एक रोज़ चोट खा बैठा , इतना खून बहा कि कोई दवा काम न आयी न अस्पताल खाली मिले ......... अच्छा ही हुआ , अपने आप घाव भरा ,अपने आप लड़ने की सीख ले ली |
नहीं सीखा उसने, तो वो था सम्भलना .....
सम्भलने के लिए साथ भी कोई दे तो कितना दे ?
चलना उसे खुद है , चलानी भी उसे अपनी ही है...ड़र लगता है पर उसे रोक नहीं सकती ,उसे बाँध के रखना भी मुनासिब नही ना ?
फिर मन को ये आज़ादी भी मैंने ही दी है ,मन को उड़ान का हौसला भी मैंने दिया फिर मैं ही उसे लेकर असमंजस में आती भी हूँ !!
ये भरोसा है कि वो सही राह चलेगा फिर अगले ही पल लगता है, ये मेरा अति आत्मविश्वास है .. भटकते देखा है उसे मैंने कई बार !
ये शंका भी जायज़ है ,हर बार उसको लौटा लाना थका देता है ,वो हर बार उसी ऊर्जा से दौड़ पड़ता है ! तारों की छाहँ में उसे नींद नहीं आती , दिन में उसे चैन नहीं ?
ये खेल बढ़ता ही जा रहा है | क्या मैं उसके थक जाने का इंतज़ार कर रही हूँ ? क्या मैं उसे मर जाने देना चाहती हूँ ? क्या मुझे उसका साथ पसंद नहीं ..... ऐसे तमाम सवालों के अनगिनित जवाब है और उन जवाबों से उपजे अनगिनित सवाल। जब सवाल भी अपने हों और जवाब भी अपने तो क्या और किसे क्या-क्या सुनाना है.......
एक दिन ऐसे ही सब कहा - सुना धरा रह जाएगा , सब तरफ का शोर थम जाएगा | उस दिन न मन होगा न मन का होगा .... तब सब वही होगा जो तमाम उम्र होना चाहिए था , शांत और दृष्टा भाव......... उस नीरवता में जोर से हंसना चाहूंगी अपनी मूर्खताओं पर ,अपने पछ्तावों पर ,अपनी ध्रष्टताओं पर ,खुद को झिझोड़ के जगा देने का वक़्त चाहिए |
तो .....अब उस सफर का रुख करना चाहिए जो भीतर ले जाए , अब उस मोड़ को छोड़ देना चाहिए जो फिर फिर बुलाता ,लुभाता और बरगलाता है, भटक जाने को........ अब नहीं जाना , अब लौटना मुमकिन नहीं है ये मन को समझना होगा वरना वापसी होगी नहीं , मंजिल मिलेगी नहीं ,रास्ते साथ देंगे नहीं ... कब तक ,कहाँ तक ले जाये ये रेत का सागर कौन जाने .... मन की मरीचिका का हासिल कुछ नहीं। फिर खुद को भरमाना भी क्या ? अबुझी प्यास से मरना तो नियति नहीं मेरी ?
!!
सफर मन से मन का ही हो | बाहर निकल कर जाएंगे तो धूल ,धक्के ,शोर और बदहवासी की सिवा कुछ हासिल नहीं , जो हासिल हुआ भी तो तन मैला , मन खाली ही जायेगा !
सो मन से बतिआइये , उसे खुद में लौटा लाईये !
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