Wednesday 25 November 2015

दर्द जब रूह से आज़ाद हुआ जाता है तो नफ़रत किससे करूँ...........

एक वक्त आता है जब लगता है कि सब हिसाब बराबर हो जाना चाहिए ,कभी जिंदगी बेहिसाब हो जाती है। कभी नफ़रतों का दौर, कभी मोहब्बत का दौर........ बेहिसाब कभी मैं -कभी वक्त की दरियादिली। वक्त की ईमानदारी ये कि कभी कोई मिला ही नहीं जिससे बेहिसाब नफरत करूँ , चाहती हूँ कि क्यों न करूँ पर चाह कर भी नहीं कर पाती किसी से भी नहीं।

जख़्म पक कर रिसने लगे हैं , काँटा जिस्म से खींच कर लाख निकाल दिया जाये लेकिन वो मंज़र अक्सर दीवारों से परछाई बन उतर आते हैं। हाथ अनचाहे ही उस दर्द को महसूस करता है जिसने वक्त को नासूर बना सफ़र की रूह पर सजा दिया। 

सजा भोगने के लिए कितने जन्म लेने होते हैं कौन जाने ,लेकिन किसी एक जन्म में दर्द का जलजला भी कितने जन्मों की खुशियां बहा ले जाता है। 
जिसे कभी कोई ऐसा मिला ही ना हो जिसने छला हो उसे कोई एक छल का पल मिल जाए तो नई परिभाषा समझने के लिए नया जन्म ही लेना होता है। जन्म भी ऐसा  मनो इंसान के बीच फ़िल्टर लगा के देखने की मजबूरी बन जाए। 

हादसे कम नहीं होते दुनिया में ,हर रोज लोग दो चार होते होंगे ,किसी रोज़ तमाशा बन जाओगे तो पूछना खुद से किस को हादसे में धकेल आये थे। दर्द की प्रतिक्रिया में दर्द ही नसीब होना होता है। 
बोझ कभी उतरता कभी चढ़ता है , बोझ भी कर्ज है..... जन्मों की लेनदारी -देनदारी रही होती है। इसे भी उतरना होगा। 

आवारगी ने कितने ही मंज़र देख लिए ,अब रंगों में बस आसमान बसता है। किसी की गीत की धुन पर रंग भी उसी आसमान से बरसने लगते हैं। पल जादू से गुज़र रहे हैं। होने न होने में फ़ासला न रहा है , दर्द जब रूह से आज़ाद हुआ जाता है तो नफ़रत किससे करूँ। 

ऐसी ही रह जाना चाहती हूँ ,अब थम जाना चाहती हूँ .......  आवारगी के अपने सफर में अपने खुश ख्याल सपनों के साथ , सात समंदर पार बसे अपने वजूद के साथ मोहब्बतों के दौर में ही दफन हो जाऊं किसी रोज़। 

हिसाब सब यहीं पूरा होना है ...... हादसा हूँ तो भुलाना भी नामुमकिन है ,वक्त मेरे होने की गवाही हर मोड़ पर देगा। नासूर भी भर जाएगा बाकि बस निशां होंगे। सफ़र उस निशां से होकर गुज़रेगा ,यही नियति है सो चलते रहिये ........ हादसों से बचना लेकिन हों तो उस टीस के साथ उन चीखों को याद करना जो उन दीवारों में आज भी कैद हैं।

ये दौर ऐसा जब देने को कोई दुआ भी नहीं .....  बाकि नसीब में तो जो है सो हइये ही। 





Saturday 21 November 2015

उत्तराखंड का वो एक सफर यादगार सफर था ….

जिंदगी कि मारामारी में कुछ पल सूकूँ के मिल जाएँ ,किसे तलाश नहीं होती। मरीचिका सा सुकून मृग सी मेरी तृष्णा ……भटकते -भटकते उत्तराखंड ले आयी। कारण कुछ भी बने हों पर इस तलाश में उन जगहों को ढूंढ पायी जो अक्सर तस्वीरों और ख्वाबों में देखे थे। 

सालों पहले अल्मोड़ा से इस सफ़र की शुरुआत की थी। रेत के टीलों से पहाड़ों तक का सफ़र इस कदर सुहाना होगा कभी सोचा नहीं था। काठगोदाम से उतर कर लोकल बस पकड़ी , जो लोकल सवारियों से ठसाठस भरी थी। पता चला कि कुछ कॉलेज में पढ़ने हल्द्वानी से नैनीताल और कुछ अल्मोड़ा  जा रहे हैं तो कुछ रोजमर्रा की जरूरतों का सामान लेने पहाड़ से नीचे उतरे थे। भाषा समझ नहीं आ रही थी पर उनको हिन्दी भी आती थी। गोल गोल चक्कर खाती बस में आगे बैठ कर लगता रहा कि ये अंतिम सफर न हो। नीचे झांक कर देखा तो लगा कि ईश्वर मेरे पास बैठा है। 

