Thursday 3 September 2015

ये दरिया ए आवारगी है …खामोशी से इसकी धुन सुनिए और बहते रहिये !

कल रात शारदा नदी का वो किनारा याद आ रहा था !! शाम का मंज़र और पहाड़ों के सिरहाने से गुजरती शारदा ………नदी की आवाज़ में एक जादू होता हो , उसकी आगे बढ़ने की गति और किनारों से उलझने की लय में जीने का मंत्र गूंजता है !!

नदी किनारे के रास्ते पर आगे बढ़ते रहिये तो लगेगा कि मनो आप के संग खेल रही है , जीतने को कभी हार जाने को मचल रही है……… किनारों पर कभी ठहरी सी , कभी उनको धकेलती- मचलती सी खुद ही में आनंद लुटाती बढ़ती जाती है ……

मैं जिस पर बैठी थी वो बालू रेत का किनारा था ……हाथ में सीपियाँ आ गयीं कुछ पत्थर भी !! अकेले बैठे हों तो धार को भी शांत नहीं देख सकते ……नन्हे पत्थर हथेलियों से होकर नदी में समाते रहे ! ख्याल दर ख्याल किसी चित्रकथा से नदी में उतरते रहे………नमी कभी मुस्कान तैरती रही !!

सूरज डूब रहा था ,पेड़ की छायाएं लम्बी हो नदी में उतरने को आतुर थीं , पहाड़ों की परछाईयों के सहारे आसमान  का अक्स नदी को सतरंगी बना रहा था ! कहीं दूर से तैरते आ रहे दीपों की जोड़ी लहरों के थपेड़ों खाकर भी न बुझने की जिद पाले तैर रही थी ……

मैं घंटों बैठी रही ……वो शाम ख़ास थी ! वो जिद थी वो जद नहीं थी इसका एहसास हो चला था मुझे ……मेरी जिद मेरी जद और मेरी जंग में ये नदी मध्यस्थ थी !!

निर्णय बड़ी देर में आया .......... नदी ने कहा बहती जा , जा दरिया बनके जी ! 

मैं लौट आयी उस निर्णय के साथ और अब कंक्रीट के जंगल में भी दरिया सी बहती हूँ , दरिया को जीती हूँ ....... पहाड़ सी ख्व्वाहिशों के दीप नदी में हर शाम टिमटिमाते ,उलझते तिरोहित हो जाते हैं ……मैं बहती रहती हूँ ....... दरिया के कोर की नमी जाती नहीं पर मैं मुस्कुराती आवारगी से बाज आती भी नहीं ……… 

थम जाने की नियति मुझे मंज़ूर नहीं है , मैं जब तक तुम में न समा जाऊं बहती ही रहूंगी ..........सागर कोई इतना भी दूर नहीं………बहने दो मुझे ! माना कि बहना खेल नहीं है पर खेल ना खेलूं ये कहाँ मना है ……मैं डूबूँ या पार हो जाऊं कोई फर्क नहीं पड़ता ………उम्र के इस मंज़र पर शर्त कोई मंज़ूर नहीं है !

ये दरिया ए आवारगी है …खामोशी से इसकी धुन सुनिए और बहते रहिये !

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