सबकुछ अपनी गति से चलता रहता है तभी एकाएक मन उचाट हो जाता है ……अक्सर हो जाता है। खुद को फिट नहीं कर पाता है या खुद को ढूंढ नहीं पाता। मैं गुम सी गयी हूँ , अक्सर भाग कर किसी पहाड़ ,किसी झील और जंगल का रुख करने का ख्याल इतनी तेजी से उठता है कि लगता है बस ये आखिरी पल है इस झाड़ से जीवन के।
प्रकृति से दूर का असहज जीवन कितना कठिन है …… असहज हंसी ,असहज बातें ,असहज इच्छाएं। दूर नीले आसमान के नीचे पसरी किसी नदी या झील का ख्याल भी आ जाये तो मन में लहरों की किलोल सुनायी देने लगती है , सब कांच सा दिखने लगता है। कदमों में पडी रवायतों की जंजीरें तोड़ भाग जाने के मन करता है। विद्रोह कर देता है उस जीवन को जीने के लिए जहाँ मैं मैं न रहूँ ....... प्रकृति में एकाकार हो जाऊं।
जागेश्वर, अल्मोड़ा के जंगल ख्यालों में बसे हैं। महावतार बाबा की तप वाली गुफा देखने का मन है ,उन पगडंडियों को नापने के लिए बैचेन हो उठती हूँ जो मुझे उस जंगल में गुम कर दें। स्वप्न भी अब वहीं ले जाते हैं …… नीम करोरी बाबा के धाम गयी थी ! दो बार हो आयी हूँ ……… तमाम अश्रु वहीं के लिए सिंचित रहते हैं। सब उस खाली ,शांत कुटिया में समा जाते हैं और मन एक बार फिर से खाली बर्तन बन जाता है।
अध्यात्म के आगे और उसकी दिशा में जाने के लिए कितने झंझावातों से गुज़रना होता होगा ,नहीं पता लेकिन ये यात्रा अभिभूत कर देने वाली है। किसी तप से कतई कम नहीं है।
सब जी लिया , सब जान लिया पर दूसरे ही पल कोई कान में फुसफुसा जाता है कि अभी कुछ नहीं देखा !
मैं लौट जाना चाहती हूँ.…… आवारगी के इस सफर में झील ,जंगल और पहाड़ के अलावा कुछ न हो ,कुछ भी नहीं !! तुम भी नहीं .......
अकेले निकल चला है मन ....... बस मैं और मेरी आवारगी बाकी होंगे और निशां कुछ नहीं !
प्रकृति से दूर का असहज जीवन कितना कठिन है …… असहज हंसी ,असहज बातें ,असहज इच्छाएं। दूर नीले आसमान के नीचे पसरी किसी नदी या झील का ख्याल भी आ जाये तो मन में लहरों की किलोल सुनायी देने लगती है , सब कांच सा दिखने लगता है। कदमों में पडी रवायतों की जंजीरें तोड़ भाग जाने के मन करता है। विद्रोह कर देता है उस जीवन को जीने के लिए जहाँ मैं मैं न रहूँ ....... प्रकृति में एकाकार हो जाऊं।
जागेश्वर, अल्मोड़ा के जंगल ख्यालों में बसे हैं। महावतार बाबा की तप वाली गुफा देखने का मन है ,उन पगडंडियों को नापने के लिए बैचेन हो उठती हूँ जो मुझे उस जंगल में गुम कर दें। स्वप्न भी अब वहीं ले जाते हैं …… नीम करोरी बाबा के धाम गयी थी ! दो बार हो आयी हूँ ……… तमाम अश्रु वहीं के लिए सिंचित रहते हैं। सब उस खाली ,शांत कुटिया में समा जाते हैं और मन एक बार फिर से खाली बर्तन बन जाता है।
अध्यात्म के आगे और उसकी दिशा में जाने के लिए कितने झंझावातों से गुज़रना होता होगा ,नहीं पता लेकिन ये यात्रा अभिभूत कर देने वाली है। किसी तप से कतई कम नहीं है।
सब जी लिया , सब जान लिया पर दूसरे ही पल कोई कान में फुसफुसा जाता है कि अभी कुछ नहीं देखा !
मैं लौट जाना चाहती हूँ.…… आवारगी के इस सफर में झील ,जंगल और पहाड़ के अलावा कुछ न हो ,कुछ भी नहीं !! तुम भी नहीं .......
अकेले निकल चला है मन ....... बस मैं और मेरी आवारगी बाकी होंगे और निशां कुछ नहीं !
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