहता है उस पर अपना नाम मत लिखो ! किश्ती बन जाओ और बह निकलो दूर वहां जहाँ जमीन और आसमान एक हो रहे हैं। 

मैं वहीं मिलूंगी और तुमको एक बार फिर से थाम लूंगी ......... मैं जिन्दगी हूँ तुम्हारी ! चले आओ !

रवीश से बेहतर कोई नहीं है !

आजकल रवीश ट्विटर पर नहीं हैं , फेसबुक से भी गायब हैं। एक क्षण को अच्छा नहीं लगता रवीश का दोनों जगह से गायब होना पर दूसरे  ही क्षण लगता है कि अच्छा ही है यहाँ नहीं होना !

क्यों किसी की वजह से वो अपनों पर ,अपने आप को लोगों की गन्द से तरबतर करें ? उनकी गन्दी भाषा और घटिया स्तर से अपने चरित्र को बाजार की चीज बना दें ? सोशल मीडिया पर लोकप्रियता की कीमत ने उन लोगों को हमारी पहुंच से दूर कर दिया जो वास्तव में पढ़ने ,सुनने और जीने लायक हैं। 

140 शब्दों में बारामुला के फ्लाईओवर से गाज़ियाबाद के जाम के किस्से और उनके घर लौटे हुए FM पर बजते हुए गाने , सब कुछ ख़ूबसूरत सा आँखों के सामने से गुजरता रहता था। 

चीन की खबरें मैं भी पढ़ सकती हूँ पर गुरूजी पाठ पढाते थे तो पाठ जल्दी समझ आता था........ हाहाहाहा ! सच में नोट्स बने बनाये मिलें तो मेहनत कौन करे।  रवीश के प्राइमटाइम का इंट्रो भी ऐसा ही होता है ,जब वो एक साँस में , बिना पानी पीये पूरी लीलावती - कलावती सुना जाते हैं....... मैं पानी पी लेती हूँ ,इंट्रो सुनकर ! 

ये भी कमाल है और वो भी कमाल है , बात वही होती  है जो हर चैनल पर हो रही होती है पर रवीश जब उसी बात को  कहते हैं तो बात वो नहीं होती जो हो रही होती है। निष्पक्षता की उम्मीद में रवीश से नहीं रखती , क्यों रखूँ ? पत्रकार हैं  ,सवाल करना और हर एक से सवाल ,तीखे सवाल भी करते हैं पर कुछ एक अनुभवों से वो भी गुज़रे होंगे जैसे आप हम गुज़रते हैं तो राय बन ही जाती है और न भी बने तो कहीं न कहीं कोई सच हमारे भीतर पलता बढ़ता है ही। 

भाषा की मर्यादा और भाषा के चयन में सावधानी बरतने में रवीश से बेहतर कोई नहीं। वो मना करते हैं कि प्रशंसक न बनिये पर मैं प्रशंसा तो कर ही सकती हूँ न । 

कोई कितनी भी आलोचना करे पर ये स्वीकार करने में किसी भी स्वस्थ मानस को तकलीफ नहीं होनी चाहिये कि पत्रकारिता के दिन ब दिन गिरते स्तर में रवीश आज भी उन मूल्यों को जिन्दा रखे हैं जिनको जिन्दा रखने में वे खुद कितने  मुश्किल दौर से गुज़रे होंगे , कल्पना करना भी कठिन है। 

रवीश , आप भले ही ट्विटर -फेसबुक से गायब रहें पर हमतक आपकी बात पहुंच ही जाती है । नीली कमीज -सुर्ख टाई और ग्रे मेरा पसन्दीदा सम्वाद है। आप के अनकहे शब्द उनसे उपजी आपकी उलझन भी कैमरा पढ़ के हम तक पहुंचा ही देता है । 

रवीश की रिपोर्ट को भी मिस कर रही हूँ। कभी प्रेम नगर की उन गलियों में जहाँ चुनावों से पहले आप गए थे और उन बस्तियों में जहाँ कोई और नहीं जाता ,एक बार फिर ले चलिए , इसलिए नहीं कि क्या बदला इसलिए कि कुछ नहीं बदलता । हवा किसी की भी हो , राजनीति में जिंदगी के सवाल टिक नहीं पाते। 

इंतज़ार रहेगा , मैं रवीश कुमार का प्राइम टाइम में ......... अरे हाँ ! साउंड क्लाउड पर भी लम्बे समय से आपकी कोई रिकॉर्डिंग नहीं है। 

अब इतनी सारी जगह रवीश हैं पर नहीं हैं। कुछ और रवीश चाहिए ,कुछ और आवाज़ें चाहिये इस व्यवस्था को जो उनको आवाज़ दे जिनकी आवाज़ को कोई सुनना नहीं चाहता। क्या पता ऐसा कब हो और हो भी तो कब सामने आये ?

खैर ,चलते रहिये ! टीवी कम देखिये और देखिये भी तो केवल प्राइम टाइम देखिये और वो भी रवीश के साथ ! प्रणाम !