Tuesday 18 October 2016

इस नाम से अब परेशानी होती है............

कई बार महसूस होता है जिंदगी घर के किसी कोने में रखी कोई ऐसी किताब है जिस के पहले पन्ने पर मेरा नाम तो लिखा है पर पढा इसे मैंने भी नहीं है। 
उलझते उलझते शाम हो चली है मैं फिर उलझ जाती हूँ और फिर उस किताब को देखने लगती हूँ.......उसे उठाती हूँ ,पन्ने पलटती हूँ पर सवालों के जवाब उसमें कभी मिले ही नहीं ! बेकार की कवायद है। इस किताब का क्या कीजे , इस नाम का क्या कीजे ? मेरी पहचान ने मेरी निजता निगल ली है | 

इस नाम से अब परेशानी होती है। लापता हो जाया जाए और कोई ऐसी जगह जाया जाए जहाँ मेरी कोई पहचान न हो। लोग जितना पहचानने लगते हैं उतने  ही खुद से अजनबी होते जाते हैं। पहचान के साथ जुड़े रिश्ते और उन रिश्तों की अपेक्षाएं अक्सर सलाखें लगने लगती हैं। ये अपेक्षाएं भी समंदर हैं ,खारा पानी किसकी प्यास बुझा पाया है ? 

पेड़ ,पहाड़ ,जंगल हो जाना चाहती हूँ। झील से आजाद हो दरिया हो जाना चाहती हूँ। सामान के समंदर में फेंक दी जाने वाली जिंदगी से क्या खोज निकालने की सम्भावना है। सामान ने भी चन्द महीनों बाद कबाड़ ही होना होता है और सामान के साथ आयी खुशी भी उसको अबेरते अबेरते कबाड़ में बदलने लगती है। 

मोह के कुछ धागे रंगे हैं ,कुछ कच्चे -कुछ पक्के हैं ! देह के मिट्टी होने तक इन धागों में बंधे रहना भी नियति है। मन की मिट्टी गीली है ,दरकने लगती है। जो ये भरम पाले हैं कि वो सहारा हैं ,वे भी धसक जाते हैं तो नए सहारे उग आते हैं और फिर कोई फिर से खड़ा हो जाता है। 

 सब सलाखों ने अपने इर्दगिर्द सलाखें उगा ली हैं ! किसी को रिश्तों का, किसी को संस्कारों का, किसी को समाज का नाम दे दिया है। आप बेशक तर्क दें कि नियम बिना समाज नहीं चलता पर मैं समाज नहीं "मैं " होकर जीने की आजादी चाहती हूँ। हम सब चाहते हैं पर देना नहीं चाहते इसलिए कि आजाद करने में सुरक्षा घेरा टूट जाता है और इसलिए भी कि सबके भीतर गुम हो जाने का ड़र है। 

........पर मैं गुम जाना चाहती हूं ऐसे कि किसी को न मिलूं। आसमान पार  की रूहानी दुनिया  और चाँद  सिरहाना चाहिए मुझे ! 

ख्वाहिशें ऐसी हैं कि खानाबदोश हूँ कोई ........ इस यायावरी ने कितने मंजर देखे हैं और और कितने और बाकी हैं ,पता नहीं पर ये तय है कि इसी दुनिया , इन्हीं रिश्तों के बीच मेरा अपना एक इमरोज , मेरा अपना कोई साहिर है। अमृता हो जाना कितना मुश्किल रहा होगा पर नामुमकिन तो नहीं था ना.......... !

नज़्म गुनगुनाइए और चलिए साथ उस सतरंगे आसमान के नीचे , उसके पार किसी पगडंडी पर आज़ाद कदमों से...... जिंदगी के हाथों में हाथ दीजिये और हवाओं में उसके जिस्म को भर लीजिये ! 

चलते रहिये , मिलेंगे हम किसी रोज किसी अनजानी सी जगह और उंगलियों को उलझाये चाय साझा करेंगे !


1 comment:

  1. लफ्जों की शानदार जुगलबंदी , जो नज्म की तरह हकीकत ब्यान कर गयी
    बहुत खूब

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