सुबह से फोन घनघनाने लगा है , ट्वीटर पर DM भरा है ! सबका एक ही सवाल है " तुम्हारे पास कहाँ से आयी " …… मैं हैरान हूँ कि कहाँ से आयी ? मैंने किसी से माँगी नहीं ,मैं कहीं गयी नहीं …… DM जरूर था ,मेल चेक करने का ,देख लिया सो मिल गयी !
ऐसा अक्सर होता है करने क्या निकलती हूँ और मिलता क्या है। नेता जी के दरबार से मुलाक़ात भी कुछ ऐसी थी …… सम्मोहित करने वाली ! सबने ऐसे ही घेरा था , मने आत्मीयता ऐसी जैसे भूखे को भोजन मिला हो। वे खुश थे , सब खिल के मिले, लगा सब दिल से मिले …हम कई बार मिले हर बार और गर्मजोशी से मिले। सोचा कि दुनिया इतनी बुरी भी ना है , पाया कि चेहरे सब अपने से हैं।
दरबार में सबका कोई कद होता है और कद की कद्र में सबका फायदा होता है। देख रहे थे कि सब कद के कायदे में कसीदे पढ़ रहे थे , कायदे की शान में कालीन बन बिछे थे। पीठ घूमते ही फुसफुसाहटों के सिलसिले और चेहरे सामने आते ही वाहवाही का सामान …… " यहाँ राजनीति नहीं परिवार सा है सब " ! हैरान भी थी और परेशान भी ,समझना भी नहीं चाहती थी यूँ कि ख़्वाबों के महल के भरभराने की कल्पना ही सिहर भर देती है।
शाम फोन बजा " दी ,मैं बोल रहा हूँ …… कैसी हैं !"
बढ़िया ! सुनाईये कैसे याद किया....
कुछ बताना है , उसने कहा ! मैं हैरान थी कि इसे क्या कहना है ?
दी ,कुछ नाम और कुछ चेहरे और भी हैं आपकी कहानी में .......
मैं चुप थी। ये सिलसिला खत्म क्यों नहीं हो रहा ? मैं कोई कहानी नहीं कहना चाहती थी ,मैं कुछ पाना -खोना नहीं चाहती थी ,मैं कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती थी .......... अब हर कोई अपने तथ्य ,अपने साक्ष्य मेरे बिना मांगे मुझे दे रहा है ! क्या रिश्ता है उनका मुझसे ? ये भरोसा अब सांस को भारी कर रहा है .......
कड़वे सच को परोसूं कैसे ? सब कोई नई व्यवस्था से जो दिल लगाये बैठे हैं उनको क्या बताऊँ कि ईमान और ईनाम में मामूली हेरफेर है लेकिन इस मासूमियत में कितनों के आस की इमारत खड़ी है।
उसने सब सुना दिया , सब भेज दिया ! अब ये सिलसिला सा हो गया है ,मनो मैं कोई मिशन पर हूँ जिसे लोग तीर -तमंचों से लैस कर रहे हैं।
मैंने कब ये सब चाहा था ! झील -जंगल और पखडंडी की दुनिया थी मेरी और मेरी चाह का अंतिम ठिकाना भी …… ये सब कौन तय कर रहा है ,पता नहीं !
मैं दरबार की उस हकीकत से मायूस हूँ। वो जो कह रहे हैं वो हैं नहीं ,जो वो हैं वो ,वो कहते नहीं ....... हर कोई रेवड़ी के इंतज़ार में क्यों लग गया है …… सबको ईनाम की तमन्ना है। सब अपनी मेहनत और ईमानदारी की कहानी सुना रहे हैं और सब कोई उसे भुना रहे हैं। कुछ अब भी आदर्शों और नैतिकता को पीठ पर लादे भटक रहे हैं।
मैं क्या सोच के निकली थी , मैं कहाँ आ गयी ! ऐसा भी क्या है कि अपनी ही सांसों पर अपना ही हक नहीं होता ? ये कौन इशारे हैं कुदरत के ?
दरबार से शिकायत नहीं पर अब सब पर तरस आता है। किसी को नहीं पता कि दिन भर साये की तरह साथ रहने वाला आपकी साँसों का हिसाब किसी के DM किसी के मेल बॉक्स में पोस्ट कर आया है !
