Monday 8 February 2016

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तू ने............ "

बारबार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी
गया, ले गया तू जीवन की सब से मस्त खुशी मेरी।।


क्या सोच के लिखा होगा सुभद्रा कुमारी चौहान ने ये ? जब मन बेहद विचलित, बेहद शिथिल होता है तब बचपन आकर उसे कुछ पल ही सही दुलारता जरूर है। लौट जाने को मन करता है उन्हीं उन्मुक्त पलों में जब दूर दूर तक दर्द से कोई नाता नहीं हुआ करता था। चोटों से ज्यादा चोट के फिर से जल्द ठीक होने की व्यग्रता रहती थी। फिर से उन्हीं दोस्तों के पास पहुंच जाते थे जिनसे कल शाम ही लड़ाई हुई थी और माँ से जी भर के जिनकी शिकायत की थी। माँ ने तब कहा होगा कि कल सब ठीक हो जाएगा और वो हो जाता था !! अब क्यों नहीं होता ? माँ तो अब भी कहती हैं सब ठीक होगा पर न मन मानता है ना सब वैसा होता है जैसा पिछली शाम था। 

कितनी जल्दी थी बड़े होने की !! मन चमत्कृत सा देखता था आस पास के "बड़ों" की दुनिया को......जिनको ना होमवर्क की चिंता थी ना टीचर की डांट की, ना घर जल्दी लौटने की हिदायत !! अब जब बड़े हुए तो पता लगा कि जिस होमवर्क से भाग रहे थे उसकी मियाद तो अंतहीन है। हर पल कॉपी जंचती है, हर मोड़ कोई क्लास टीचर, हर कोने कोई मॉनीटर खड़ा है। अब खेल का कोई मैदान नहीं, अब वैसा कोई लंच का डिब्बा भी नहीं। 

छुट्टियां होतीं तो मौसी, बुआ, मामा, भाई भतीजे सबका मज़मा लगता, रात-रात दादी भूतों की कभी अपने जमाने के आने -दो आने के किस्से-कहानी सुनाती ! माँ का चूल्हा जलता रहता था और डांट से घर गूंजता "दिन भर हंसी ठठ्ठा करती हो बुआ से कुछ हारमोनियम सीख लो ,नानी से कसीदा " और मैं कभी अनमनी सी सीखने बैठती, कभी छू हो जाती। 

अरे हाँ ! वो साइकिल पर 20 किलोमीटर जाना, कभी नाहरगढ़ की पहाड़ी , कभी आमेर की घाटी नापना........... अब कार है तो भी अवकाश पर मन नहीं है। अब वो दिन भी तो नहीं हैं,  दोस्तों की फेहरिस्त लम्बी इतनी हो गयी है कि पहले नंबर पर जो था उसे मैं याद नहीं और जो आखिर है उससे मैं भागती हूँ !

"लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमंग रंगीली थी
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी।।
दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी।।
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तू ने............ " 

जन्मदिन आ रहा है शायद इसीलिए बचपन याद आ रहा है....... पर जन्मदिन अब सिर्फ एक तारीख है। तारीख जिसे भूल जाने का कोई रास्ता भी नहीं है , बधाइयां लेनी ही होंगीं....... नियति ने भी क्या खूब खेल रचा है !

सब दिन स्वीकार ! ठगी भी स्वीकार है रे जीवन तेरी......... पर जब तक मुझमें आवारगी शेष है मैं अशेष बचपन भी जी लूंगी और अंबर पार शारदा के तट पर फिर किसी रोज एक बार फिर तुझसे आ मिलूंगी सब हिसाब किसी रोज उसी तट बैठ पूरे करने हैं तुझसे ! वादा है खुद से, वादा है जिंदगी तुमसे ! 




       

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