Saturday 8 August 2015

निशां रास्ते बनाते रहे मैं उनकी खोज में खुद को ढूंढती रही........

पापा ने सीधे कभी टोका नहीं ,माँ के सहारे से उनकी दबी सी झिड़की मुझ तक पहुंचती रही …… बेटी की आज़ादी का भरपूर सम्मान उनसे ही पाया। स्कूल से कॉलेज तक साइकिल से रोज नए रास्तों से जाना ,यूनिवर्सिटी में जर्मन भाषा की इवनिंग क्लास से देर शाम घर लौटना…… बिना बताये जैसलमेर के धोरों तक पहुंच जाना.... क्या न किया !! वे एक ही बात कहते , अपना ध्यान रखना ....... कितना ध्यान रख पायी ,पता नहीं ,हाँ पर जहाँ हूँ वहां संतुष्ट हूँ।

अजीब सनक थी अजमेर से पुष्कर तक सूरज को उगते और ढलते देखने जाती थी -- वो भी सावित्री मंदिर की पहाड़ी पर बैठ देखना होता था  !! एक ही दिन में दो बार पुष्कर , सूरज को ढलते -उगते देखने कोई सनकी ही जा सकता होगा ....  क्या रहा होगा उस सूरज में ,उस पहाड़ में ,उस सफर में ,उस तकलीफ में………वो गलियाँ आज भी ज़हन में आबाद हैं। 

मकान मालिक को बता के सोना पड़ता था कि सुबह जल्दी दरवाजा खोल दें , निहायत परम्परावादी सोच के वे सज्जन मुझको अक्सर लड़की होने की सीमाओं का विविध प्रकार से ज्ञान देते पर अल सुबह दरवाजा खोल ही देते।  घर से एक डेढ़ किलोमीटर पैदल चलकर पुष्कर की बस मिलती पुष्कर बस स्टॉप से एक डेढ़ किलोमीटर सावित्री मंदिर की पहाड़ी , पहाड़ी की १००-२०० सीढीयां ……फिर जाके कहीं सूरज के दर्शन होते !!! 

एक जुनून दूसरे जुनून के लिए साहस देता रहा , डर न अंधेरों से लगा न उजालों से लगा। सफर में जितने भी दर्द मिले निशां छोड़ते रहे....... निशां रास्ते बनाते रहे मैं उनकी  खोज में खुद को ढूंढती रही। अपने लौट आने का  इंतज़ार करते रहे , मैं गुम जाने की फिराक में रही। 

दुनयावी रवायतों की जंजीरे छूटे तो एक बार फिर ये शज़र महके, फिर वो रास्ते महकें ,वो झील वो किनारे इंतज़ार में हैं कब ये सांस टूटे..............और आस का पंछी फिर उड़ चले , दूर समंदर पार  पहाड़ों की किसी चोटी पर जहाँ जमीन और आसमान एक हो जाते हैं ! ख्वाहिशों का बोझ सीने पर भारी हो चला है ,दम किसी एक शाम में अटका है ---- वो हो तो फिर किसी झील से खनकता सूरज पहाड़ी के पीछे जा डूबे !!

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