Tuesday, 26 January 2016

सहजता की लक्ष्मण रेखा के पार खड़े होने वाला हर याचक अब रावण दिखने लगा है..........


पिछले कुछ समय से खुद को जेहादी बनने से रोक रही हूँ , कामयाब हुई या नहीं, पता नहीं लेकिन भीतर बहुत कुछ घटा है जिसे कहने से खुद को रोक लिया है।

ये भी अजब कश्मकश है चीखने को जी करता है पर हाथ अपने ही मुहं को भींच लेते हैं। हम सब ऐसे ही हैं शायद ........... छुपाना चाहते हैं ,साझा करना चाहते हैं पर डर और संदेह के घेरों में घिरे -छिपे जिंदगी से आँख मिचौनी खेलते हैं। 

ईमानदारी की बात यही कि एक समय था जब बड़ा रुतबा था ख़ुद पर कि ईश्वर की सहृदयता का प्रतिफल मुझसे अधिक कौन जानता होगा ........  जो कुछ देखा -सुना -गुज़रा उसने उस विश्वास को दुगना कर दिया लेकिन कुछ ऐसा बीज कहीं भीतर धंस गया जिसकी शाखाएं अब संशय के फलों से झुकी जा रही हैं ....... 

आशंकाओं से भरी इस दुनिया कि कभी कल्पना नहीं की थी। अपने भीतर डरे सिमटे से लोग इतने लाचार कि उघाड़ कर दिखाना तो दूर अपने जख़्म का इलाज भर नहीं कर सकते। दिन भर दोस्ती का , रिश्तों का दम भरते हैं और सच की नाजुक सी धमक से चटख जाने से डरते हैं।  

जब सबका सच एक ही है तो सब डरते क्यों हैं ? जब सबका झूठ एक ही है तो सबका सच अलग कैसे है ?

सबका दर्द एक ,सबकी दवा एक पर सबके हिस्से अपना अपना घाव है। 

किसी ने कहा कि इश्क़ अंजाम पर इसलिए नहीं पहुंचा क्यूंकि धर्म बीच में आ गया ,किसी ने कहा की महत्वाकांक्षाएं उसे दूर ले गयीं !! किसी ने अपनी जिंदगी के मुश्किल वक़्त को अपने साथी से इसलिए साझा नहीं किया क्यूंकि "बनती नहीं है " तो किसी ने दोस्ती में बगावत कर दी। सबकी अपनी -अपनी कहानियां , अपने अपने अनुभव हैं....... कुछ भी हो बस बात इतनी सी है कि हम बे फ़िक्र हो जाने और कर देने की आज़ादी खो चुके हैं। 

अहं के जंजाल ने रिश्ते निगल लिए , उन्मुक्त हंसी निगल ली। व्हाट्स एप्प के जोक भी इस कदर बोझिल लगने लगते हैं कि एक सोचना पड़ता है कि ये हँसने  के लिए था। 

नहीं , मैं किसी परेशानी में नहीं और किसी अवसाद में भी नहीं हूँ। दोस्त ,  इसे पढ़ के मेरी मनः स्थिति का अंदाजा न लगाया करो। मुझे अब दरिया बन बहना सिखा दिया है जमाने ने। अब किनारों से उलझने से डर नहीं लगता ,न उनको खो दिशा बदले जाने से भयभीत हूँ। 

पर मुझे डर उनका है जो संदेह के इस दौर में निश्चलता से भरपूर उन लम्हों को खो रहे हैं जो ईश्वर ने किसी नियामत की तरह हमारी जिंदगी में भेजे होते हैं।  

सहजता की लक्ष्मण रेखा के पार खड़े होने वाला हर याचक अब रावण दिखने लगा है। स्नेह का दान किसे दूँ ? 

नामों के परे भी कोई संसार तो होगा जहां गुमनाम सा कोई ख्याल होगा ...... वो हंसी ,वो ठहाके ,वो किसी वादी में बिखर जाने का हसीं सा ख्याल ......... 

इर्दगिर्द शंकाओं का जंगल उग आया है ! भाग जाने का मन है........ ब्रेक चाहिए !! ब्रेक ! पहाड़ ,धुआं धुआं मौसम , धुंध की रजाई...... मैं मेरे साथ  !!

हसीं ख्याल है ना ...... पर जल्द ही ये लम्हे भी मैं चुरा ही लूंगी !! आप भी कोशिश करते रहें कि किसी अपने के अपने बने रहे वरना पराया तो हर कोई है ही !

चलते हैं ...... आप भी आनंदित रहिये , आनंदित रखिये भी !

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