Saturday 12 March 2016

मैं ,तुम और मेरी आवारगी बस और कोई नहीं है ................

एक लम्हा गुज़र गया , चुप से बिखर गया ! मेरे आँचल में सिमटा वो एक अधूरा सा एहसास उसकी सिलवटों पर पसरा रहा। मैं दिन की घड़ियां गिनती रही ,शाम की सीढ़ियों पर जब रात ने दस्तक दी तो चाँद दरवाजे आ खड़ा हुआ।  सितारों से भरा मेरा आँचल रात की सरगम पर गुनगुनाता रहा !

मैं वक्त हो गयी ,इसी तरह बीतती रही और उतरती रही उसके सांचे में ,उसकी लय से अपनी ताल मिलाने में लम्हे साल और साल जनम में कब बीत गए पता ही नहीं चला। 

मैं तुमको शब्दों में उतार किसी रोज अपने सिरहाने रखना चाहती हूँ पर तुम्हें छपवा कर किसी और के हाथों ,किसी और के सिरहाने नहीं रख सकती। मैं पढूं ,मेरा किरदार मेरे लम्हे और हमारा वजूद उतार दूँ कहीं। 
ऐसा भी कभी होता है भला पगली कि मैं रहूँ और ना भी रहूँ 
हाँ तुम तो ऐसे ही हो , होते भी हो और नहीं भी हो। 
मेरे फरमान मानते भी हो ,उलझते भी हो और सुलझ के फिर बिखर भी जाते हो !

 क्या खूब खेल है ये जिंदगी का ........   धूप कंचों से खेल रही हैं और शाम सिरहाने बैठी है। जादू सा उतर आया है आँगन में। लोग चेहरे से तेरा पता लेने में लगे हैं, मैं हर हाल में तुझे ज़माने से चुराने की जिद पे उतर आयी हूँ। 

आ जाईये , गुलालों का मौसम आया है ! वही रंगों के गीत वही कुनमुनी सी ताल किनारे की हवा का झौंका गुज़रा है !

मेरी ख्वाहिशों मुझे तुमसे बेइंतिहा इश्क़ है !! मैं कब तुमसे अलग रही और कब तुम्हारे साथ थी ........... बेमानी से सवाल है ! बस सच  यही है कि रंग बेहिसाब और जिंदगी सिर्फ ख्वाब तुम्हारे नाम का है !

मैं ,तुम और मेरी आवारगी बस और कोई नहीं है ! चले आओ !




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