Monday 13 June 2016

ये रिश्तों का बंटवारा है , ये रूह कहीं, जिस्म कहीं का रिश्ता है !

" एक अरसे के बाद उससे मुलकात हुई ! अरसा भी क्या कहूं एक दशक ही बीत गया होगा ........ वो जब लौटा था तो  उसकी नीली -भूरी सपनीली आँखों में हजार सपने और कंधे पर सच की सलीब थी। इस बार वो जब लौटा तो कंधे पर जिम्मेदारियां और आँखों में तलाश थी ,सवाल थे।

इंसान भी अजीब है , कुछ की तलाश में कुछ भी खो देता है और कुछ मिल जाता है तो फिर कुछ पाने की जद्दोजहद में लग जाता है। मैंने उसके साथ ,उसके सफर में एक बेनाम हमसफर का रिश्ता निभाया है  ..... उसके साथ रोना उसके साथ हंसना भी हुआ ,बस नहीं हुआ तो साथ नहीं हुआ।

ये रिश्तों का बंटवारा है , ये रूह कहीं, जिस्म कहीं का रिश्ता है ! दोनों अधूरे- अधूरी कहानी ,पूरी सी दिखने वाली पर खत्म नहीं होने वाली सी कहानी है मनो ..... ! परिवार और समाज से परे कुछ नहीं है पर कुछ है जो इन दोनों में ही नहीं ,वो बस वहीं है, जहाँ रूह बसती है।

जिंदगी बिना रिश्तों के नहीं चलती ,रिश्ते जरूरी भी नहीं। जरूरतों का धरातल बदलता रहता है। बस जो नहीं बदलता वो एक एहसास है कि "तुम हो ना "........    उसका हाँ कह देना और मेरा मान लेना !!

बस वही एक एहसास खींच लाया उसको ,वही एक खालीपन ,वही एक उदास कोना ,वही एक टीस ...... देस क्या परदेस क्या ! अब समंदर भी बूँद और कभी बूँद भी समंदर लगता है।

अच्छा सुनो ! बिटिया कितनी बड़ी हो गयी ?
18 पूरे होने वाले हैं , उसने कहा और मुस्कुरा दिया !
तुमने उसका नाम वही रखा ना जो हमने सोचा था ?
तुमको याद है ?
मैं हंस पडी.........
और तुमने भी तो ऐसा ही कुछ किया है ना ?
वो हंस पड़ा .......
हम्म !! ऐसे पागलपन भी भला भूलता है कोई !
नहीं ! वो पागलपन नहीं था ,वक्त था ! हम पर कहानी लिख रहा था और हम किरदार सिर्फ उसके कहे को निभा रहे थे !
थे नहीं हैं ! मैंने बात को विराम दे दिया।

विराम दे देने की कोशिशें नाकाम होती रहीं ! घंटों उँगलियों में उलझे वक्त के धागे सुलझाते रहे......... दोनों को पता था सुलझेगा कुछ नहीं पर इन धागों की पेचीदगी में उम्र के तार फंसे हैं जिनके फंसे रहना ही हमारी नियति बन गयी है।

पर जो भी है अच्छा ही है ! साथ रहते तो शायद कभी टूट जाते इसलिए दूर सही साथ हैं तो भी क्या बुरा है। जो पास हैं वो भी कितना जुड़े हैं ? "

वो अपनी बात कहती जा रही थी। कुछ मुझे पता था, कुछ अनसुना भी था।

फिर क्या हुआ ........ ? मैंने सवाल बढ़ा दिया ये सोच के कि उसकी चुप के अंतराल को कम कर  सकूंगी पर वो अब निढ़ाल सी सोफे पर पसर गयी। आंसुओं की धार उसके गालों से लुढ़कते देख पा रही थी मैं  .......

मैं कमरे का पर्दा खींच निकल आयी। कुछ सवाल अनुत्तरित रह जाने चाहिए ,जवाब जिनका खुद के पास ही न हो तो फिर नासूर बन जाने तक उनको कुरेदने से भी क्या हासिल।

मुझे पता है जिंदगी किसी के लिए नहीं रुकती  ........ सब चलते रहेंगे ,मिलते रहेंगे और फिर कहीं गुम जाएंगे फिर मिलने के लिए !

आप भी चलते रहिये पर जो साथ है उनका शुक्रिया करते रहिये कि वे साथ तो हैं ! ये साथ और साथ के भरोसे की मिट्टी नम रहनी चाहिए ! मोहब्बत की बेल इसी से हरीभरी रहेगी ! रिश्तों को हरा रखना है तो हाथ थामे  रखिये..... ! मौसम की फितरत है देर -सवेर बदल जाएगा !




4 comments:

  1. खूबसूरत रचना!

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  3. खर्च होते वक़्त की,बहते पानी और ठिठके एहसासो की शानदार गठरी।

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