अल्मोड़ा के एस एस जे विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में एक माह रुकी थी। उस प्रवास ने समझा दिया कि पहाड़ कि जिंदगी उतनी सरल भी नहीं जितनी कि दिखाई देती है। सब्जियों की उतनी वैरायटी नहीं , मनोरंजन के लिए ढेरों मॉल और शॉपिंग कॉम्लेक्स भी नहीं लेकिन सुख इतना मनो इनमें से किसी की कोई जरूरत भी नहीं। लोकल कन्वेंस भी आसान नहीं , सब शार्ट कट इस पहाड़ से उतरो उस पर चढ़ जाओ। बेहद आसान सी लगने वाली चढ़ाई मुश्किल लगी लेकिन कुछ दिन बाद उसी ने शरीर की पुरानी सभी शिकायतों को दूर भी कर दिया। 

एक सुबह दोस्तों ने बताया कि कुछ दूर एक मंदिर है चाहो तो चलो। घर से निकली थी तो माँ ने बताया था कि अल्मोड़ा के जंगलों में सुमित्रा नंदन पंत की रचनाएँ बसती हैं। मैं कभी पंत को सुनती कभी साथियों के कुमाऊंनी -गढ़वाली गीतों को। गोलू देवता का मंदिर है ये , असंख्य चिट्ठियां लटकी थी। किसी ने बताया कि ये सबकी सुनते हैं। मैंने कोई पाती नहीं लिखी ,पता नहीं क्यों। हमारी श्रद्धा का प्रवाह कितना निर्मल है ना ....

इसी रास्ते से कुछ और आगे बढ़ते गए तो जंगल मंत्र मुग्ध करता जा रहा था। मैं उन गुफाओं कंदराओं में महावतार बाबाजी और योगानंद जी की कहानियां ढूंढती तो कभी शिव लीला की कल्पना में खो जाती। देवदार के जंगल नहीं थे वो किसी दूसरी ही दुनिया का पता हैं। जागेश्वर मंदिर के  उस समूह में रहा महाकाल और कुबेर का वो मंदिर मेरी स्मृतियों में आज भी जस का तस है। 

जागेश्वर के उसी रास्ते से कुछ दिन बात मुनस्यारी ,पिथौरागढ़ भी जाना हुआ। सड़क किनारे के जंगल ,खेत ,पहाड़ों से गिरते झरने , भेड़ों के झुण्ड सब कुछ कांच जैसा साफ़। मुनस्यारी के रास्ते की चढ़ाई ने दम जरूर निकाल दिया लेकिन आल्टो चलाने वाले भैया के लोकल किस्सों और दोनों ओर की धुंध की चादर ने आँख झपकने भी न दी। सवेरा पंचाचूली के सामने हुआ। सामने सोने से मढे पर्वत शिखर थे। ईश्वर ने ये सुख दिखाकर मुझे शिकायत करने के सब अधिकार ले लिए। मुनस्यारी से लौटते पताल भैरव गए। गुफा में ब्रह्माण्ड बसा है , जब जाईयेगा तभी समझ पाएंगे कि ऐरावत के पैर और कल्प वृक्ष की जड़ें वहां क्या कर रही हैं। 

लौट के अल्मोड़ा और अल्मोड़ा से लौटते हुए कैंची धाम रुकी। बाबा नीम करोरी के दर्शन और अध्यात्म के उस अनुभव के बिना ये सफर अधूरा रहता। 

काठगोदाम से लौटते  हुए लगा कि मेरी रूह वहीं रह गयी है बस अब जिस्म को ढो रही हूँ । देवभूमि में मेरे प्राण बसे हैं , मुझे वहीं लौट जाना है……कभी ,कहीं ,किसी रोज़ एक बार फिर हमेशा के लिए किसी जंगल में गुम जाने के लिए। 

बातें और भी हैं यादें भी अनगिनित है। फिर किसी दिन मिल बैठेंगे तो याद करेंगे कि रानीखेत के गोल्फ के मैदान और चौबटिया के आगे चिरियानौला का वो अंग्रेजों का मंदिर कितना ख़ास है। लौटने की वजह यादें और बतियाने के लिए बस बहाना चाहिए ! है ना ....... 

