Saturday 7 November 2015

ये डिजिटल बलात्कार का युग है। असंख्य भैरवियां हैं जिनके पीछे कुत्सित मानसिकता दौड़ रही है.……

अजब समाज है अजब संस्कार हैं हमारे। बचपन इसी संस्कार के साथ बीता कि आसपास का हर बुजुर्ग परिवार का बुजुर्ग और हर बच्चा परिवार के बच्चे के समान ही स्नेह का अधिकारी है। आंटी कहने का  रिवाज आज भी दूरदराज में नहीं है ,मौसी ,बुआ ,चाची ,ताई …इन्हीं सम्बोधनों के बीच उम्र बीत गयी।

सोशल मीडिया ने सिखाया कि आंटी और मौसी वो उम्रदराज महिला जिसका चरित्रहनन आप जायज तरीके से नहीं कर पा रहे हैं तो इन सम्बोधनों से कर लें और अधिक साहसी हैं तो रं… ,वेश्या , माँ -बहन की गालियां और ठरक की ऊर्जा से पैदा हुए भतेरे क्रियात्मक शब्द हैं जिनका उपयोग आप समय के अनुसार कर सकते हैं। 

ये किस तरह की संताने हैं जो अपनी माँ -बहन -भाभी के हाथों से बना खाना खाकर ,उनका दुलार पाकर ,पत्नी -प्रेयसी के स्नेह के आँचल से एक क्षण में दूर हो , दूसरी महिला के चरित्र को बेच देना अपना परमधर्म समझते  हैं । नैतिकता के ये ठेकेदार एक पल भी ये नहीं सोचते कि वे जिस पर उंगली  उठा रहे हैं वे भी किसी रिश्ते में बंधी हैं , किसी सूत्र से वे आपसे भी एक प्रेम का रिश्ता रखती हैं।  क्यों आप हर उस स्त्री को नहीं झेल पाते जो आपकी अपेक्षाओं और आपके नैतिक मानदंडों पर खरी नहीं उतरती ? 

कितने ही ऐसे पुरुष हैं जो घर के बाहर सम्पर्क में आने वाली महिलाओं के साहस का सम्मान करते हैं लेकिन घर की महिलाओं के साहस को दुस्साहस करार देते हैं। कुछ ऐसे भी देखे हैं जो अपनी बेटी की आज़ादी के लिए लड़े लेकिन पत्नी ताउम्र उन्हीं अधिकारों के लिए उनका मुहं ताकती रही.…… विडंबनाओं से भरपूर समाज है ये !

अनुपम खेर आज असहिष्णुता की बात को लेकर मार्च करने निकले , अच्छा है। उनके मार्च को लेकर वे सभी रचनाकार सहिष्णु हैं जिन्होंने सत्ता के गलत निर्णयों के प्रति असहिष्णुता दिखायी। इसी मार्च में एक महिला पत्रकार के पीछे भीड़ दौड़ी। ये कहती हुई कि वो वेश्या है ……  कमाल है ना ! दौड़े भी वही लोग होंगे जो दिन रात संस्कारों की दुहाई देते हैं। गाय को माँ न मानने वालों की भर्त्सना करते हैं और असल जिंदगी में एक महिला की कोख को गाली  देते हैं। 

इस समाज में असंख्य भैरवियां हैं जिनके पीछे कुत्सित मानसिकता दौड़ रही है। सोशल मीडिया पर रोज इन भैरवियों के साथ मानसिक बलात्कार होता है ,रोज इनका चीरहरण होता है। 

आप इतना विचलित न होईये।  ये समाज अब मोमबत्ती जलाने का अभ्यास कर चुका है…… सत्ता ने स्वार्थ के ऐसे बीज बोये हैं कि अब आँगन में चिरैया नहीं वेश्याएं जनी जा रही हैं। 

सहते रहिये -देखते रहिये , लपट आपके आँगन तक नहीं आएगी ,मुग़ालते मुबारक रखिये !

चलते हैं ! हम अपनी जिंदगी जी चुके हैं ,बहुत देख -सुन चुके ,अब इन सब का असर नहीं होता नहीं कहती लेकिन अब उतना विचलित भी नहीं होती ,जितना कभी सुन भर के रो लेती थी। 

वक्त सबको सब दिखा रहा है , सब सिखा रहा है।  मैं भी सीख रही हूँ…… पर अब खुश हूँ कि शायद बेअसर सी हो गयी हूँ !

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