एक बात जो कभी समझ में नहीं आयी , हमेशा उलझाती रही वो ये कि किसी रिश्ते के लिए वैसा होना ही क्यों जरूरी है जैसा कि वो चाहें ……हम वैसे क्यों नहीं बने रह सकते जैसे कि हम हैं ---- भले हैं तो बुरे हैं तो।
आपके किसी भी नज़रिये को मैं अपने नज़रिये से गुनाह घोषित कर आपको अपनी ही नज़र में अपराधी बना कर घुटनों पर ले आऊँ और रिश्ते की बेड़ियां पहना कर खुद को विजयी घोषित कर दूँ ---- ऐसा रिश्ता समझ के परे है !
जिंदगी की किस किताब में गलत और सही की परिभाषाएं लिखी हुई हैं ?? आपने कहा इसलिए सही , मैंने जिया इसलिए गलत .......... अजब दुनियावी रवायतें हैं !! मैं तुम्हारे साथ अगर मैं नहीं बनी रह सकती या तुम मेरे साथ तुम बन कर नहीं रह सकते तो मेरे -तुम्हारे बीच कोई रिश्ता कैसे हुआ ………… ये रिश्ता तो तुम्हारा -तुम्हारे साथ और मेरा - मेरे साथ हुआ !! फिर क्यों न ये माना जाए कि तुमको मैं नहीं तुम खुद पसंद हो …!!
आत्ममुग्धता में किसी के अस्तित्व , किसी के व्यक्तित्व को लील जाना किसी रिश्ते की निम्नतम परिणीति होती है जिसका बोध होते -होते आप अपना बेहतरीन वक्त बेजा उलझनों में बर्बाद कर चुके होते हैं।
जब आप आप ही न रहेंगे तो उनके लिए भी लाश बन जायेंगे, जिसे हर कोई जल्द दफन करना चाहता है…………आप -आप बने रहिये वरना आप वो भी न बन पाएंगे जो वो खुद भी नहीं हैं !!!!
रिश्ते की बेड़ियां पहना कर खुद को विजयी घोषित कर दूँ ---- ऐसा रिश्ता समझ के परे है !
ReplyDeleteआप -आप बने रहिये वरना आप वो भी न बन पाएंगे जो वो खुद भी नहीं हैं !!!!