Saturday 27 February 2016

मन का मौसम रंग बदल रहा है। फाल्गुन में सब रंग सजेंगे...........!!

बसंत बीता ,फाल्गुन का रंग चढ़ आया है। गुनगुनी धूप का जादू उतरने लगा है , गर्म कपड़ों को समेट के रखने लगी तो अलमारी के किसी कोने में रखी सफ़ेद कमीज़ की तह खुल के बिखर गयी।
अरसा हुआ ना उसे ऐसे ही सहेजे हुए ...... कुछ रंग जिंदगी के आले में ऐसे ही रख दिए जाते हैं। ये सफ़ेद है ,स्याह होती तो शायद हर बार नज़र आती। इसका इस अलमारी में बने रहना और फिर भी न होना ,होना ही तो है।

मौसम रंग बदलता रहेगा ! शाम अब कुछ देर ठहरती है ,मेरा इंतज़ार करती है। मैं अब अक्सर पैदल ही निकल पड़ती हूँ , ड्राइविंग कम कर दी है। दिन भर में 5-7  किलोमीटर चलने के बाद भी कुछ बचा रहता जो थकता नहीं है। मैं उसे हरा देना चाहती हूँ। जितनी देर अकेले पैदल चलती हूँ , खुद से जुडी रहती हूँ और जब भीड़ में होती हूँ तब मुझमें मैं नहीं होती। ये सन्नाटा भी अजीब है। इसका रंग सफ़ेद है लेकिन ये बुगनबेलिया के फूलों सी तरोताजा करने वाली दिखती है।

नई कोपलें फूट रही हैं , तना इतराने लगा है। मैं कुछ देर ठहर कर उसकी मुस्कान को भीतर भर लेती हूँ ...... रास्ते की बेरी बेर से लदी है। मैं हर रोज अंजुरी भर उन बेरों को याद कर लेती हूँ जो तुम्हारे लिए भर लाई थी , बेर मुझे आज भी पसंद नहीं , पर अब खाने लगी हूँ...... !

मंदिर तक की पखडंडी पर पत्तों की चरमराहट गूंजती है। शोरगुल से दूर इस मंदिर में कोई कोई ही आता होगा। सुबह तक तमाम फूल मुरझा जाते हैं , मुझे अच्छा लगता है उनको समेट , कुछ देर आँख बंद कर वहां बैठ जाती हूँ। सफेद रंग वहां भी भीतर तक उतर जाता है।

धूप चढ़ने लगती है तो मन सिमट आता है। सब कुछ होना होता है पर उस होने में मैं अब नहीं हूँ।

मन का मौसम रंग बदल रहा है। फाल्गुन में सब रंग सजेंगे ,इस होली भी थाल सजेंगे। गुंझिया पसंद है तुमको ,चले आना , गारी भी तो गानी है ,फाग भी खेलना है।

थम थम कर लिखना होता है........ कुछ तुम भी लिखना ! कुछ रंग उठा लाना ,कुछ ख्वाब सजा देना ! इस बार जरा जल्दी आना !

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