Saturday 21 November 2015

उत्तराखंड का वो एक सफर यादगार सफर था ….

जिंदगी कि मारामारी में कुछ पल सूकूँ के मिल जाएँ ,किसे तलाश नहीं होती। मरीचिका सा सुकून मृग सी मेरी तृष्णा ……भटकते -भटकते उत्तराखंड ले आयी। कारण कुछ भी बने हों पर इस तलाश में उन जगहों को ढूंढ पायी जो अक्सर तस्वीरों और ख्वाबों में देखे थे। 

सालों पहले अल्मोड़ा से इस सफ़र की शुरुआत की थी। रेत के टीलों से पहाड़ों तक का सफ़र इस कदर सुहाना होगा कभी सोचा नहीं था। काठगोदाम से उतर कर लोकल बस पकड़ी , जो लोकल सवारियों से ठसाठस भरी थी। पता चला कि कुछ कॉलेज में पढ़ने हल्द्वानी से नैनीताल और कुछ अल्मोड़ा  जा रहे हैं तो कुछ रोजमर्रा की जरूरतों का सामान लेने पहाड़ से नीचे उतरे थे। भाषा समझ नहीं आ रही थी पर उनको हिन्दी भी आती थी। गोल गोल चक्कर खाती बस में आगे बैठ कर लगता रहा कि ये अंतिम सफर न हो। नीचे झांक कर देखा तो लगा कि ईश्वर मेरे पास बैठा है। 

अल्मोड़ा के एस एस जे विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस में एक माह रुकी थी। उस प्रवास ने समझा दिया कि पहाड़ कि जिंदगी उतनी सरल भी नहीं जितनी कि दिखाई देती है। सब्जियों की उतनी वैरायटी नहीं , मनोरंजन के लिए ढेरों मॉल और शॉपिंग कॉम्लेक्स भी नहीं लेकिन सुख इतना मनो इनमें से किसी की कोई जरूरत भी नहीं। लोकल कन्वेंस भी आसान नहीं , सब शार्ट कट इस पहाड़ से उतरो उस पर चढ़ जाओ। बेहद आसान सी लगने वाली चढ़ाई मुश्किल लगी लेकिन कुछ दिन बाद उसी ने शरीर की पुरानी सभी शिकायतों को दूर भी कर दिया। 

एक सुबह दोस्तों ने बताया कि कुछ दूर एक मंदिर है चाहो तो चलो। घर से निकली थी तो माँ ने बताया था कि अल्मोड़ा के जंगलों में सुमित्रा नंदन पंत की रचनाएँ बसती हैं। मैं कभी पंत को सुनती कभी साथियों के कुमाऊंनी -गढ़वाली गीतों को। गोलू देवता का मंदिर है ये , असंख्य चिट्ठियां लटकी थी। किसी ने बताया कि ये सबकी सुनते हैं। मैंने कोई पाती नहीं लिखी ,पता नहीं क्यों। हमारी श्रद्धा का प्रवाह कितना निर्मल है ना ....

इसी रास्ते से कुछ और आगे बढ़ते गए तो जंगल मंत्र मुग्ध करता जा रहा था। मैं उन गुफाओं कंदराओं में महावतार बाबाजी और योगानंद जी की कहानियां ढूंढती तो कभी शिव लीला की कल्पना में खो जाती। देवदार के जंगल नहीं थे वो किसी दूसरी ही दुनिया का पता हैं। जागेश्वर मंदिर के  उस समूह में रहा महाकाल और कुबेर का वो मंदिर मेरी स्मृतियों में आज भी जस का तस है। 

जागेश्वर के उसी रास्ते से कुछ दिन बात मुनस्यारी ,पिथौरागढ़ भी जाना हुआ। सड़क किनारे के जंगल ,खेत ,पहाड़ों से गिरते झरने , भेड़ों के झुण्ड सब कुछ कांच जैसा साफ़। मुनस्यारी के रास्ते की चढ़ाई ने दम जरूर निकाल दिया लेकिन आल्टो चलाने वाले भैया के लोकल किस्सों और दोनों ओर की धुंध की चादर ने आँख झपकने भी न दी। सवेरा पंचाचूली के सामने हुआ। सामने सोने से मढे पर्वत शिखर थे। ईश्वर ने ये सुख दिखाकर मुझे शिकायत करने के सब अधिकार ले लिए। मुनस्यारी से लौटते पताल भैरव गए। गुफा में ब्रह्माण्ड बसा है , जब जाईयेगा तभी समझ पाएंगे कि ऐरावत के पैर और कल्प वृक्ष की जड़ें वहां क्या कर रही हैं। 

लौट के अल्मोड़ा और अल्मोड़ा से लौटते हुए कैंची धाम रुकी। बाबा नीम करोरी के दर्शन और अध्यात्म के उस अनुभव के बिना ये सफर अधूरा रहता। 

काठगोदाम से लौटते  हुए लगा कि मेरी रूह वहीं रह गयी है बस अब जिस्म को ढो रही हूँ । देवभूमि में मेरे प्राण बसे हैं , मुझे वहीं लौट जाना है……कभी ,कहीं ,किसी रोज़ एक बार फिर हमेशा के लिए किसी जंगल में गुम जाने के लिए। 

बातें और भी हैं यादें भी अनगिनित है। फिर किसी दिन मिल बैठेंगे तो याद करेंगे कि रानीखेत के गोल्फ के मैदान और चौबटिया के आगे चिरियानौला का वो अंग्रेजों का मंदिर कितना ख़ास है। लौटने की वजह यादें और बतियाने के लिए बस बहाना चाहिए ! है ना ....... 

2 comments:

  1. मरीचिका सा सुकून मृग सी मेरी तृष्णा … Mam apka ye Article dil lo chu gaya :)
    man mein humesha se ek dabi se ichha hai ki ek baar "उत्तराखंड देवभूमि" ke darshan karne ko mile... apka lekh padhne ke baad ichha aur badh gai hai... thanx Mam :)

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  2. लगता है अधिक समझदार होना भी ठीक नहीं है . बताइए इतना पढ़ लिखने के बाद भी भटकना (मानसिक रूप से)ही पड़े तो क्या हस्सिल.सब कुछ पा लिया लेकिन मानसिक शांति नहीं मिली तो क्या फायदा. एक पते की बात बताता हूँ, अपना ट्रैक चेंज कर लीजिये. अपनी सोच बदल दीजिये. जिनको आपने आदर्श बना रखा है उन्हें बदल दीजिये.कठिन लगता है ना? कर के देखिये.

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