Monday 21 September 2015

सोशल मीडिया का इतिहासकार बन जाना डिजिटल यथार्थ है।

कितना भी चाहें अतीत पीछा नहीं छोड़ता ,वो लौट आता है नए किसी चेहरे के साथ……… बंद किताब के पन्ने फिर फ़ड़फ़ड़ा जाते हैं और वही तारीखें वही सिलसिले एक बार फिर जिंदगी से गुज़र जाते हैं।

हम सबकी जिंदगी का अपना इतिहास है जिसमें कितने ही ऐसे किरदार हैं  जिनके नाम याद नहीं , ठिकाने भी याद नहीं लेकिन वे जाते भी कहीं नहीं। तारीखें भी इतिहास हैं।

सोशल मीडिया भी एक दस्तावेज है ,नए युग का इतिहास इसी में संजोया और लिखा जा रहा है।  हम सब ढूंढने में लगे हैं और जो मिल गए उन्हें लिस्ट में जड़ के फिर नया खोज रहे हैं।

फेस बुक ने पुराने दोस्तों को फिर मिला दिया ,इतिहास बनते बनते रह गए या नए इतिहास में बदल गए कमोबेश बात एक ही है पर जो भी है सोशल मीडिया का इतिहासकार बन जाना डिजिटल यथार्थ है।

हॉस्टल में वो जूनियर थी मेरी ....... प्रेरणा दी ,प्रेरणा दी करती अक्सर आगे पीछे घूमती रहती थी ! यूथ फेस्टिवल में साथ इंदौर गए थे ! कुछ और भी तस्वीरें थीं जिनमें हम साथ थे  ……… दी देखिए ना ,हम यहाँ गए थे ,हम जब वहां गए थे तो आपने ये कहा था ,वो कहा था  ……… उफ्फ्फ ! कितना बोलती थी !

दी ,रोज़ शाम आप जब सामने वाली सड़क से गुज़रती थीं तो हम आपकी खिलखिलाहट से आपको पहचान लेते और दरवाजे तक आपको देखने आ जाते थे !………हॉस्टल अलग था हमारा ,पर उसको जब भी मौका लगता वो चली आती थी ,अपनी किसी दोस्त के साथ , कभी यूँही और फिर घंटो कहानियां सुनाती रहती  !
हॉस्टल से निकले तो एक शहर में रहते हुए भी नहीं मिले……सुना उसकी शादी हो गयी ! मैं जर्मन पढ़ने में व्यस्त रही ……… यूनिवर्सिटी के मायाजाल ने ऐसा उलझा दिया कि पीछे का सब इतिहास बनता चला गया ! मेरे भी शहर बदलते रहे ……

20 साल बाद एक रोज फोन पर वही परिचित आवाज़ एक बार फिर सुनायी दी ! दी , कैसी हैं आप ? आवाज़ नहीं भूली थी पर इतनी उदास आवाज़ उसकी नहीं हो सकती थी सो नाम पूछ बैठी ! ये प्रियंका थी……… ! वही जिसका जिक्र कर रही हूँ ! फेसबुक से ही किसी दोस्त से उसने मेरा फोन नंबर लिया था !

फोन पर खुद को संभाले रखा इसके बाद नहीं संभाला गया ! रो ली ……कैंसर का आखिरी दौर था ये उसका ! उसकी उदास आवाज़ का सबब !

फेसबुक पर उसकी रिक्वेस्ट आयी हुई थी ! हम फिर जुड़े …… एक रोज फेसबुक पर उसका स्टेटस देखा तो उसे बहुत डांटा ! मत लिखा करो ये सब ,हम हैं न ………" दी ,मिलने आ जाओ एक बार " वो यही कहती रही.......

मैं उस मुलाकत से बचना चाह रही थी ! कदम भारी थे उस रोज़ ……" दी , वो  रेलवे में थे , दो बच्चे हैं ....... ! उसने बताया था कि कैंसर ने उसके बच्चों से उनके पिता को छीन लिया और उनकी जगह मिलने वाली नौकरी को वो अपने कैंसर के कारण तब तक ज्वाइन नहीं कर पायी थी !

छोटे बेटे को हिन्दुस्तान के हर रेलवे स्टेशन का नाम और पूरी गुज़र मुहं ज़ुबानी याद है ! 12-13 साल का उसका ये बेटा उससे एक पल को अलग नहीं बैठा ! " मानसिक कमज़ोर बच्चों के स्कूल में दाखिला करवाया है दी "  ये कैसे रहेगा दी ! ………हम चुप थे पर बोल रहे थे !

मैं जब उसके दरवाजे से लौटी तो अहसास हो चला था कि ये शायद आखिरी मुलाक़ात हो !

वो सुबह भी किसी रोज़ आनी ही थी ! आ गयी ,प्रियंका चली गयी ! मैंने उसके फेसबुक पेज पर मेरी उसकी बातचीत का वो आखिरी वीडियो डाला जो उसकी हंसी का अंतिम प्रमाण बन इतिहास में दर्ज हो गया ! उसका फेसबुक प्रोफाइल जिन्दा है वो इतिहास बन गयी है !

डिजिटल इतिहास बन जाना इस डिजिटल युग की नियति है ! एक ही सबक सीखा इस सबसे कि डिजिटल रिश्तों के इस दौर में उन लम्हों को संजो के रखिये जो असल जिंदगी में सुकून और ईमानदार अहसास लिए आते हैं बाकि सब आना -जाना है ,लगा रहेगा ! मेरे पास कुछ ऐसे कीमती पल हैं जो मुझे जिलाये रखते हैं और किसी डिजिटल दीवार के भरभरा के गिर जाने से मुझे सुरक्षित बाहर निकाल लाते हैं !

आवारगी का ये सफर कितने फ़साने समेटे है उन सबको इस डिजिटल इतिहास के आर्काइव  में जमा कर दूँ तो मैं भी चलूँ………

वो झील ,वो पखडंडी मुझे पुकार रही है ! दूर जाना है...........  

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