Sunday 18 September 2016

मैं वहीं मिलूंगी और तुमको एक बार फिर से थाम लूंगी ......... मैं जिन्दगी हूँ तुम्हारी !

कोई भी सफर पूरा नहीं होता और अधूरा भी नहीं रहता। कुछ चेहरे ,कुछ बातें ,कुछ लम्हे ,कुछ सच और कुछ झूठ,अधूरे -अनगढ़ से हम सबके बीच तमाम उम्र बसे रहते हैं।

नाम भूल सकते हैं , बातें धुंधली हो सकती हैं लेकिन रास्ते के हर पत्थर पर किसी पुरानी हवेली की तरह उनका होना झुठलाया नहीं जा सकता। अतीत से आजाद होना आसां नहीं है पर नामुमकिन भी नहीं बशर्ते उसे धारा के विरुद्ध न मोड़ा जाए। अपने आप को ,अपने अपनों को ,अपनी कमजोरियों को और अपने सपनों को अपनी ढाल बनाये बिना हम जीत सकते हैं ,आगे बढ़ सकते हैं। 

ये कहाँ जरूरी है कि टूट जाया जाए ,ये कहाँ जरूरी है कि तोड़ दिया जाए ? कुछ सबक याद करने के लिए होते हैं जिन्हें याद कर लेना ही काफी है , वजन लेकर कब तक दौड़ लगाईयेगा ? मुस्कुराईये कि वक्त वो बीत गया ,सूरज फिर निकला है और वक्त ने फिर मोहलत दी है। 

नाइन्साफी की शिकायत कब तक कीजियेगा और किससे कीजियेगा ? यहाँ हर कोई मसरूफ है ,हर कोई अपनी ही उलझनों और ख्वाहिशों में कैद है। जाने दीजिये , बहने दीजिये !  

मैं पढ़ रही हूँ और उसकी उलझनों को जी रही हूँ। ये दौर मुश्किल जरूर है पर संभलने के रास्ते किसी के लिए पेटेंट नहीं हैं। हम गलतियों की माटी से गढ़े पुतले में अपनी जान फूंक उसे खुद की शक्ल देने में उम्र जाया कर देते हैं , जिसका हासिल निल बटा सन्नाटा होता है। एक के बाद एक ........ और फिर कोई एक ख्वाब शॉर्टकट दिखा जाता है जो असल से फिर दूर ले जाता है और एक बार फिर एक और गलती ! हर बार भाग्य को भी क्या दोष दीजियेगा और खुद को भी क्या कहियेगा ? 

मन भोला पंछी है खुद ही खुद को बहला लेता है और खुद ही खुद को आज़ाद मान बैठता है। रात को परिंदे को आज़ाद किया भी तो क्या किया ,उजालों में नीड़ ढूंढते तो बात थी। 

तुम्हारे सपनों की दौड़ तुमसे ही हार रही है। जीतने की जंग क्या लडनी है, जीने के लिए जिओ पर उनके लिए भी जियो जो तुम्हारी जीत के लिए सपना देख रहे हैं। वक्त दरिया की मानिंद है , बहता रहता है उस पर अपना नाम मत लिखो ! किश्ती बन जाओ और बह निकलो दूर वहां जहाँ जमीन और आसमान एक हो रहे हैं। 

मैं वहीं मिलूंगी और तुमको एक बार फिर से थाम लूंगी ......... मैं जिन्दगी हूँ तुम्हारी ! चले आओ !

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