ये जिंदगी का दरबार बड़ा जालिम है दोस्तों ,अपने सारथी से भी संभल के रहिएगा ! रफ़्तार कहीं उड़ा न दे …… सबकी सलामती की दुआ कीजे …… चलते हैं !
ऐसा अक्सर होता है करने क्या निकलती हूँ और मिलता क्या है। नेता जी के दरबार से मुलाक़ात भी कुछ ऐसी थी …… सम्मोहित करने वाली ! सबने ऐसे ही घेरा था , मने आत्मीयता ऐसी जैसे भूखे को भोजन मिला हो। वे खुश थे , सब खिल के मिले, लगा सब दिल से मिले …हम कई बार मिले हर बार और गर्मजोशी से मिले। सोचा कि दुनिया इतनी बुरी भी ना है , पाया कि चेहरे सब अपने से हैं।
दरबार में सबका कोई कद होता है और कद की कद्र में सबका फायदा होता है। देख रहे थे कि सब कद के कायदे में कसीदे पढ़ रहे थे , कायदे की शान में कालीन बन बिछे थे। पीठ घूमते ही फुसफुसाहटों के सिलसिले और चेहरे सामने आते ही वाहवाही का सामान …… " यहाँ राजनीति नहीं परिवार सा है सब " ! हैरान भी थी और परेशान भी ,समझना भी नहीं चाहती थी यूँ कि ख़्वाबों के महल के भरभराने की कल्पना ही सिहर भर देती है।
शाम फोन बजा " दी ,मैं बोल रहा हूँ …… कैसी हैं !"
बढ़िया ! सुनाईये कैसे याद किया....
कुछ बताना है , उसने कहा ! मैं हैरान थी कि इसे क्या कहना है ?
दी ,कुछ नाम और कुछ चेहरे और भी हैं आपकी कहानी में .......
मैं चुप थी। ये सिलसिला खत्म क्यों नहीं हो रहा ? मैं कोई कहानी नहीं कहना चाहती थी ,मैं कुछ पाना -खोना नहीं चाहती थी ,मैं कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती थी .......... अब हर कोई अपने तथ्य ,अपने साक्ष्य मेरे बिना मांगे मुझे दे रहा है ! क्या रिश्ता है उनका मुझसे ? ये भरोसा अब सांस को भारी कर रहा है .......
कड़वे सच को परोसूं कैसे ? सब कोई नई व्यवस्था से जो दिल लगाये बैठे हैं उनको क्या बताऊँ कि ईमान और ईनाम में मामूली हेरफेर है लेकिन इस मासूमियत में कितनों के आस की इमारत खड़ी है।
उसने सब सुना दिया , सब भेज दिया ! अब ये सिलसिला सा हो गया है ,मनो मैं कोई मिशन पर हूँ जिसे लोग तीर -तमंचों से लैस कर रहे हैं।
मैंने कब ये सब चाहा था ! झील -जंगल और पखडंडी की दुनिया थी मेरी और मेरी चाह का अंतिम ठिकाना भी …… ये सब कौन तय कर रहा है ,पता नहीं !
मैं दरबार की उस हकीकत से मायूस हूँ। वो जो कह रहे हैं वो हैं नहीं ,जो वो हैं वो ,वो कहते नहीं ....... हर कोई रेवड़ी के इंतज़ार में क्यों लग गया है …… सबको ईनाम की तमन्ना है। सब अपनी मेहनत और ईमानदारी की कहानी सुना रहे हैं और सब कोई उसे भुना रहे हैं। कुछ अब भी आदर्शों और नैतिकता को पीठ पर लादे भटक रहे हैं।
मैं क्या सोच के निकली थी , मैं कहाँ आ गयी ! ऐसा भी क्या है कि अपनी ही सांसों पर अपना ही हक नहीं होता ? ये कौन इशारे हैं कुदरत के ?
दरबार से शिकायत नहीं पर अब सब पर तरस आता है। किसी को नहीं पता कि दिन भर साये की तरह साथ रहने वाला आपकी साँसों का हिसाब किसी के DM किसी के मेल बॉक्स में पोस्ट कर आया है !
ये जिंदगी का दरबार बड़ा जालिम है दोस्तों ,अपने सारथी से भी संभल के रहिएगा ! रफ़्तार कहीं उड़ा न दे …… सबकी सलामती की दुआ कीजे …… चलते हैं !
फ़क़ीरों की फ़ितरत वालो को दरबारी साँस लेने मे दम घुटता ही है। बेहतरीन लिखा है।
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