Thursday 26 May 2016

प्रेम का कोना कभी बंजर नहीं होता , जरा नजदीक आये नहीं कि सब हरा हो जाता है। घाव भी और जमीं भी ..............

रिश्तों में घिरे ,रिश्तों में फंसे ,रिश्तों में जीते , रिश्तों में हारे ............. नाम वाले रिश्ते ,बेनाम रिश्ते सब खेला है .........सब माया है ,सब जानते हैं फिर भी भोगना में फंसे हैं ! न फंसने जैसा कोई विकल्प भी नहीं है किसी के पास।

वो बात करना चाहता है ! वो हैरान थी कि क्या बात करे उससे ............. 
सैंकड़ों प्रश्न जब संबंधों के बीच उग जाएँ तो उसकी परिणीति वही होती है जो हर संबंध की होती है। जवाब सबके पास हैं ,सबके अपने जायज तर्क हैं। रिश्तों में तर्क की असीमित सम्भावनाएं होती हैं। कभी भी किसी को भी सही या गलत सिद्ध किया जा सकता है। सब माहिर है ,अपनी सहूलियतों के हिसाब से सब जवाब गढ़ लेते हैं। 

उसके पास भी जवाब होंगे और इसके पास उनको मान लेने की वजह भी........... प्रेम का कोना कभी बंजर नहीं होता , जरा नजदीक आये नहीं कि सब हरा हो जाता है...... घाव भी और जमीं भी......

बात बात पर रूठना और जरा सा झुक के मना लेना क्या बुरा है। सुनने में सहज लगता है पर जब बात हर बार की हो तो गांठों के बोझ से प्रेम का धागा भी कमजोर हो जाता है।

उससे बात करने में बुरा कुछ नहीं ,कर लो पर फिर जब चोट लगे तो करहाने या चीखने के लिए दम जुटा लेना। वक्त हर बार इतनी मोहलत दे जरूरी नहीं है। कुछ लोग रिश्तों को पॉपकॉर्न की तरह इस्तेमाल करते हैं ,उनके लिए सिनेमा में हिरोईन की कमर और हीरो की दिलेरी देखने के लिए पॉपकॉर्न जरूरी है। तुम पॉपकॉर्न हो या कोक खुद तय करो ?

मैं उससे बतिया रही थी मनो खुद को जी रही थी ! उसका डर जायज है , उसका डर उस अनुभव की देन है जो वो भी जी रही है पर पिघल जाती है और पिघलना बुरा भी नहीं। बुरा सिर्फ परिणाम है ,जो डराता है डस्टबिन की शक्ल में। लोग भी चेहरे पर चेहरे चढ़ाये गुज़रते हैं , रटे रटाये डायलॉग - कही कहाई कहानियां कितना भरोसा करें और भरोसा उनका क्या अब खुद पर भी नहीं होता !! 

कोई तराजू ले कर नहीं बैठा पर सब एक दूसरे को तोल टटोल रहे हैं। टाइम पास के लिए रिश्ते और संबंधों की दुकानदारी में जितना कुछ एक के साथ एक फ्री का लालच है उतना जिंदगी भर की जमापूंजी जाने का डर भी है। 

अवसाद से बचना है तो रिश्तों में मज़ाक से बचिए। आपके लिए मनोरंजन हो सकता है पर किसी और के लिए ये जिंदगी का सवाल बन सकता है। हर कोई "वो " नहीं हर " वो " "वो " भी नहीं। जब मज़ाक बनाते हैं तो बनाते रहिये और फिर बन जाने के लिए भी तैयार रहिये। जिंदगी खेल का मैदान जरूर है पर बेईमानी से जीते तो हारने वाले से उसके ईमान का सुकून तो फिर भी हासिल नहीं कर पाएंगे। 

उसको बख्श दें ! छल के खेल में किसी के ईमान किसी की मासूमियत को जीतने से बेहतर है कि उन को चुनें जिनके पास दिल नहीं फौलाद है ताकि जब आपको चोट लगे तो अहसास हो कि दर्द किसे कहते हैं !

चलते रहिये ! बचके रहिये !

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