Wednesday 3 August 2016

मेरी गया यात्रा ....... पितरों का पंगा और महाबोधि दर्शन

गया, बिहार में हूं।मेरा ये पहला अनुभव नहीं है किसी धर्म नगरी में न, ये पहला मोहभंग है धर्म के व्यापारी स्वरूप से ! आस्था के बाजारीकरण को उसके निकृष्टतम रूप में देखना हो तो कुछ समय यहां जरूर गुजारें ।
गया प्लेटफार्म पर उतरते ही पंडो के एजेंट आपके कुल-गोत्र, दादा चाचा पार बाबा तार बाबा सबकी कुंडली खोल आपको अपना बनाने की जुगाड़ में लग जाते हैं। बच निकले तो आपका भाग्य वरना लौटने लायक पैसा भी पितरों की गलियों से होता हुआ "संस्कृति के चौकीदारों की जेब में चला जायेगा। सावन का महीना है सो यहां रेलवे स्टेशन पर भी कांवड़िये पसरे थे। सावन में लहरिया सुना और पहना था पर कांवरियों की नयी भगवा यूनिफार्म आस्था के बाजारीकरण की नयी परिभाषायें गढ़ रही है । गया पितरों की नगरी है, शास्त्रों के अनुसार विष्णु यहां द्रव रूप में फरगु में अवतार लिये हैं।
फरगु नदी के किनारे विष्णुपद मंदिर में पितरों की "मुक्ति" के अनुष्ठान होते हैं। मंदिर के मुख्य द्वार पर लिखा है " अहिन्दु प्रवेश निषेध" ..... कमाल है न जिस विष्णु के चरण में तमाम सृष्टि का वास है उसके ही "एजेंट निवास" में सलेक्टिव लोग ही प्रवेश के हकदार हैं ?
अंदर धुसते ही आप पर फिर से "पितरों के एजेंटों" का हमला होगा। आप "किडनैप " कर लिए जायेंगे और थाली में धोती , माटी के कलस और भिंडी, आटा लिए नजर आयेंगे।पंडित आपको सौ पुश्तों के नाम पूछ आपमें इतनी हीन भावना भर देगा कि उठने पर आपको अपने नाम की भी तस्दीक करनी पड़ेगी ।
जो दादा जी बिना कहे दौड़ आते थे उनकी तृप्ति के लिए इतना जतन ? क्या मृत्यु के बाद भी ध्यानाकर्षण की चाह शेष रह जाती है?
तीन -चार घंटे के बवाल के बाद जब होश आये तो कुछ खा पी लें और महाबोधि दर्शन के लिए निकल लें .....
महाबोधि का अनुभव बोध गया से जल्द ही साझा करूँगी ! प्रणाम!

2 comments:

  1. सब जगह यही हाल है,

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  2. Prerna ji, you are right as far as mismanagement of Pandits in Gaya, is concerned. That can be and should be given a new face by the Govt. to provide convenience to the tourists. Otherwise, it is their profession. But in the absence of proper rules, such an unwanted scene is bound to happen as has been experience by you. However, main thing is our true intention to execute our faith for our departed family members. Further, please do share your experience of Mahabodhi temple. At the end, I will again have to appreciate your style of writing and expression which always feels to me the expression of the Unknown. I can not avoid this acknowledgement from me. Regards, Sudhir.

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