Sunday 6 March 2016

अंजुरी अब रीत गई ........... काल गति काल को लील गयी !

सुनो वो दूर झील के पार क्या है ?
मंदिर है शायद !
चलते हैं ना ......
इस समय ?
हाँ तो !!

अँधेरा उतर आया था , पहाड़ पर यूँ भी सुस्ताई कुछ जल्दी ही पसर जाती है। ताल में रोशनी समाने लगी थी और पहाड़ों से उतर अँधेरा उस पखडंडी पर बिछने लगा था। स्ट्रीट लाइटों का बंद होना अखरा भी नहीं। चढ़ती शाम के सन्नाटे और कुनमुनाती शाम के बीच उनकी मुस्कुराहटों के सिलसिले थे।

चाय पीने का मन हुआ पर झील किनारे एक भी दुकान खुली नहीं थी। सब खामोश था सिवा दूर से आती मंदिर की घंटियों और तेज बज रहे भजनों के अलावा कोई आवाज़ नहीं कोई आवाजाही नहीं।
मुझे मंदिर पसंद नहीं !
मुझे भी नहीं !
पर आज शिवरात्रि है !
हम्म्म !
मुझे भूख लगी है , जल्दी होटल चलो !
प्रसाद तो ले लें !
मुझे बेर पसंद हैं ! पहाड़ी बेर मैदानी बेर से ज्यादा स्वाद होते हैं .......
रुको जरा ......
वो दौड़ पडी ,लौटी तो अंजुरी में ढेर से बेर -केले के साथ !
ये क्या है ? कितनी देर कर दी !!
भीड़ में घुस के लाना पड़ा है ,तुम्हें पसंद हैं ना ! लो खा लो ......
तुम भी लो !
नहीं मुझे दोनों ही पसंद नहीं.....
फिर क्यों लाई हो इतनी भीड़ में धक्के खाकर ?
तुम्हारे लिए ,तुम्हे पसंद हैं ना
तुम भी गजब हो ,किसी को कुछ भी पसंद हो तो दौड़ पड़ती हो दिलाने के लिए !
मैं ऐसी ही हूँ......

वो उसकी अंजुरी से प्रसाद उठाता रहा वो इसी में तृप्त थी कि वो खुश है। मंदिर से दूर निकल आये तो झील किनारे की वो सड़क खामोश हो गयी।

अंजुरी खाली हो गयी ! साल बीत गया शिव की रात फिर आ गयी। हर साल हर जनम में आएगी पर प्रसाद सब बीत गया ! अंजुरी अब रीत गई ........... काल गति काल को लील गयी !

तारीखें कैलेंडर पर ही बदलती हैं। मन की दीवार पर कुछ तारीखें नश्तर से उकेरी जाती हैं....... जन्मों के खाते पलों में दफन नहीं होते ! न ना चाहने से ना चाहने से ये वक़्त नहीं बीतता ........ !!   यही नियति है यही यथार्थ है।














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