Saturday 7 November 2015

ये डिजिटल बलात्कार का युग है। असंख्य भैरवियां हैं जिनके पीछे कुत्सित मानसिकता दौड़ रही है.……

अजब समाज है अजब संस्कार हैं हमारे। बचपन इसी संस्कार के साथ बीता कि आसपास का हर बुजुर्ग परिवार का बुजुर्ग और हर बच्चा परिवार के बच्चे के समान ही स्नेह का अधिकारी है। आंटी कहने का  रिवाज आज भी दूरदराज में नहीं है ,मौसी ,बुआ ,चाची ,ताई …इन्हीं सम्बोधनों के बीच उम्र बीत गयी।

सोशल मीडिया ने सिखाया कि आंटी और मौसी वो उम्रदराज महिला जिसका चरित्रहनन आप जायज तरीके से नहीं कर पा रहे हैं तो इन सम्बोधनों से कर लें और अधिक साहसी हैं तो रं… ,वेश्या , माँ -बहन की गालियां और ठरक की ऊर्जा से पैदा हुए भतेरे क्रियात्मक शब्द हैं जिनका उपयोग आप समय के अनुसार कर सकते हैं। 

ये किस तरह की संताने हैं जो अपनी माँ -बहन -भाभी के हाथों से बना खाना खाकर ,उनका दुलार पाकर ,पत्नी -प्रेयसी के स्नेह के आँचल से एक क्षण में दूर हो , दूसरी महिला के चरित्र को बेच देना अपना परमधर्म समझते  हैं । नैतिकता के ये ठेकेदार एक पल भी ये नहीं सोचते कि वे जिस पर उंगली  उठा रहे हैं वे भी किसी रिश्ते में बंधी हैं , किसी सूत्र से वे आपसे भी एक प्रेम का रिश्ता रखती हैं।  क्यों आप हर उस स्त्री को नहीं झेल पाते जो आपकी अपेक्षाओं और आपके नैतिक मानदंडों पर खरी नहीं उतरती ? 

कितने ही ऐसे पुरुष हैं जो घर के बाहर सम्पर्क में आने वाली महिलाओं के साहस का सम्मान करते हैं लेकिन घर की महिलाओं के साहस को दुस्साहस करार देते हैं। कुछ ऐसे भी देखे हैं जो अपनी बेटी की आज़ादी के लिए लड़े लेकिन पत्नी ताउम्र उन्हीं अधिकारों के लिए उनका मुहं ताकती रही.…… विडंबनाओं से भरपूर समाज है ये !

अनुपम खेर आज असहिष्णुता की बात को लेकर मार्च करने निकले , अच्छा है। उनके मार्च को लेकर वे सभी रचनाकार सहिष्णु हैं जिन्होंने सत्ता के गलत निर्णयों के प्रति असहिष्णुता दिखायी। इसी मार्च में एक महिला पत्रकार के पीछे भीड़ दौड़ी। ये कहती हुई कि वो वेश्या है ……  कमाल है ना ! दौड़े भी वही लोग होंगे जो दिन रात संस्कारों की दुहाई देते हैं। गाय को माँ न मानने वालों की भर्त्सना करते हैं और असल जिंदगी में एक महिला की कोख को गाली  देते हैं। 

इस समाज में असंख्य भैरवियां हैं जिनके पीछे कुत्सित मानसिकता दौड़ रही है। सोशल मीडिया पर रोज इन भैरवियों के साथ मानसिक बलात्कार होता है ,रोज इनका चीरहरण होता है। 

आप इतना विचलित न होईये।  ये समाज अब मोमबत्ती जलाने का अभ्यास कर चुका है…… सत्ता ने स्वार्थ के ऐसे बीज बोये हैं कि अब आँगन में चिरैया नहीं वेश्याएं जनी जा रही हैं। 

सहते रहिये -देखते रहिये , लपट आपके आँगन तक नहीं आएगी ,मुग़ालते मुबारक रखिये !

चलते हैं ! हम अपनी जिंदगी जी चुके हैं ,बहुत देख -सुन चुके ,अब इन सब का असर नहीं होता नहीं कहती लेकिन अब उतना विचलित भी नहीं होती ,जितना कभी सुन भर के रो लेती थी। 

वक्त सबको सब दिखा रहा है , सब सिखा रहा है।  मैं भी सीख रही हूँ…… पर अब खुश हूँ कि शायद बेअसर सी हो गयी हूँ !