Monday 1 August 2016

आओ कुछ पल उंगलियां उलझा के बैठें ....

एक ख़त लिखना चाहती हूं जिंदगी के नाम .... कभी कभी खुद को खुद के सामने बिठा कुछ सवाल कुछ जवाब लेने का मन होता है तो कभी जिंदगी को ठेंगा दिखा खिलखिलाकर भाग जाने का मन होता है .... मैं अलग और जिंदगी अलग हैं क्या ? अगर नहीं तो फिर इतनी दूरी कैसे है ? जो पास है तो खामोश क्यों?


ये सवाल भी वैसा ही है जैसा तुम सोचते हो कि कोई तुमसे बिना कुछ चाहे इश्क कैसे कर सकता है? जैसे तुम ये यकीन नहीं कर पाते कि देह के पार  भी कोई संबंध हो सकते हैं, रिश्तों की संभावनाएं हो सकती हैं। इतने मासूम से सवाल हैं तुम्हारे कि जी करता है कि इनकी पोटली बना आसमान में उड़ा दूं ....सच कहूं तो उड़ा ही दिए हैं। न उड़ाती तो जिंदगी का सबब ही खो देती।
देखो वो तस्वीर के उस पार की कश्ती देख रहे हो...
उसमें खास कुछ नहीं है सिवा इसके कि उसमें उन लम्हों का भार है जिनके वजन से झील का पानी किनारों को धकियाता रहता है , ये जिंदगी है, वो कश्ती जीने की जिद है।
मुझे अच्छा लगता है और बुरा क्यों नहीं लगता ? मैं किसी वक्त भी उस वक्त से अलग नहीं हो पाती .....कोई जिंदगी से अलग होकर जिंदगी को सोचता है क्या ?


खुद पर इतना कम भरोसा क्यों ? क्यों इतने सवाल ? कहीं कोई एक झूठ हजार सच पर भारी तो नहीं  ?


ये हमारी जिंदगी है, ऐसे ही उलझाकर रखती है  ! सोचती है कि हर रोज़ कोई नया सवाल रख देगी तो मैं किसी रात ख्वाब छोड़ उसे हल करने लगूंगी पर ऐसा भी होता है क्या कोई ..... मुझे तुमसे मोहब्बत है मेरी जिंदगी ! तू सवाल किये जा मैं जवाब सजा के बैठी हूं।
ये सबसे खुशनुमा मंजर है ....अब मैं और मेरा इश्क जिंदगी की उस कश्ती पर सवार हैं जो हज़ार दियों वाली झील के सीने पर सिर टिकाये है ....  ले चल मेरे मांझी ले चल पार .. सवालों के पार - जवाबों के परे ! दूर पहाड़ों पर ,जंगल और दरिया किनारे .....
कब खत्म होगी ये दौड़ , इतना दौड़ के क्या हासिल हुआ ?
आओ कुछ पल उंगलियां उलझा के बैठें .... दरिया को सुने और जंगल को जी लें ,जब इसी के सुपुर्द होना है तो क्यों न इसी के हो के रह जायें.....
मेरी खूबसूरत जिंदगी मुझे तुझसे बेपनाह मोहब्बत है, तेरे इश्क में मर भी गयी तो फिर से तुझे पा लूंगी !

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